दिल्ली..शहर जो सदियों से भारत की गौरवगाथा का केंद्र बिंदु रहा है। शहर जिसने इतिहास में स्वर्ण दौर भी देखा और स्याह पक्ष भी। युद्ध में गोलियों की बौछारों ने कई बार शहर का सीना छलनी किया लेकिन शहर अपनी दृढ़ इच्छाशक्ति, अपने हौसलों और मजबूत सांस्कृतिक डोर से ना केवल जुड़ा रहा बल्कि चमकते सितारे की तरह भारतीय इतिहास में चमक रहा है। शहर में वैसे तो पग-पग पर ऐतिहासिक इमारतें अपनी कहानियों, किस्सों संग हर कदम का स्वागत करती हैं लेकिन जुबां पर दिल्ली आते ही जेहन में सबसे पहले यदि कोई तस्वीर उभरती है तो वो है लाल किला। शाहजहांनाबाद की सरजमीं पर शान से खड़ी यह इमारत भारत की आन और बान का प्रतीक है। तभी तो 15 अगस्त को प्रधानमंत्री लाल किले की प्राचीर से तिरंगा झंडा फहराते हैं। मुगल बादशाह शाहजहां ने अपनी राजधानी आगरा से शिफ्ट कर दिल्ली बनाने की योजना के फलस्वरूप लाल किले का निर्माण करवाया। बाजार वास्तुकला का अनूठा नमूना है। दीवान-ए-आम, दीवान-ए-खास, छत्ता बाजार पारसी, मुगल और भारतीय वास्तुकला का अद्भूत नमूना है। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण मुगल काल में शानो शौकत का प्रतीक रहे छत्ता बाजार चौक के संरक्षण में जुटा है। बाजार को एक बार फिर पुराने कलेवर में लाने की कवायद के तहत दीवारों पर चूने की परत हटाई जा रही है। इस दौरान मुगल काल की पेंटिंग मिल रही है। इस आर्टिकल में हम छत्ता बाजार के इतिहास और लाल किले में इसकी महत्ता जानेंगे।

शाहजहां को सुझा छत्ता बाजार

मुगल बादशाह शाहजहां ने 1638 में अपनी राजधानी दिल्ली के शाहजहांनाबाद को बनाया, जो दिल्ली का सातवां शहर था। इसी साल बादशाह ने यहां लाल किला बनाने का आदेश दिया। मुहर्रम के पवित्र महीने में 13 मई 1638 को इस किले का निर्माण कार्य शुरू हुआ। लाल बलुआ पत्थर से 10 वर्षों में इस किले का निर्माण कार्य पूरा हुआ। बादशाह 1648 में इस किले में रहने आए। बादशाह चाहते थे किले के अंदर सभी सुविधाएं मिले। खासकर 100 मुगल हरम को किसी भी तरह की कोई दिक्कत ना हों। बादशाह की 3 बेगम भी थी। दरअसल औरतों का शौकिया टाइम पास शापिंग है। मुगल शासनकाल में बेगम बाहर जाकर शापिंग भी नहीं करती थी। लिहाजा शाहजहां ने एक ऐसा बाजार बनाने की सूझी जो ना केवल महल के अंदर हो बल्कि वास्तुकला में भी अनूठा हो।

पारसी बाजार भाया

शाहजहां को पारसी किले में इस्फहान के लिए बना बाजार पसंद आया। इन बाजारों में बेगम, महल के पदाधिकारियों की बेगम के लिए शापिंग की विशेष व्यवस्था थी। ये बाजार पूरी तरह ढंके थे एवं इसमें हफ्ते में एक दिन सिर्फ महिलाओं के ही प्रवेश की आज्ञा थी। उस दिन पुरुषों के प्रवेश पर पूरी तरह प्रतिबंध था। यहां तक की दुकानदार भी प्रवेश नहीं कर पाते थे। सिर्फ महिला दुकानदारों के ही प्रवेश की इजाजत थी। ताकि बेगम स्वतंत्रतापूर्वक खरीदारी कर सकें। बादशाह ने जब इस तरह के बाजार के बारे में सुना तो काफी खुश हुए। उन्होंने पेशावर स्थित मुगल किले का खुद भ्रमण किया और बाजार की हर गतिविधि से वाकिफ हुए।

इस तरह बना पहला अनूठा बाजार

17वीं शताब्दी में बाजार आमतौर पर खुले ही बनाए जाते थे। जबकि कवर्ड बाजार का चलन सिर्फ पश्चिम एशिया में था। चूंकि वहां की भौतिकी, मौसमी विशेषता कवर्ड बाजार के अनुकूल थी। शाहजहां ने लाल किले का निर्माण कार्य देख रहे मुकमत खान को निर्देश दिया कि पारसी तर्ज पर दिल्ली में भी कवर्ड बाजार बनाएं। बाजार बनने के बाद बादशाह का दिल बाग बाग हो गया। उन्होंने मुकमत खान की जमकर तारीफ की, क्यों कि यह बाजार दिल्ली के गर्म मौसम के हिसाब से भी अनुकूल था।

