अगर दिल्ली की मिली-जुली संस्कृति, मेल-जोल और आपसी भाईचारे को किसी त्योहार या मेले की सूरत में देखना है तो मस्तिष्क में सहसा फूलवालों की सैर का मेला उभर आता है। हमारे देश में सभी धर्मों के मानने वाले रहे हैं। हिन्दू, मुसलमान, सिख, ईसाई और पारसी भी और जैन, बौद्ध और यहूदी भी। ये सब इस देश में सैकड़ों-हजारों वर्षों से मिल-जुलकर रहते आए हैं। हमारी आज की लोकतंत्रात्मक व्यवस्था भी हर व्यक्ति को धार्मिक स्वतंत्रता प्राप्त है, हालाँकि सरकार धर्म को राजनीति से अलग रखने की नीति अपनाए हुए है। यहाँ के नागरिकों को अपनी धार्मिक रीतियाँ, तीज-त्योहार और मेले-ठेले मनाने की मुकम्मल आजादी है। दिल्ली के अधिकतर त्योहार और मेले धार्मिक और मौसमी हैं। फूलवालों की सैर दिल्ली वालों के आपसी प्रेम का ही प्रतीक है।

Interesting History of Phool Walon Ki Sair फूलवालों की सैर का मेला एक ऐसा मेला है, जिसके बारे में सही तौर पर बताया जा सकता है कि कब और कैसे शुरू हुआ। आज से कोई पौने दो सौ साल पहले दिल्ली के लालकिले में अक़बर शाह द्वितीय का राज्य था। अकबर शाह द्वितीय के एक चहेते बेटे थे मिर्ज़ा जहाँगीर। बादशाह के असल युवराज तो थे बहादुरशाह ज़फ़र, मगर वह किसी वजह से उन्हें पसंद नहीं करते थे और मिर्ज़ा जहाँगीर को अपना युवराज बनाना चाहते थे। अंग्रेज़ों ने इस बात को नहीं माना। उन दिनों बादशाह पर फिरंगियों का दबाव था, हालाँकि शासन बादशाह का था, मगर हुक्म फिरंगियों का ही चलता था । बादशाह आर्थिक दृष्टि से भी अंग्रेज़ों के आश्रित थे, क्योंकि उनसे दो लाख रुपए वजीफ़ा माहवार पाते थे।

एक अंग्रेज़ रेजीडेंट क़िले में रहता था और बादशाह कोई फ़रमान जारी करते तो उसकी मंजूरी लेते। मिर्जा जहाँगीर लाड़-प्यार में बिगड़ गए थे। एक दिन किले में रह रहे रेज़ीडेंट से उनका सामना हुआ तो मिर्जा ने कहा, ‘लूलू है वे लू-लू है।’ रेंज़ीडेंट जिसका नाम सेटिन था। समझ तो गया कि शहजादे ने कोई बेहूदगी की है, मगर फिर भी उसने मिर्जा के साथियों से पूछा कि साहब आलम क्या कहता है। साथियों ने बुद्धिमानी से काम लेते हुए जवाब दिया, ‘हुजूर साहब आलम ने आपको लूलू यानी आबदार मोती कहा है।’ सेटिन, जो समझ गया था कि शहजादे ने उसका अनादर किया है, नफ़रत भरी हँसी से बोला, ‘हम साहब आलम को लूलू बनाएगा।’ मिर्ज़ा जहाँगीर समझते थे कि उनके बाप का राज्य है। इस फिरंगी का यह हौसला कि यह हमें लूलू बनाए। झट से तमंचा निकाला और रेज़ीडेंट पर दाग़ दिया। वह तो खैर हुई निशाना चूक गया।

रेजीडेंट ने इस घटना का विवरण कंपनी को लिख भेजा और मिर्ज़ा जहाँगीर को नज़रबंद करके इलाहाबाद भेज दिया और बादशाह को बताया कि शहजादे को प्रशिक्षण की आवश्यकता है, जब वह पूरा हो जाएगा, इलाहाबाद से वापस बुला लिए जाएँगे। बादशाह मज़बूर थे, खून का-सा घूँट पीकर रह गए। मिर्ज़ा जहाँगीर की माँ नवाब मुमताज़ महल का बुरा हाल हो गया, मगर रो-धोकर बैठ गई। उन्होंने मन्नत मानी कि जब मिर्ज़ा जहाँगीर छूटकर आएँगे तो कुतब साहब में ख्वाजा बख्तियार काकी के मजार पर फूलों का छपरखट और गिलाफ़ चढ़ाऊँगी। खुदा का करना यह हुआ कि मिर्ज़ा जहाँगीर सैटिन के ही हुक्म से कुछ अर्से के बाद रिहा हो गए। जब वह इलाहाबाद से दिल्ली के लिए रवाना हुए तो राह में हर जगह उनका शानदार स्वागत हुआ।

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