यह मदरसा और मस्जिद पुराने किले के पश्चिमी दरवाजे के ऐन सामने और शेरशाह की दिल्ली के पश्चिमी द्वार से दिल्ली-मथुरा रोड के बाएं हाथ बने हुए हैं। इन्हें अधम खां की मां माहम अंगा ने, जो अकबर की धाय थी, 1561 ई. में बनवाया था। मदरसा खंडहर हो गया है, लेकिन इधर-उधर के कुछ हुजरे बाकी रह गए हैं। बिगुलर ने इस मस्जिद की बाबत लिखा है- यह मस्जिद अकबर शाह के जमाने की है, जो बिन घड़े पत्थरों और चूने की बनी हुई है। इसके दरवाजों के बाज हिस्सों पर घड़े हुए पत्थर लगाकर रंगामेजी की गई है, जो अब बिल्कुल बरबाद हो गई है, लेकिन जब यह रही होगी तो निहायत खूबसूरत लगती होगी। मस्जिद का अंदरूनी भाग मीनाकारी और रंगीन अस्तरकारी और चीनी की ईंटों से सजाया हुआ है। अब यह काम नष्ट हो चुका है। मस्जिद की रोकार और दरवाजे पर भी फूल-पत्तियों की मीनाकारी है।
अकबर की सल्तनत के आठवें साल 1564 ई. में इस मदरसे की छत पर से अकबर की जान पर हमला किया गया था, जिसका जिक्रा यो आया है इस घटना के चंद दिन पहले मिर्जा अशरफुद्दीन हुसैन दरबार शाही से बगावत करके नागोर की तरफ चला गया था। उसके साथ कोका फौलाद नाम का उसके बाप के जमाने का एक गुलाम भी था। जो सदा बादशाह को नुकसान पहुंचाने की ताक में रहता था।
यह बादशाह के कैंप में दाखिल हो गया और मौके की तलाश में रहने लगा। जब बादशाह शिकार से वापस आ रहे थे और दिल्ली के बाजार में से गुजर रहे थे तो वह जैसे ही इस मदरसे से माहम अंगा के नजदीक पहुंच, गुलाम ने उन पर तीर से वार किया, लेकिन बादशाह बच गए। उनको कोई जख्म नहीं आया, कंवल चमड़ी छिल गई। बादशाह के साथी फौरन गद्दार पर टूट पड़े और तलवार और खंजरों से उन्होंने उसके टुकड़े-टुकड़े कर डाले। बादशाह को इस घघटना का जरा भी मलाल नहीं हुआ। वह दीनपनाह के किले में चले गए। चंद रोज में जख्म ठीक हो गया।