पुराने जमाने में दिल्ली (Delhi) की सफेदपोशी (सफेद ड्रेस) मशहूर थी। मर्द घरों में तो नंगे बदन बनियान, धोती, तहमद या कुरता-पाजामा पहनते थे लेकिन ज्योंही ड्योढ़ी से बाहर कदम रखने की सोचते, खूंटियों पर लटके साफ-सुथरे कपड़े पहन लेते। बड़े-बूढ़ों ने मरते दम तक अपना पुराना देसी लिबास नहीं छोड़ा। हिन्दू-मुसलमान एक ही रंग में रंगे होते थे। लालाजी, मुंशीजी और मियां साहब के पहनावे में जरा-जरा ही फर्क था। कोई सिर पर दुपल्ली टोपी पहने है तो कोई गोल फज़्जेदार पगड़ी।

पराठेवाली गली (paranthe wali gali) से थोड़ी दूर आगे चलकर किनारी बाजार में पगड़ी बांधने वाले बैठते थे। वे दिल्ली (Old Delhi) वालों की हर जाति और बिरादरी के पहनावे को अच्छी तरह जानते थे। बनियों, खत्रियों, कायस्थों, ब्राह्मणों और दूसरी जातियों की पगड़ियां अलग-अलग तरह की होती थीं। किसी ने अपनी जाति बताई और वे उसकी पगड़ी पूछताछ किए बिना बांध देते थे। नंगे सिर घूमना बुरा समझा जाता था। कोई दुपल्ली टोपी अपने पट्टेदार बालों में अटकाए चला जा रहा है तो कोई चौकोर, पंचकोर टोपी पहने है। किसी की नफीस कामदार मखमली टोपी होती, जिसमें जरी-बूटी की ज़मीन पर फीते से चांद और सहराइयां बनी हैं। इन टोपियों को तिरछी बांकी अदाओं से पहना जाता था।

पगड़ी पहनने का भी रिवाज था। किसी के सिर पर छज्जेदार पगड़ी है तो कोई दुपलड़ी पहने है। कोई-कोई पगड़ी के साथ कुलाह (टोपी) भी पहनता था। बच्चे यों तो घर में बनी लट्टे की गोल कढ़ी हुई टोपियां पहने रहते लेकिन शादी-ब्याह में फट्टे की सलमे सितारे और जरी की तथा गोटा टंकी टोपियां पहनते थे। वैसे बहुत छोटे-छोटे बच्चे, अच्छे-अच्छे घरों में भी नंगे ही रहते थे।

बड़ा हो या छोटा बहुत सारे कपड़े सिलवाने का रिवाज नहीं था। सबके पास नपे-तुले चंद कपड़े होते थे। जाड़े में दिल्ली वालों को बड़ी ठंड लगती थी। छोटा हो या बड़ा रुई की फूलदार छींटे की कुरती या सदरी ऊपर या नीचे जरूर पहने रहता। बच्चों और बड़ों के कनटोपनुमा टोपे होते। जाड़े में दिल्ली वाले टोप पहने लेते जिसमें सिर्फ आंखें, नाक और मुंह नजर आता था। फलालेन के पाजामें भी पहनते ताकि टांगों को सरदी न लगे। मुसलमानों में मंदेली, बनारसी दुपल्ली और गोलेदार पगड़ियों का रिवाज था।

लालकिले में बिना पगड़ी के कोई नहीं जा सकता था। दरबारी लोग जामा भी पहनते थे। बड़े-बड़े मनसबदार, अमीर, शाही खानदान के सदस्य, जिनमें शहजादियां भी शामिल थीं, कलगियां (फुंदने) भी लगाते थे। हिन्दू भी जामा पहनते थे। फिर चोली के अंगरखे का रिवाज हो गया। मुसलमानों में अलखालिक , बालावर, शेरवानी बाद में अचकन, अंगरखे, कवा, जुब्बा’ आदि का मौसम के अनुरूप रिवाज था। पाजामें या तो तंग मोहरी के टखनों तक या एक वर के या बहुत खुले पायंचों के पहने जाते थे। आड़े पाजामों का कोई नाम तक नहीं जानता था। उन दिनों आब-ए-रवां और रेशम के कुरते और अंगरखे पहने जाते थे। हिन्दू और मुसलमान दोनों अंगरखे पहनते थे। हिन्दुओं के अंगरखे का परदा दाहिनी तरफ और मुसलमानों का बाईं तरफ होता था। सादे और कढ़े हुए गोल परदे के अंगरखे होते थे। बारीक सिली हुई तन्नी से अंगरखे के परदों को बांध लिया जाता था। गर्मियों में मलमल, तनज़ेब और डोरिए के अंगरखे भी पहने जाते थे और जाई में मखमल के ।

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