बादशाह बेगम ने बड़ी धूमधाम से चादर चढ़ाई और इस मौके पर शहर भर के हिन्दू-मुसलमान सभी शरीक हुए। कई दिन तक मेला भरा रहा। फूल वालों ने जो मसहरी बनाई उसमें फूलों का एक पंखा भी लटका दिया था। बादशाह को यह मेला इतना पसंद आया कि उन्होंने यह प्रस्ताव किया कि हर साल भादों के शुरू में यह मेला हुआ करे और मुसलमान दरगाह शरीफ़ पर पंखा चढ़ाएँ और हिन्दू जोगमाया के मंदिर पर, मगर दोनों ही जगहों पर हिन्दू और मुसलमान दोनों शरीक हों। इससे हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच आपसी प्रेम बढ़ेगा। इस तरह से ‘फूलवालों की सैर’ का मेला शुरू हो गया। जो ‘सैर-ए-गुलफ़रोशाँ’ भी कहलाता है। बादशाह ज़फ़र के ज़माने में तो इसका वह ज़ोर हुआ कि बयान नहीं किया जा सकता। पहले मेले में ही सिराजुद्दीन ज़फ़र ने, जो उस समय युवराज थे, पंखा यह कहकर पेश किया था-
नूर-ए-अलताफ़-ओ-करम की है
यह सब उसके झलक कि वो ज़ाहिर है
मलिक और है बातिन में मलकर इस तमाशे की न क्यों धूम हो
अफ़लाक’ तलक आफ़ताबी से खजिल’ जिसके है खुरशीद मलक
यह बना उस शह-ए-अकबर की बदौलत पंखा शायक इस सैर के सब आज हैं वादीद:-ए-दिल
भादों का मौसम है और मेह बरस रहा है। कभी बरस कर रुक जाता है और कभी फिर शुरू हो जाता है। कभी नन्हीं बूँदों की फुहार है और कभी छतों पर से परनाले धाय धायें नीचे गिर रहे हैं। जमना चढ़ी हुई है। ऐसे मौसम में क़िले वालों को फूल वालों की सैर के मेले का ख़याल आता है और बादशाह के हुजूर में दरख्वास्त की जाती है कि मुनासिब समझें तो मेले की तारीख निश्चित कर दें। बादशाह तारीख़ नियत कर देते हैं। बस उसी वक़्त सारे शहर में नफ़ीरी बजाकर ऐलान हो जाता है। और किले में जोर-शोर से तैयारियाँ शुरू हो जाती हैं। आम तौर पर यह मेला भादों की पन्द्रह तारीख को शुरू हो जाता था कुछ दिन पहले ही बादशाह, शहजादे और शहजादियों मुँह अँधेरे ही कुतब के लिए रवाना हो जाते थे। बादशाह की सवारी बड़ी धूम से निकलती थी और रास्ते में पुराने क़िले, शेरशाह की मस्जिद, हुमायूँ के मक़बरे, दरगाह निजामुद्दीन औलिया होती हुई मदरसे यानी सफदरजंग के मकबरे पर ठहर जाती थी। बादशाह और उनके सब साथी दो-ढाई घंटे आराम करते, ख़ासा खाने के बाद शाम तक महरौली पहुँच जाते थे। महरीली में जंगी महल, जो अब नहीं रहा और मि बाबर की कोटी पहले से सजा दी जाती थी।
दूसरे दिन सुबह सवेरे ही महल में चहल-पहल शुरू हो गई मुँह-हाथ धोकर, कपड़े बदलकर पहले सबने नमाज पढ़ी और फिर सब शहजादों और शहजादियों ने दरगाह शरीफ़ पर हाजिरी दी। फिर जहाज-महल पर जाकर दम लिया। शम्सी तालाब की सैर की और औलिया मस्जिद से झरने जा पहुँचे। उस वक़्त के झरने के क्या कहने! फीरोजशाह तुगलक ने शम्सी तालाब पर बाँध बनवाकर उसका पानी नीलखी नाले में डाला था और उस नाले को तुगलकाबाद के नालों से मिला दिया था ताकि किले में पानी की कमी न हो। तुगलकाबाद वीरान हो गया, नाला टूट गया और तालाब का पानी जंगल में बहने लगा। यह देखकर 1700 ई. में नवाब ग़ाज़ीउद्दीन फिरोज जंग बहादुर ने शम्सी तालाब के बाँध के सामने हौज बनवाए, नहरें निकालीं, फ़व्वारे लगवाए और उस टुकड़े को जन्नत का नमूना बना दिया। शहजादे और शहजादियाँ खूब आजादी से सब जगह सैर करते, झूले झूलते और तरह-तरह के पकवान खाते थे।
दिल्ली वाले इस ‘सैर’ की तैयारियाँ तो साल भर पहले से करते थे, मगर पहुँचते थे एक रात पहले। मेले वाले दिन सारा दिन खाते-पीते, पतंग उड़ाते, मुर्गे और बटेर लड़ाते और शाम को पंखे के इंतजार में छज्जों, कटरों, बरगदों और चबूतरों पर बैठ जाते या रास्ते में खड़े हो जाते। उनके पुरानी दिल्ली से कुतुब साहब तक पहुँचने का मंजर भी बड़ा आकर्षक था, यों समझ लीजिए कि दिल्ली खाली हो जाती थी और महरौली आबाद हो जाती थी।
सवारियों का ताँता बँध जाता था। ठसाठस भरे ताँगे, ऊँटगाड़ियाँ, बैलगाड़ियाँ और ठेले चले जा रहे हैं मर्दों, औरतों और बच्चों ने नए-नए कपड़े पहने हैं और ख़ुशी और जोश से सबके चेहरे ताँबा बने हुए हैं। पैदल जाने वालों की गिनती भी कुछ कम न होती जितना हुजूम सवारियों पर लदा है उतना ही दोनों तरफ़ पैदल चल रहा है। किसी के सिर पर बड़ा-सा मटका है जो संदूक और छतरी दोनों का काम देता है। मटके में तड़क-भड़क वाले कपड़े हैं। किसी की बग़ल में जूतियाँ हैं तो कोई सिर पर गठरी लादे चला आ रहा है। थोड़ी देर सुस्ताने के लिए मदरसे पर ठहर जाते और ताज़ा दम होकर फिर काफ़िला रवाना हो जाता। जो है कुतब साहब चला जा रहा है।