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दिल्ली में विभिन्न जातियों, प्रांतों के लोग कैसे मनाते हैं दिवाली, पढिए दिलचस्प स्टोरी

दिल्ली के दिवाली की तो बात ही निराली है। आपसी भाईचारे की मिसाल पेश करता वह त्योहार जो सिर्फ पटाखा जलाने तक ही सीमित नहीं रहता अपितु धार्मिक अनुष्ठानों, मिठाईयों की मिठास के जरिए दिलों को जोड़ता है।

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दिल्ली के दिवाली की तो बात ही निराली है। आपसी भाईचारे की मिसाल पेश करता वह त्योहार जो सिर्फ पटाखा जलाने तक ही सीमित नहीं रहता अपितु धार्मिक अनुष्ठानों, मिठाईयों की मिठास के जरिए दिलों को जोड़ता है। खुशियों वाली दिवाली की पंखुड़ी  विभिन्न प्रांतो, राज्यों से आए विभिन्न जाति, धर्म, सम्प्रदाय के लोगों की वजह से ही फबती है। इन्होंने दिल्ली को दिल से अपना लिया है। दिल्ली दीप तो ये लौ की तरह है। जिन्होंने त्योहारों का असली मायने दिल्ली को समझाया है। इनकी वजह से हर त्योहार खास हो जाता है। क्यों कि इन्होंने अपने को भीड़ में गुम होने से बचाया है। इस बार विभिन्न वर्गों के जरिए हम दिवाली की लोक परंपरा एवं उन कहानियों से रूबरू होंगे जिन्हें बदलते दौर में हम भूलते जा रहे हैं--- 
पटाखों से दूर सैर सपाटे वाली दिवाली
इतिहासकार कहते हैं कि पुरानी दिल्ली की दिवाली की अपनी ही खासियत है। हफ्तों पहले घर की सफाई शुरू हो जाती थी। लोगों के चेहरे पर रंगत सी छा जाती थी। बातचीत में उत्साह झलकता था। बाजारों में मिट्टी के दीये, छोटे छोटे खिलौने बिकते थे। खिलौने बेचने वाले गलियों में जोर आवाज लगाते थे। लड़कों के लिए सिपाही, जानवर, पशु, पक्षी के खिलौने थे तो वहीं बच्चियों के लिए किचन के सामान वाले खिलौने बिकते थे। इन्हें देखते ही बच्चों का चिल्लाना मानों घर में दबे पांव दिवाली की आहट सुनाता था। एक अलग तरह का खिलौना बच्चों को पसंद आता था। वह एक औरत का होता था जो सिर पर मटका लिए थेे। इस मटके में खील होती थी। दिवाली के दिन शाम में पटाखों का शोर होता था। इसलिए बच्चों ही नहीं बड़ों की दिवाली वाली शाम तो घर के अंदर ही मनती थी। लेकिन चंद घंटों में जब पटाखों का शोर कम हो जाता तो फिर अभिभावक अपने बच्चों के साथ चांदनी चौक की सैर पर निकल जाते। यहां दुकानों पर दीप की रोशनी में बैठे कारोबारियों को देखना, मिठाईयों का स्वाद चखना एक अलग ही मजा देता था। चांदनी चौक में कभी नहर के दोनों तरफ दीप जलाकर उत्सव मनाया जाता था। दीपक भले ही हिंदू जलाते थे लेकिन तेल शीशगंज गुरूद्वारा द्वारा दिया जाता था जबकि बाती मुस्लिम परिवार देते थे। चांदनी चौक से फतेहपुरी तक नहर के  पानी में दीपक का प्रतिबंब हर किसी को मोह लेता था। लोग किनारे खड़े होकर घंटो दीदार करते थे। अब नहर तो नहीं है लेकिन पुरानी दिल्ली में रात के समय लोग आज भी सैर सपाटे को आते हैं। पटाखों से इतर लाल किला समेत विभिन्न धार्मिक स्थलों की सजावट देखना दिल को सुुकून देता है। इस दिन गेंदे के पीले और लाल फूल से सजावट की परंपरा है। माना जाता है कि इससे लक्ष्मी प्रसन्न होती है। दिवाली के दिन आज भी चांदनी चौक से लेकर फतेहपुरी तक दुकानों, घरों को फूलों से सजाया जाता है। 
 धनतेरस से शुरू हो जाता है सेलिब्रेशन 
