महरौली में महीनों पहले से ठहरने के बंदोबस्त किए होते। मकान, कोठे, कोठरियाँ, बाग़-बगीचें सब आबाद हो जाते। तिल धरने को जगह न रहती। महरौली के बाजार की काया पलट जाती। दुकानें खूब सजतीं, उनके ऊपर कोठे भी सलीके से सजाए जाते थे। झाड़-फानूस, हाडियाँ लटकाई जाती थीं यार लोग निहायत उम्दा कपड़े पहने, जूठी के कंठे और मोतियों के हार गले में डाले, इत्र के फोड़े कान में उड़से, पान चबाए, हुक्के का दम लगाते सेर का लुक उठाते घूमते-फिरते भीड़ इतनी हो 1 जाती कि कंधे से कंधा छिलने लगता और गुज़रना मुश्किल हो जाता।

हरेक मकान से छमछम की आवाजें सुनाई देतीं। शहर भर की वेश्याएं डेरा डाल देतीं और दिन-रात मुज़रे होते रहते। जगह-जगह पतंगों के पेंच लड़ते दंगलों में पहलवानों की कुश्तियाँ होतीं। ढोल तो बजता ही रहता मगर दर्शक हर पल इतना शोर मचाते। और चीखते-चिल्लाते कि कान पड़ी आवाज सुनाई न देती कक्कड़ वाले की निराली ज्ञान है। बहुत बड़े पाँच-छह फुट के हुक्के में पाँच-छह गज लंबी नै लगी हुई है। सारा हुक्का फूलों से लदा हुआ है। चाँदी के घुंगरू लटके हुए हैं। बाजार वाले बारी-बारी नै पकड़कर कश लगा रहे हैं। फिर बालाखाने से कोई आवाज़ देता है कि मियाँ ने ऊपर कर दो, तो ऊपर कर दी जाती है और बालाखानों में बैठे दो-दो कश लगा लेते। जगह-जगह तंदूर भी लगे हैं और ख़मीरे की लपटें दूर-दूर तक जा रही हैं। देश का ढक्कन उठता तो सारा बाजार महक जाता। सक्के जगह-जगह मश्क लिए खड़े होते और कटोरा बजाते रहते। हर राहगीर से पूछते, “मियाँ, आब-ए-हयात पिलाऊँ ?” जिसका जी चाहा उसने पानी पिया और पैसा दो पैसा देकर आगे बढ़ गया।

गंधक की बावली पर भी बड़ा जमघट लगा होता। कूदने वाले लड़के लंगर-लॅगोट पहने खड़े हैं। किसी ने कोई सिक्का उन्हें दिखाकर बावली में फेंका और ये छलाँग लगा गए। थोड़ी देर में उभर कर आएँगे तो फेंका हुआ सिक्का उनके दाँतों में होगा। सिक्का फेंकने वाले को सलाम करके ये लड़के फिर बावली पर खड़े हो जाएँगे ताकि कोई और दर्शक उनका करतब देखने के लिए सिक्का फेकें ।

अमराइयों की शोभा देखने योग्य होती थी। मोर झंगार रहे हैं और कोयलें कूक रही हैं। कढ़ाइयाँ पक रही हैं, देगें चढ़ी हुई हैं, तरह-तरह के पकवान और खाने बन रहे हैं। कई जगहों पर लोगों ने चुसनी आम चूस चूसकर गुठलियों और छिलकों के ढेर लगा दिए हैं। मेवा, मिठाइयाँ, फल-फलानी सभी कुछ हैं। फेनिया और अंदरसे की गोलियाँ मौसम की ख़ास मिठाइयाँ हैं। झूले पड़े हुए हैं और जामनें गिरी पड़ी हैं और टप टप गिरती जा रही हैं। काली घटा छाई हुई है और हलकी फुहार पड़ रही है। औरतें लंबी-लंबी पेंगे पढ़कर झूले पर बादशाह का गीत गा रही हैं-

झूला किनने डालो है अमरियाँ बाग अँधेरे ताल किनारे मुरल्ले झींकारे, बादर कारे बरसन लागी बूँदें फुइयाँ-फुइयाँ झूला किनने डालो है अमरियाँ

अमराइयों में एक सुहानी जगह पर शाही महिलाओं के लिए सेमे तन जाते। रेशमी झूलों और खुशनुमा रंगीन पटरियों पर बेगमें और शहजादियों झूलती। झेमनियाँ मल्हार गाती। पकवान और मिठाइयाँ खाई जातीं और इस तरह जंगल में मंगल हो जाता।

फूलवालों की सैर का वर्णन इन पंक्तियों में कितनी सुंदरता से किया गया है-

खल्कुल्लाह क्यों ख़रोशा है

आज क्या सैर-ए-गुलफ़रोशा है बहलियों यक्कों का इक ताँता है जिसको देखो वो कुतब जाता है।

