अयूब खान 10 सितंबर 1959 को इस्लामाबाद से ढाका जाते वक्त नई दिल्ली के पालम हवाई अड्डे पर रुके

कुलदीप नैयर ने अपनी किताब एक जिंदगी काफी नहीं में साझा किसा किस्सा

60 के दशक के आसपास ‘हिन्दी-चीनी भाई-भाई’ (hindi chini bhai bhai) सम्बन्ध नाजुक होते जा रहे थेे। भारत (India) को दोस्ती के लिए इधर-उधर देखना पड़ा। इस बीच पाकिस्तान (Pakistan) में सत्ता पर कब्जा कर चुके जनरल मुहम्मद अयूब खान (general muhammad ayub khan) को भी ‘उत्तर से उमड़ते खतरे का डर सता रहा था। उन्होंने 29 अप्रैल, 1960 को भारत के साथ एक सुरक्षा-सन्धि का प्रस्ताव रखा, ताकि कोई खतरा होने पर दोनों मिल-जुलकर उपमहाद्वीप की रक्षा कर सकें। इस पर नेहरू (Jwaharlal nehru) का जवाब था- “किसके खिलाफ सुरक्षा? अयूब को गुस्सा तो जरूर आया होगा, लेकिन नेहरू के दिमाग पर पाकिस्तान की ‘सेंटो’ और ‘एटो’ सुरक्षा-सन्धियां हावी थीं, जो भारत के दोस्त सोवियत संघ (soviet sangh) के खिलाफ थीं। और फिर गुटनिरपेक्ष नीति (gutnirpekshta ki niti) का अनुसरण करते हुए भारत कैसे किसी सैनिक सन्धि में शामिल हो सकता था?

कुलदीप नैयर (kuldip nayar) अपनी किताब एक जिंदगी काफी नहीं में लिखते हैं कि अयूब ने बाद में इस्लामाबाद में उन्हें बताया था कि उनका मतलब यह था कि दोनों देश एक-दूसरे की पीठ में छुरा घोंपने की सम्भावना को टाल सकें, एक-दूसरे की बजाय बाहरी खतरों की तरफ देख सकें। अयुब का कहना था कि उन्होने किसी औपचारिक सुरक्षा सन्धि का सुझाव नहीं दिया था, बकौल अयूब- “मैं ऐसा कैसे कर सकता था जब हमारे बीच कश्मीर और पानी के बंटवारे जैसी बड़ी समस्याएं खड़ी हुई थीं।

दरअसल, अयूब यह सब इसलिए कर रहे थे क्योंकि उन्हें अपनी सेना को नए सिरे से गठित और हथियारों से लैस करने के लिए समय चाहिए था। उनके विदेश मंत्री मंजूर कादिर पश्चिगी पाकिस्तान के चीफ जस्टिस रह चुके थे और नेहरू के प्रशंसकों में शामिल थे। भारत में उनके बहुत सारे दोस्त थे। उन्होंने ही अयूब को नेहरू से मिलने की सलाह दी थी और अयूब राजी हो गए थे। उन दिनों पाकिस्तान में भारत के हाई कमिश्नर राजेश्वर दयाल थे। वे भी उत्तर प्रदेश की मिली-जुली संस्कृति में पले-बढ़े थे और भारत-पाक सम्बन्धों को सुधरते देखना चाहते थे। ये अयूब को एक दोस्त के रूप में देखते थे। बँटवारे से पहले दोनों यू.पी. में साथ-साथ काम कर चुके थे। दयाल और कादिर ने ढाका जाते समय अयूब के दिल्ली एयरपोर्ट पर रुकने की व्यवस्था कर दी। नेहरू मी उनसे वहाँ मिलने के लिए तैयार हो गए। तब तक नेहरू को यह अहसास हो चुका था कि अयूब सत्ता में अच्छी तरह जम चुके थे। वे उनका मन टटोल लेना चाहते थे।