दिल्ली के खालिस अग्रवाल परिवार से संबंध रखती मधु कहती हैं कि हमारे यहां दिवाली का जश्न होई अष्टमी  से ही शुरू हो जाता है। बुधवार को होई अष्टमी मनाई गई। इस दिन घर में सफाई की जाती है। फिर होई माता की तस्वीर पूजा घर में लगाई जाती है। महिलाएं बच्चों की लंबी आयु के लिए होई माता का व्रत रखती है। इनकी तस्वीर के सामने जल पात्र रखा जाता है। गेंहू एवं मीठे पूड़े चढ़ाए जाते हैं। चढ़ाए हुए गेंहू के कुछ दाने महिलाएं अपने पल्लू से बांध लेती है। दिन में ही बैना निकाला जाता है, जिसमें मिठाई, कचौड़ी और पैसा रखा जाता है। यह बैना घर के सबसे बुजुर्ग या फिर मंदिर के पुजारी की पत्नी को दिया जाता है। शाम के समय गेंहू के दाने एवं जल का तारों को अर्पण किया जाता है। इसके बाद महिलाएं दिन भर व्रत रहने के बाद पारन करती है। जल पात्र में जो जल होता है उसे उसी तरह रहने दिया जाता है। छोटी दिवाली के दिन घर की औरतें इसी पानी से नहाती है। धनतेरस वाले दिन चांदी का बर्तन खरीदा जाता है। जबकि बड़ी दिवाली के दिन सुबह मीठे पूड़े बनाए जाते हैं। इस पर हल्दी का छींटा लगाया जाता है। पूजा के बाद इसे मंदिर में दान कर देते हैं। इसे मिंसाई निकालना कहते हैं। शाम के समय खील, बताशा, मिठाई और पैसे बतौर मिंसाई अलग अलग निकालते हैं। ये मिंसाई दुर्गा, हनुमान देव समेत पितरों के लिए निकाली जाती है। यही नहीं कुम्हार, जमादार के लिए भी निकालते हैं। अगले दिन देवी-देवताओं समेत पितरों वाली मिंसाई दान दे दी जाती है जबकि कुम्हार एवं जमांदार घर पर आकर ले जाते हैं। दीपक जला घर को सजाते हैं एवं फिर पूड़ी, सब्जी समेत मिठाई खाकर दिवाली सेलिब्रेट करते हैं। 
गुरूबानी कीर्तन से भक्तिमय माहौल
परमिंदर पॉल सिंह कहते हैं कि सिख धर्म में दीपावली के दिन को 'बंदी छोड़ दिवसÓ के रूप में मनाया जाता है। यह त्यौहार सिखों के तीन त्यौहारों में से एक है, जिनमें पहला माघी, दूसरा बैसाखी और तीसरा 'बंदी छोड़ दिवसÓ गुरुद्वारों में इस दिन विशेषतौर पर धार्मिक समागम किए जाते हैं। इस दिन को बड़ी ही धूमधाम से मनाया जाता है क्योंकि इस दिन बुराई पर सच्चाई की जीत हुई थी। श्री गुरु हरगोविंद साहिब जी को जब मुगल शासक जहांगीर ने गिरफ्तार किया था, तब गुरु साहिब रिहाई के वक्त अपने साथ 52 अन्य राजाओं को भी रिहा करवाया था। इन राजाओं की रिहाई के लिए भाई हरिदास ने एक ऐसा चोला तैयार करवाया जिसमें 52 कलियां थी। जिसके बाद हर एक राजा ने एक कली पकड़ी और किले से बाहर आ गए। जिसके चलते गुरु साहिब को बंदी छोड़ दाता कहा गया है और इस रिहाई वाले दिन को ही बंदी छोड़ दिवस के रूप में मनाया जाता है। जब वो अपने आवास पहुंचे तो दिवाली का दिन था। इसलिए दिवाली के दिन ही बंदी छोड़ दिवस मनाया जाता है। इस दिन सिख संगत और सिख संगठनों द्वारा खासतौर पर धार्मिक समागमों का आयोजन किया जाता है। समागम में कीर्तन और कथा करवाए जाते हैं। इस दिन को ऐतिहासिक महत्व से अवगत कराया जाता है। 
पर्वतीय समाज की सद्भाव वाली दिवाली 
दिल्ली में पर्वतीय इलाके के लोगों की बहुलता है। बहुतायत संख्या लक्ष्मी नगर, अशोक नगर, दयालपुर, बुराड़ी, किराड़ी, रोहिणी, आरकेपुरम, बदरपुर, मयूर विहार, मजनूं का टीला समेत अन्य जगह रहती है। मयूर विहार निवासी अर्जुन राणा कहते हैं कि दिवाली बड़ी धूमधाम से मनाई जाती है। सबसे पहले तो देवी की आराधना होती है। इसके लिए एक लंबी लकड़ी पर कपड़ा लपेट आग लगा देते हैं। फिर गांव, क्षेत्र की सीमा के अंदर लेकर घूमते हैं, इसके पीछे ढोल नगाड़े वाले घुमते हैं। दिल्ली के बहुतायत इलाके में तो इसका पालन नहीं होता लेकिन कई क्षेत्रों में लोग इसी तरह पूजा करते हैं। शाम के समय रिश्तेदारों को पहाड़ी दाल की पकौड़ी देना अनिवार्य है। हम, उड़द की साबुत दाल से पकौड़े बनाते हैं। इसके अलावा गैंत(पूड़ी के अंदर दाल वगैरह भरकर) बनाते हैं। ये दोनों ही डिश दिवाली के दिन जरूर बनाई जाती है। 
 निर्वाण कांड का पाठ जरूरी