बदलता रहा बाजार का नाम

लाल किले के लाहौरी गेट से प्रवेश करते ही सबसे पहले छत्ता बाजार चौक आता है। वर्तमान में यह छत्ता बाजार के रूप में प्रसिद्ध है लेकिन पहले इसे बाजार-ए-मिशकाफ (शकाफ का मतलब छत होता है)कहकर पुकारा जाता था। बाजार गुंबद आकार में बना हुआ है। इतिहासकार कहते हैं कि बृहस्पतिवार को बेगम आकर खरीदारी करती थी। इस दिन लाल किले का गेट बंद हो जाता था। किसी को अंदर प्रवेश की इजाजत नहीं मिलती थी। गेट पर सख्त पहरेदारी होती थी।

वास्तुकला का नायाब नमूना

अधिकारियों की मानें तो 230 फीट लंबा और 13 फुट चौड़ा यह बाजार एक मंजिला है। सूर्यास्त का अद्भूत नजारा देखने एवं प्राकृतिक रुप से हवा की निकासी के लिए अष्ठकोणिय आकार दिया गया है। यह अष्ठकोणीय कोर्ट बाजार को पूर्वी और पश्चिमी दो भागों में बांटता है। बाजार की छत लडौ जड़ना कार्य शैली का अद्भूत उदाहरण है। जिसमें लहरों का घटता-बढ़ता क्रम होता है और खूबसूरत प्राकृतिक पेंटिंग की जाती है। बाजार के दोनों तरफ दो छोटे-छोटे दरवाजे हैं जो चंद कदम का सफर तय करने के बाद एक चौड़े बरामदे में तब्दील हो जाते हैं। बाजार की पहली मंजिल पर 32 धनुषाकार खंड है जो बाजार को मजबूती प्रदान करते हैं। मुगल काल में ऊपर की दुकानें सिर्फ अधिकारियों के प्रयोग के लिए होती थी जबकि नीचे की दुकानों में सामान के अलावा पीछे गोदाम के लिए भी जगह थी।

शानो शौकत का प्रतीक

300 साल पहले मुगल काल में बाजार शानो शौकत के लिए प्रसिद्ध था। यहां कालीन, गलीचा, जमाम और शतरंजजी, रजाई, तकिया, शहतूत, पशमीना शॉल, परदा और चिक्स(जरी और ब्रोकेड की कढ़ाई) सिल्क, वुलेन, मखमल, तफता (सिल्क का ही बना) बिकता था। यहां ऐसे सामान बिकते थे जिसका प्रयोग मुगल काल में दिन प्रति दिन में शासक करते थे। इसके अलावा बाहरी देशों के आभूषण, स्वदेशी आभूषण, सोने चांदी के बर्तन, लकड़ी और हाथी दांत के काम पर उत्पाद भी बिकते थे। इतिहासकार कहते हैं कि पीतल और तांबा, युद्धसामग्री भी बिकती थी। अरब के मसाले भी यहां बिकते थे जिसे खूब पसंद किया जाता था। उन दिनों ऐसा कहा जाता था कि जो सामान कहीं नहीं मिलता वो छत्ता बाजार में मिलता था। ऐसा भी मानना है कि यहां एक चाय की भी दुकान थी। जहां अदालत के फैसलों समेत राजमहल की अन्य गतिविधियों पर चाय पीते हुए लोग चर्चा भी करते थे। वर्तमान में छत्ता बाजार में सिर्फ ग्राउंड फ्लोर पर ही दुकानें आवंटित है।

सफेदी ने छिनी खूबसूरती

अधिकारियों की मानें तो विगत कई वर्षो से 15 अगस्त के पहले छत्ता बाजार में सफेदी होती है। जिस कारण मुगलिया वास्तुकला की नजीर पेश करती पेंटिंग छिप गई। इन पेंटिंग पर सात से भी ज्यादा परत चूने की चढ़ चुकी है। बकौल अधिकारी इस बाजार के संरक्षण का काम चल रहा है। मकसद, बाजार को पुराने दिनों की तरह ही खूबसूरत बनाना है। इसी कड़ी में सफेदी की लेयर को हटाया जा रहा है तो मुगल पेंटिंग मिल रही है। अब तक पांच पेंटिंग मिल चुकी है। इन पेंटिंग को विशेषज्ञों की मदद से प्राकृतिक रंगों का प्रयोग कर दोबारा मूल रूप में लाया जा रहा है।

समाप्त

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