मा अमृत प्रिया ने बताया ओंकार का रहस्य
दी यंगिस्तान, नई दिल्ली।
मा अमृत प्रिया ने साधकों को संबोधित करते हुए ओंकार के गहरे रहस्य को उजागर किया। ओशो द्वारा वर्णित अध्यात्म के मंदिर के चार स्तंभों में से चौथे और सबसे महत्वपूर्ण स्तंभ ‘ओंकार’ की चर्चा करते हुए उन्होंने बताया कि हम जिसे ‘ओम’ समझकर उच्चारण करते हैं, असली रहस्य उससे कहीं ज्यादा गहरा है। उन्होंने समझाया कि सच्चा ओंकार कोई शब्द नहीं, बल्कि एक आंतरिक, शाश्वत संगीत है जिसे ‘अनाहत नाद’ कहा जाता है। यह वह ब्रह्मांडीय गूंज है, जिसे सुनने की कला ही ध्यान है और जिसे सुनकर व्यक्ति अपने स्रोत, यानी परमपिता तक वापस लौट सकता है।
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एक कहानी जो खोलती है ओंकार का मर्म
अपने प्रवचन का मर्म समझाने के लिए, मा अमृत प्रिया ने एक मार्मिक कहानी सुनाई। उन्होंने बताया, “कल्पना कीजिए, एक गांव में एक छोटा बच्चा खेल रहा है। अचानक कुछ जिप्सी उसे उठाकर ले जाते हैं। उसकी आँखों पर पट्टी बांध दी जाती है, उसे बोरे में बंद कर दिया जाता है और वह असहाय हो जाता है। वह चीख नहीं सकता, देख नहीं सकता, बस उसे बैलगाड़ी में दूर ले जाया जा रहा है।“
इस घोर असहाय अवस्था में, जब सब कुछ अंधकारमय था, उसे एक ही चीज सुनाई दे रही थी – उसके गांव के चर्च की घंटियों की आवाज। जैसे-जैसे बैलगाड़ी दूर जाती, वह आवाज धीमी, और धीमी होती चली गई, और अंत में पूरी तरह खो गई। बच्चा जिप्सियों के साथ ही बड़ा हुआ, लेकिन उसके मन में उन घंटियों की धुन बसी रह गई। युवा होने पर उसने अपने घर लौटने का निश्चय किया। उसके पास एक ही सुराग था – उन घंटियों की आवाज।
वह गांव-गांव भटकता, हर चर्च के पास जाकर घंटियों की आवाज सुनता, लेकिन कोई भी आवाज उसके मन में बसी धुन से मेल नहीं खाती थी। वर्षों की खोज के बाद, एक दिन वह संयोग से अपने ही गांव के पास पहुंचा। दूर से आती घंटियों की आवाज ने उसे चौंका दिया – यह तो वही आवाज है! वह उस ध्वनि का पीछा करता गया और आखिरकार उस चर्च तक पहुंच गया। चर्च के पास ही उसका घर था, जिसे देखकर उसे सब याद आ गया। वह दौड़कर अपने घर गया और अपने बूढ़े पिता के चरणों में गिर पड़ा। पिता ने जब पूछा कि वह इतने वर्षों बाद कैसे लौटा, तो उसने कहा, “मुझे कुछ याद नहीं था, सिवाय इन घंटियों की आवाज के, जो मेरे हृदय में बस गई थी। बस इसी धुन को खोजते-खोजते मैं आप तक पहुंच गया।“
जीवन में खोई हुई ‘आंतरिक ध्वनि’
कहानी के बाद, मा अमृत प्रिया ने इसकी आध्यात्मिक व्याख्या करते हुए कहा कि हम सभी उस खोए हुए बच्चे की तरह हैं जिन्हें परमपिता परमेश्वर से दूर कर दिया गया है। उन्होंने कहा, “हमें चुराने वाले जिप्सी कौन हैं? ये हैं हमारे जीवन के विकार, हमारी इच्छाएं, हमारा अहंकार, और जीवन की भागदौड़ जिसने हमें बहिर्मुखी बना दिया है। हम अपने केंद्र से, अपने घर से बहुत दूर निकल आए हैं।”
उन्होंने समझाया कि उस बच्चे की तरह, हमारे भीतर भी एक महीन, एक धीमी ध्वनि निरंतर गूंज रही है। यह ओंकार की, अनाहत नाद की ध्वनि है। अगर हम शांत होकर अपने भीतर झांकने का प्रयास करें, तो यह ध्वनि हमारा मार्गदर्शन कर सकती है, ठीक वैसे ही जैसे उन घंटियों की आवाज ने उस लड़के का मार्गदर्शन किया।
ओंकार: बोला जाने वाला शब्द नहीं, सुना जाने वाला ‘अनाहत नाद‘
मा अमृत प्रिया ने इस बात पर जोर दिया कि संत जिस ओंकार की बात करते हैं, वह मुंह से बोला जाने वाला ‘आहत नाद’ नहीं, बल्कि भीतर गूंजने वाला ‘अनाहत नाद’ है। उन्होंने स्पष्ट किया, “उच्चारण एक ‘आहत नाद’ है, यानी दो चीजों के टकराने से पैदा हुई ध्वनि। यह मन को एकाग्र करने की एक शक्तिशाली विधि है, लेकिन यह मंजिल नहीं है।”