भाई जग्गू के है सर पर दुकान जाके महरौली में बेचेगा पान

मियाँ राफर भी इस मेले पर लाए हैं सारा कुनबा ठेले पर पा पियादों के देखिए बूते

लिए हुए हैं बग़ल में जूते अब आया क़स्बे का मीना बाज़ार

सजी सजाई दुकानों की कतार हरेक दुकान में भरा है माल

मिठाइयों के चुन रहे हैं बाल नाशपाती, अनार और अमरूद

कहीं कढ़ाई में चढ़ा है दूध

बेचता है कोई बुढ़िया के बाल सेव बेसन के और चने की

दाल कबाब-ए-सीख भुन रहे हैं कहीं लोग क़व्वाली सुन रहे हैं कहीं

नाच गाने हरइक मकान में हैं इत्र के फोए सबके कान में हैं

वाम पर है नवाब मोटे से

नै पकड़ ली उन्होंने कोठे से

आए बाज़ार में गिरधारी लाल

तोंद इतनी है कि दुश्वार सँभाल रईस है यह हाल हैं पल्ले खरीदते हैं अंगूठी उल्ले

हँसी मज़ाक़ का अजब है तौर चल रहा है शराब-ए-नाव का दौर बोतल इक और आने वाली है

नवाब पुतली गाने वाली है

बादशाही खेमे से लेकर हजरत कुतब साहब बंदा नवाज की दरगाह शरीफ़ तक जहाँ पर्दानशीं महिलाएँ जा सकती हैं, दो तरफ़ा क्रेनात खड़ी करके परदा कर देते थे। गिलाफ़ शरीफ़ की सीली बादशाह ने अपने सिर पर और संदलदान और इत्रदान बेगम ने अपने सिर पर और मिठाई के समान शहजादों ने अपने सिरों पर रखकर आस्ताने की राह ली। बेगमें और शहजादियाँ भारी और कीमती जोड़े पहने हुए थीं। लाखों रुपए का जड़ाऊ गहना हाथ और गले में था। पोर-पोर नारनौल की मेहदी रची थी। दो-दो दासियाँ ढीले पाँयचों को और दो-दो बाँदियाँ दुपट्टे को सँभाले चल रही थीं।

आगे-आगे रोशन चौकी और नफ़ीरी बजाने वाली औरतें थीं। बाजे-गाजे आस्ताने के बाहर थमा दिए गए। बेगम और सब औरतें फर्रुखसियर वाली जालियों तक पहुँचकर रुक गईं। बादशाह और मर्द मजार शरीफ़ पर गए और ग़िलाफ़ और चंदन चढ़ाया। शीरनी बाँटी गई और नकद नज़राना झिरी में भर दिया गया। उसके बाद सब शाही घराना खेमे पर लौट आया। रात के खाने के बाद महलसरा में नाच-गाना हुआ। सहन में खम गड़े थे। नौजवान शहजादियाँ झूलों में बैठी और डोमनियों ने उन्हें झुलाकर यह ग़जल गाई-

मेरे दिल की कुंजी, मिरी जान झूला मिरी आरजू, मेरा अरमान झूला करूँ क्यूँ न आवभगत उसकी दिल से बरस दिन में आया है मेहमान झूला यह बहनों से मेरी मिलाता है मुझको बड़ा मुझ पे करता है अहसान झूला जो देती है झोटे कोई लंबे-लंबे उड़ाता है क्या मेरे औसान झूला बुलाया है समधन को झूला झूलाने बनेगा न क्यूँकर परिस्तान झूला हुआ ख़त्म सावन लगा आज भादों झुलाओगी कब तक चचीजान झूला एक अदा है यह हिन्दुस्त की न क्यूँ झूलें हिन्दू मुसलमान झूला