वे दोनों सितम्बर, 1960 को मिले। बाद में, लाहौर में एक इन्टरव्यू के दौरान, कादिर ने मुझे बताया था कि यह मुलाकात एक ‘डिसास्टर’ (हादसा) साबित हुई थी, हालांकि अखवारों में इसे सफल बताया गया था। कादिर का कहना था कि दोनों पक्षों ने सार्वजनिक तौर पर अच्छे बयान देने का फैसला किया था, लेकिन सच्चाई कुछ और ही थी। कादिर के अनुसार, नेहरू ने चार प्रमुख समस्याओं की सूची इस प्रकार बनाई थी-(i) विस्थापित सम्पत्ति, (ii) सीमा-विवाद, (iii) नदियों के पानी का बँटवारा, और (iv) कश्मीर अयूब को कश्मीर को सबसे आखिर में रखना अच्छा नहीं लगा था।

कादिर ने बताया कि पहले तीन मुद्दों को लेकर नेहरू ने काफी विस्तार से और निष्पक्ष ढंग से अपने विचार रखे, लेकिन कश्मीर का सिर्फ जिक्र भर किया। अयूब ने यह मुद्दा उठाते हुए कहा कि कश्मीर समस्या का कोई ‘सन्तोषजनक’ हल ढूंढा जाना बहुत जरूरी था। नेहरू ने कोई जवाब नहीं दिया तो अयूब का चेहरा गुस्से से तन गया और वे “फीजियों की तरह हुँकारने लगे।” बाद में अयूब ने कादिर को बताया था कि नेहरू ने कश्मीर को लेकर “मेरे खयालात से गैर-इत्तेफाकी का इजहार” नहीं किया। नेहरू सिर्फ यह चाहते थे कि आपसी सद्भावना और समझ का माहौल पैदा किया जाए, ताकि सीमा पर झड़पों की घटनाएँ न हों।

भले ही यह मीटिंग ज्यादा सफल न रही हो, लेकिन अयूब ने सीमाओं को निश्चित करने के नेहरू के प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया। भारत और पाकिस्तान ने मंत्रियों की एक समिति बनाकर उसे सीमाओं के रेखांकन और अन्य जरूरी कदम उठाने का काम सौंप दिया, ताकि सीमा विवाद खत्म हो और सीमाओं पर अप्रिय घटनाए न हों।

दोनों देशों के मतभेदों पर चर्चा के लिए अयूब ने के. एम. शेख को और नेहरू ने स्वर्ण, सिंह को नियुक्त किया। नेहरू यह काम पन्त को सौंपना चाहते थे, लेकिन पन्त ने मना कर दिया। उन्हें आशंका थी कि इससे कुछ भी हासिल नहीं होगा। उन्हें इस बात का अहसास नहीं था कि अयूब ने शेख को समझौते के लिए पूरा जोर लगाने के लिए कहा था। जब तक दयाल पन्त को इस बातचीत के महत्त्व के बारे में बताते, नेहरू स्वर्ण सिंह को नियुक्त कर चुके थे।

नेहरू- अयूब की बातचीत के फौरन बाद स्वर्ण सिंह और शेख की ये मीटिंगें काफी हद तक सफल रहीं। बातचीत होना ही अपने-आप में एक उपलब्धि थी। भारत और पाकिस्तान इस बात के लिए सहमत हो गए कि दोनों देशों के बीच सभी सीमा विवाद अगर बातचीत से हल नहीं हो पाते तो उन्हें एक निष्पक्ष ट्रिब्युनल को सौंप दिया जाएगा। स्वर्ण सिंह और शेख के समझौते में एक बार फिर इस बात पर जोर दिया गया कि सीमाओं पर सुरक्षा बलों के मार्गदर्शन के लिए कुछ नियम बनाने की जरूरत थी। इसमें कोई शक नहीं कि यह भारत-पाक सम्बन्धों का एक अच्छा दौर था। माहौल इतना खुशगवार था कि जब लन्दन में आयोजित कॉमनवेल्थ प्रधानमंत्रियों की कॉन्फ्रेंस में अयूबकश्मीर पर बोले तो उन्होंने चुटकीले अन्दाज में कहा कि ऐसा सुनने में आता है कि “कश्मीर को लेकर नेहरू का नज़रिया उनके कुछ खास जजबातों से जुड़ा हुआ है।” इस पर नेहरू ने हँसते हुए कहा कि अगर ऐसी बात थी तो “कश्मीर घाटी को दूसरा स्विट्जरलैंड बनाया जा सकता है, ताकि वे जब चाहें वहाँ आ सकें।”

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