राजकुमार जैन कहते हैं कि यह माना जाता है कि, दीपावली के दिन, भगवान महावीर (युग के अंतिम जैन तीर्थंकर) ने 15 अक्टूबर 527 ईसा पूर्व को पावापुरी में कार्तिक के महीने(अमावस्या की सुबह के दौरान) की चतुर्दशी पर निर्वाण प्राप्त किया था। हटरी खरीदकर ले आते हैं एवं फिर भगवान महावीर की आरती करते हैं। रात के समय निर्वाण कांड का पाठ जरूर किया जाता है। रोशनी और दीये के साथ मंदिरों, कार्यालयों, घरों, दुकानों को सजाते है जो ज्ञान को फैलाने और अज्ञान को हटाने का प्रतीक है। कई लोग पावा-पुरी की यात्रा भी करते हैं। कुछ लोग नया साल के रूप में भी मनाते हैं। बकौल राजकुमार, जैनी शांति में विश्वास रखते हैं। पटाखा फोडऩे से बचते हैं। कैलाश नगर, गांधी नगर, कृष्णा नगर, रिषभ विहार, ग्रेटर कैलाश, चांदनी चौक में बड़ी धूमधाम से दिवाली मनाते हैं। 
चमक-दमक से दूर खालिस दिल्लीवाली दिवाली 
पुरानी दिल्ली के श्रीवास्तव परिवार आज भी चमक दमक से दूर सादगी भरी दिवाली मनाना पसंद करते हैं। भले ही बाजार आर्टिफिशियल सामानों से अटे पड़े हैं लेकिन ये परिवार परंपरागत तरीके से ही दिवाली मनाने में यकीन रखते हैं। सीताराम बाजार निवासी सुरेश अग्रवाल बताते हैं कि दिवाली पर घरों की सफाई होती है। अन्य परिवारों की तरह हम भी मिठाई खरीदते हैं। लेकिन शाम में होने वाली पूजा में हम सिर्फ मिट्टी के दीये ही इस्तेमाल करते हैं। मसलन, मटकी, मिट्टी के दीप, हटरी, बड़े दीये खरीदते हैं। गणेश जी की मिट्टी की मूर्ति भी खरीदते हैं। हमारे यहां, गणेश के बाद हनुमान जी की पूजा होती है। जो शायद अपने आप में अनोखी है। हनुमान जी की मूर्ति भी मिट्टी की ही होनी चाहिए। पूजा के बाद बड़ों का आर्शिवाद लिया जाता है एवं फिर मिठाईयां खायी जाती है। लेकिन दिवाली यहीं पूरी नहीं होती है। तड़के सुबह खील, बताशे, फूल लेकर महिलाएं घर के बाहर जाती है एवं थोड़ी दूर एक जलते दीपक के साथ रख देती है। इसे तड़के सुबह तारों की छांव में रखना होता है।  
..पूर्वांचल की विश्व बंधुत्व वाली दिवाली
दिल्ली में पूर्वांचल के लाखों लोग रहते हैं। अपने घरों से दूर इन्होंने दिल्ली को दिल से अपना लिया है। हां, घर की दिवाली याद आती है लेकिन ये लोग अब यहीं अपनी परंपराओं संग त्योहार मनाना पसंद करते हैं। नरेन्द्र मिश्रा कहते हैं कि प्राकृतिक रुप से दिवाली मनाते हैं। चाइनीज चीजों का इस्तेमाल नहीं करते हैं। हम मिट्टी के दीप, मोमबत्ती प्रयोग करते हैं। घर की सफाई के अलावा छोटी दिवाली के दिन हम यम के लिए दीप जलाते हैं। ऐसी मान्यता है कि लक्ष्मी और दरिद्र भाई-बहन है। जो अमावस्या के दिन ही मिलते हैं एवं सुबह ही बिछड़ भी जाते हैं। दिवाली की शाम लक्ष्मी, गणेश की पूजा होती है एवं फिर नजदीकी मंदिर में हम दीपक जलाते हैं। इसके बाद पूड़ी, सब्जी समेत अन्य मिष्ठान खाते हैं। तड़के सुबह सूप को किसी लोहे या लकड़ी से बजाते हुए महिलाएं घर के बाहर जाती है। ऐसा कहा जाता है कि इसे बजाने से घर से दरिद्रता भाग जाती है। यह तड़के सुबह ही किया जाता है। 
बंगाली दिवाली
बंगाल में दुर्गा पुजा धूमधाम से मनाई जाती है। दुर्गा पूजा के चौथे दिन कोजागोरी लक्ष्मी पूजा की जाती है। पंडाल में ही लक्ष्मी की पुजा की जाती है। पूरी रात भक्त जागते हैँ एवं भजन, कीर्तन किया जाता है। जिस दिन उत्तर भारत के लोग दिवाली मनाते हैं उस दिन बंगाल में काली पूजा होती है। रीना बनर्जी कहती हैं कि दिल्ली में जो बंगाली रहते हैं उनमें अधिकतर अब दिवाली के दिन लक्ष्मी की ही पूजा करते हैं। वो खुद, उत्तर भारत के लोगों की तरह ही दिवाली मनाती है जबकि परिवार बंगाली रीति रिवाज से। 

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