चौदहवीं तारीख को सूर्यास्त के बाद जोगमाया मंदिर के लिए पंखा उठता था। जहाँ झरने से नफ़ीरी की आवाज़ आई, खलक़त उधर टूट पड़ी। पंखा झरने से उठाया गया। यह फूलों का बड़ा खूबसूरत पंखा है जिसमें कई रंग की पन्नियाँ लगी हुई हैं। हंडों की रोशनी में खूब जगमगा रहा है। सबसे आगे ढोल-ताशे वाले, उनके पीछे दिल्ली के अखाड़े जिनमें उस्ताद और पठ्ठे अपने-अपने करतब दिखा रहे हैं। कोई लेजिम हिला रहा है, कोई तलवार और खंजर के जौहर दिखा रहा है। कहीं, बाँक, पट्टा और बनौट के करतब हो रहे हैं। अखाड़ों की एक लंबी क़तार है। उनके पीछे नफ़ीरी वाले हैं। फिर सक्कों की टोलियाँ आती हैं जो अपने कटोरे बजा-बजाकर संगीत पैदा कर रहे हैं और ढोल-ताशे की आवाज के साथ खुद भी मटक रहे हैं। उसके बाद डंडे वाले आते हैं। बड़े सुंदर ढंग से दायरे में घूमते जा रहे हैं और अपने डंडे एक-दूसरे से टकरा रहे हैं। कूल्हे भी मटका रहे हैं और देखने वाले खुश हो रहे हैं। अखाड़ों की तरह इनकी भी बहुत-सी टोलियाँ हैं। सबसे आखिर में पंखा हैं जिसके आगे शहनाई बज रही है। उसके पीछे गुलफ़रोश भारी संख्या में हैं। जुलूस आहिस्ता-आहिस्ता बाजार में से गुजरता

है। बालाखानों पर बैठे लोग फूल बरसा रहे हैं। कोई गुलाब छिड़क रहा है। कमाल दिखाने वालों को लोग दुपट्टे और नकदी भी दे रहे हैं।

कोई बारह बजे तक जुलूस जोगमाया के मंदिर पहुँचता है। एक बजे तक लोग पंखा चढ़ाकर वापस आते हैं। हिन्दू-मुसलमान दोनों आगे-आगे हैं, मुसलमान प्रसाद लेकर खाते हैं और बड़ी श्रद्धा प्रकट करते हैं।

अगले दिन उसी धूमधाम से हजरत ख्वाजा बख्तियार बाकी की दरगाह पर हिन्दू-मुसलमान दोनों मिलकर पंखा चढ़ाते हैं उससे निवृत्त होकर सब शम्सी तालाब पर पहुंचते हैं और वहाँ रात को आतिशबाजी छोड़ी जाती है। ऐसा मालूम होता है कि सारा आकाश रोशनियों और झिलमिल करते हुए फूलों और पत्तियों से किसी ने सजा दिया है और ज़मीन पर तो कुछ क्षणों के लिए ऐसा महसूस होता है कि सूरज निकल आया है।

बादशाह इतने न्यायप्रिय थे कि अगर वह पंखे के साथ जोगमाया मंदिर नहीं जाते थे तो अगले दिन पंखे के साथ ख्वाजा बख्तियार काकी की दरगाह पर भी नहीं जाते थे। वह अपनी हिन्दू और मुस्लिम रिआया के साथ यकसाँ बरताव करते थे। मिज़ा फ़रहतुल्लाह बेग ने किन सुंदर शब्दों में फूलवालों की सैर में मेले के पीछे परस्पर प्रेम और भाईचारे की भावना को व्यक्त किया है-

“भला इस जुलूस को देखो और पंखे को देखो। बाँस की खपच्चियों का बड़ा-सा पंखा बना, पन्नी चढ़ा, आईने लगा, फूलों से सजा एक लंबे रंगीन लिबास पर लटका दिया था। यह पंखा न था बल्कि जोश, मुहब्बत और अपनायत का निशान था जिसने छोटे-बड़े हिन्दुओं, मुसलमानों, गरीबों-अमीरों गरज हर क्रीम ओ-मिल्लत और हर तबके की रिआबा को एक जगह जमा कर दिया था और खुद बादशाह को किले से निकालकर महरौली में ले आया था। यह पंखा न था बल्कि श्रद्धा और प्रेम के प्रदर्शन का केन्द्र था और यह महरौली न थी बल्कि लगन था जिसमें खुद बादशाह शमा थे और रिआया उनके परवाने “

1857 ई. की तबाही आई, दिल्ली लुटी और बादशाह जिलावतन होकर रंगून पहुँचे। वह ताल्लुक़ टूट गया और वे अहसासात बिखर गए। मेला जारी रहा मगर ज़ोर घटता गया। 1942 ई. के भारत छोड़ो आन्दोलन के फलस्वरूप इसे बंद कर दिया गया। आजादी के बाद पंडित नेहरू ने नए माहोल में क़ौमी एकता और सांप्रदायिक मेलजोल के लिए इस मेले के महत्व को महसूस किया और इसे 1962 में फिर शुरू कर दिया गया। पहले यह मेला बरसात में होता था, मगर अब अक्तूबर में होता है। अगरचे हम इतिहास के उस तिलिस्माती दौर और माहौल को, जिसमें यह मेला पहले होता था दुबारा पैदा नहीं कर सकते, मगर दिल्ली प्रशासन इस मेले को पूरे जोश-खरोश से मना रहा है। पुराने मेले के बुनियादी स्वरूप को बनाए रखने में इसके प्रयास प्रशंसनीय हैं।

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