बहादुर शाह जफर की जिंदगी से जुडे रोचक किस्से
बहादुर शाह मुगल खानदान के आखिरी बादशाह थे। इन्हीं के जमाने में 1857 ई. का गदर हुआ, जिसके बाद ये गिरफ्तार हुए और इन्हें रंगून भेज दिया गया, जहां इनकी मृत्यु हुई और वहीं ये दफन किए गए। ये उसी वर्ष (1837 ई.) तख्त पर बैठे, जिस वर्ष लंदन की मलिका विक्टोरिया वहां के तख्त पर बैठी थीं। ये तो नाम के ही बादशाह थे, बाकी हुकूमत अंग्रेजों की थी।
वर्ष में दो मास ये महरौली में ख्वाजा साहब की दरगाह के पास जाकर रहा करते थे, जहां इनका महल था । अब तो वह सब खंडहर बन गया है। उसका सदर दरवाजा अभी मौजूद है, जो बहुत बुलंद है और लाल पत्थर का बना हुआ है। इनके गुरु मौलाना मोहम्मद फखरुद्दीन थे, जिनका संगमरमर का मजार ख्वाजा साहब की दरगाह में बना हुआ है। जब ये जलावतन किए गए और रंगून भेजे गए तो जाते वक्त उन्होंने अपनी बेकसी को यो बयान किया था :
न किसी की आंख का नूर हूं
न किसी के दिल का करार हूँ
जो किसी के काम न आ सके
मैं वो एक मुश्ते गुबार हूं
मैं नहीं हूं नगमाए जां फिजा
मेरी सुन के कोई करेगा क्या
मैं बड़े वियोगी की हूं सदा
और बड़े दुखी की पुकार हूँ
न किसी का मैं दिलरुबा
न किसी के दिल में बसा हुआ
मैं जमीं की पीठ का बोझ हूं
और फलक के दिल का गुबार हूं
मेरा वक्त मुझसे बिछुड़ गया
मेरा रूप-रंग बिगड़ गया
जो चमन खिजां से उजड़ गया
मैं उसी की फसले बहार हूं
पै फातिहा कोई आए क्यों
कोई शमा ला के जलाए क्यों
कोई चार फूल चढ़ाए क्यों
मैं तो बेकसी का मजार हूं
न अख्तर मैं अपना हबीब हूं
न अख्तरों का रकीब हूँ
जो बिगड़ गया वो नसीब हूं
जो उजड़ गया वो दयार हूं।
बहादुर शाह के काल की सबसे बड़ी यादगार तो 1857 का गदर है जिसने हिंदुस्तान की सल्तनत का तख्ता ही पलट दिया था। वरना उस जमाने की ईंट-पत्थर की कोई खास यादगार नहीं है। अलबत्ता मुगल काल के चंद हिंदू और जैन मंदिर अवश्य हैं, जिनके सही काल का अनुमान ही किया गया है। उनमें से कुछ एक का वर्णन यहां दिया जाता है।