असली ओंकार ‘अनाहत नाद’ है – यानी ‘बिना आघात के उत्पन्न ध्वनि’। यह अस्तित्व का संगीत है, ब्रह्मांड की पृष्ठभूमि में गूंजता हुआ शाश्वत गीत। यह ध्वनि तुम्हारे हृदय की धड़कन से भी ज्यादा गहरी है। इसी ध्वनि को सुनना ध्यान की अंतिम अवस्था है।
जब सभी संतों और ग्रंथों ने एक ही ‘ओंकार‘ की ओर इशारा किया
अपने प्रवचन में उन्होंने बताया कि कैसे दुनिया के सभी महान संतों और पवित्र ग्रंथों ने इसी एक परम ध्वनि की महिमा गाई है, भले ही नाम अलग-अलग हों।
- गुरु नानक: उन्होंने सिख धर्म की नींव “एक ओंकार सतनाम” से रखी। यानी, वह एक ही है, उसकी ध्वनि ही सत्य नाम है।
- श्री कृष्ण (गीता में): भगवान कृष्ण कहते हैं, “प्रणवः सर्ववेदेषु” अर्थात संपूर्ण वेदों में मैं ‘प्रणव’ (ओंकार) हूँ।
- बाइबल और जीसस: बाइबल का आरंभ होता है, “In the beginning was the Word…” यह ‘Word’ या ‘शब्द’ वही अनाहत नाद है।
- पतंजलि योग सूत्र: महर्षि पतंजलि कहते हैं, “तस्य वाचकः प्रणवः” अर्थात उस ईश्वर का बोध कराने वाला प्रणव (ओम) है।
- वेद और उपनिषद: उन्होंने बताया कि मांडूक्य उपनिषद जैसे ग्रंथ पूरी तरह से ओंकार के रहस्य को ही समर्पित हैं।
ध्यान: ओंकार को सुनने की कला
साधकों को इसका मार्ग बताते हुए, मा अमृत प्रिया ने कहा कि इस ध्वनि को सुनने की कला का नाम ही ‘ध्यान’ है। “ध्यान का अर्थ किसी चीज पर जबरदस्ती मन लगाना नहीं, बल्कि मन को धीरे-धीरे शांत करना है। जब आपके विचार शांत हो जाते हैं, जब मन का कोलाहल थम जाता है, तब एक गहरा सन्नाटा उतरता है। उसी गहरे सन्नाटे में आपको यह ब्रह्मांडीय संगीत सुनाई देना शुरू होता है।“ उन्होंने समझाया कि सभी ध्यान विधियों का अंतिम लक्ष्य हमें इतना शून्य और खाली कर देना है कि हम इस आंतरिक गूंज के प्रति सजग हो जाएं।
अंत में, मा अमृत प्रिया ने निष्कर्ष दिया कि ओंकार की यात्रा बाहर से भीतर की ओर लौटने की यात्रा है। यह उस खोए हुए बच्चे की अपने घर लौटने की यात्रा है, और यह आंतरिक ध्वनि ही हमारा एकमात्र सच्चा मार्गदर्शक है। जब हम इस अनाहत नाद को सुनने में सक्षम हो जाते हैं, तो हम धीरे-धीरे अपने परमपिता के द्वार तक पहुंच जाते हैं और हमारा उनसे ‘अद्वैत’ घटित हो जाता है।
अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (Q&A)
Q1: क्या ओंकार का जाप करना और ओंकार को सुनना एक ही बात है?
A1: नहीं, ये दोनों अलग-अलग हैं। ‘ओम’ का जाप एक ‘आहत’ ध्वनि है, जो मन को शांत करने और एकाग्र करने की एक प्रारंभिक और शक्तिशाली तकनीक है। जबकि ‘ओंकार को सुनना’ एक ‘अनाहत’ ध्वनि का अनुभव करना है, जो मन के पूरी तरह शांत हो जाने पर अपने आप सुनाई देती है। जाप एक साधन है, और उस ध्वनि को सुनना साध्य है।
Q2: इस आंतरिक ध्वनि को सुनने के लिए क्या करना होगा?
A2: नियमित ध्यान ही इसका एकमात्र मार्ग है। किसी शांत जगह पर बैठें, अपनी सांसों पर ध्यान केंद्रित करें और विचारों को बिना उलझे आते-जाते देखें। अभ्यास के साथ, जब मन का शोर कम होगा, तो आपको यह सूक्ष्म आंतरिक ध्वनि अनुभव होने लगेगी। इसके लिए धैर्य और निरंतरता आवश्यक है।
Q3: ओशो ने ओंकार को अध्यात्म का चौथा स्तंभ क्यों कहा है?
A3: ओशो ने अध्यात्म को एक मंदिर के रूप में देखा जिसके चार स्तंभ हैं। ओंकार को उन्होंने अंतिम और सबसे महत्वपूर्ण स्तंभ माना क्योंकि यह वह अनुभव है जो व्यक्ति को सीधे ब्रह्मांडीय चेतना से जोड़ता है। यह वह परम सत्य है जिसे सुनकर साधक स्वयं उस परम सत्य में विलीन हो जाता है।
Q4: क्या ओंकार का संबंध किसी विशेष धर्म से है?
A4: यद्यपि ‘ओम’ या ‘ओंकार’ शब्द का प्रयोग प्रमुख रूप से हिंदू, बौद्ध, जैन और सिख धर्म में होता है, लेकिन ‘आंतरिक ध्वनि’ या ‘परम शब्द’ की अवधारणा सार्वभौमिक है। सूफी इसे ‘सौत-ए-सरमदी’ कहते हैं, और ईसाई रहस्यवादी इसे ‘द वर्ड’ कहते हैं। यह एक सार्वभौमिक आध्यात्मिक अनुभव है जो धर्म की सीमाओं से परे है।
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