पतंग शब्द उड़ने वाली चीज के लिए इस्तेमाल होता था। इस्लामी काल में पतंग के साथ ‘बाजी’ शब्द जोड़कर पतंगबाजी किया गया फ़ारसी में इसे ‘काराज-ए-बाद’ (हवा) कहते थे। एन्साइक्लोपीडिया ब्रिटेनिका के अनुसार सबसे पहले पतंग ईसा मसीह के जन्म से चार सौ वर्ष पूर्व टोरंटल में आचटास नामक व्यक्ति ने बनाई थी। लेकिन एशियाई देशों और जनजातियों में इसका रिवाज इतना पुराना है कि इसकी मुद्दत का अंदाजा लगाना भी मुश्किल है। बहुत-से इतिहासकारों ने पतंग को मजहब से भी जोड़ा है।

पतंग उड़ाने के साथ-साथ भजन भी गाए जाते थे जिनमें पतंग की खूबियों का गुणगान होता था। मानो यह किसी देवता का रूप या प्रतीक हो। कहते हैं कि कोरिया में सेना के एक सेनापति ने सैकड़ों वर्ष पहले अपनी सेना का मनोबल बढ़ाने के लिए और उनमें एक नया उत्साह पैदा करने के लिए पतंग के साथ-साथ एक कंदील भी उड़ाई थी। उस कंदील को देखकर उसकी सेना ने सोचा कि आकाश में एक नया तारा उभरा है जो हमारी विजय का संदेश लाया है। कोरिया के एक दूसरे सेनापति के बारे में यह भी मशहूर है कि उसने पतंग उड़ाकर नदी के पाट को नापा और उसी हिसाब से उस पर पुल तैयार करवाया। सच तो यह है कि कोरिया, जापान और चीन और पूर्व एशिया के सभी देशों में एक समय कुछ दुकानदार अपना सारा काम छोड़कर पतंग उड़ाने लगते थे और उससे उनका धंधा भी चौपट हो जाता था। चीनी और जापानी पतंग हमारे देश की पतंगों से रूप आकार की दृष्टि से हमेशा भिन्न रहीं। उन देशों में किसी पतंग का रूप किसी पक्षी, सांप या अजगर पर, किसी चौपाए पर और किसी मछली की तरह होता था।

छोटी पतंगों के अलावा सात-आठ फुट तक की पतंगें भी बनाई जाती थीं। पतंगबाजी उन देशों में बहुत लोकप्रिय है और कई प्रकार से बनाई जाती है। उनकी प्लास्टिक की पतंगें हर देश के बच्चे पसंद करते हैं। आम पतंगों में कॉप और ठुड्डे और चारों तरफ़ कन्नियां बांस की बनी होती हैं और चावल के बारीक कागज या बहुत ही हलके रेशम से उन्हें मढ़ दिया जाता है।

प्राचीन काल में चीन में नवें मास का नवां दिन पतंग का दिन ही कहलाता था। उस दिन छोटे-बड़े, गरीब-अमीर हजारों आदमी और लड़के छतों, टीलों और मैदानों में जाकर पतंग उड़ाते थे।

मलेशिया में पतंग बड़ी लोकप्रिय रही है और वहां के लोग भी तरह-तरह की पतंगें बनाते थे। उनमें बहुत-सी ऐसी होती थीं जिनमें कोई दुमछल्ला नहीं होता था। शिकागो में हुई 1894 ई. में कोलंबिया की एक प्रदर्शनी में मलेशिया के सुलतान ने पंद्रह प्रकार की पतंगें भेजी थीं।

एशिया के अनेक देशों में ख़ास तौर पर चीन या जापान में ऐसी पतंगें भी बनती थीं जिनके ठुड्डे पर बहुत बारीक छेद बना दिए जाते थे और जब हवा उसमें से गुजरती थी तो एक संगीत पैदा होता था जो नीचे दूर तक साफ़ सुनाई देता था। उन छेदों को आम तौर पर वही कारीगर बनाते थे जो लकड़ी के मुंह से बजाने वाले सूखदार साज बनाते थे कुछ देशों के बहमी लोगों का यह भी विश्वास था कि पतंगों से भूत-प्रेतों और दुरात्माओं को दूर रखा जा सकता है। ये लोग अपनी पतंगों को रात-रात भर उड़ाए रखते थे ताकि कोई दुष्टात्मा उनके मकान के पास न फटक सके। तेज हवा होती तो ये लोग आसमान में पतंग ऊंची उड़ाकर डोर दरवाजे, खिड़की या छत की मुंडेर से बांध देते और पतंग खुद उड़ती रहती।

अठारहवीं सदी के मध्य में पतंगों से विज्ञान और तकनीक के कई प्रयोगों में भी फ़ायदा उठाया गया था। बेंजामिन फ्रैंकलिन ने भी बहुत से नए-नए प्रयोग किए। पतंग की मदद से उसने हवा में से बिजली को पकड़ा और प्रकाश की शक्ति का प्रदर्शन किया। उन्नीसवीं सदी में हवा, बरसात, बिजली आदि की परख के लिए पतंग की मदद ली गई। मौसम का पता मालूम करने वाले विभागों ने भी पतंग से काम लिया। ऐसी पतंगों को ‘बॉक्स काइट’ या ‘संदूक पतंग’ कहते थे।

अनेक देशों में सुरक्षा के कामों में भी पतंग को इस्तेमाल में लाया जाता था। पतंग में बाँधकर ख़बरें पहुँचाना, संदेश भेजना, पतंग से बाँधकर झंडा उड़ाना इस तरह के बहुत से कामों में पतंग का फ़ायदा उठाया गया है। एक-दो देशों में तो पतंग के साथ एक छोटा-सा कैमरा चिपका कर दुश्मन के अड्डों और उसकी गतिविधि के चित्र तक लिए गए हैं। हमारे कुछ लोगों का यह कहना है कि पतंग उड़ाने और उसके उड़ते हुए देखने से आँखों की रोशनी भी बढ़ती है और आँखें दुखनी नहीं आतीं।

हिन्दुस्तान में पतंगबाजी का इतिहास और परंपरा बहुत पुरानी है। हमें प्राचीन काल के कई ऐसे चित्र भी मिले हैं जिनमें कृष्ण कन्हैया को पतंग उड़ाते दिखाया गया है। इस प्रकार उसका सिलसिला महाभारत के युग से जा मिलता है। बाद के समय में भी कई धार्मिक और ऐतिहासिक पुस्तकों में इसका उल्लेख मिल जाता है। मुग़ल काल में तो पतंगबाजी का रिवाज आम था। मुग़ल बेगमात और शहजादियों को भी पतंग उड़ाने का शौक था ऐसे बहुत से चित्र हैं जिनमें स्त्रियों को पतंग उड़ाते दिखाया गया है।

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