हजरत ख्वाजा साहब की दरगाह की उत्तरी दीवार और मौहतिद खां के मजार की दक्षिणी दीवार के दरमियान जो रास्ता है, वह पश्चिमी दरवाजे से निकलकर एक अहाते में जा निकलता है। यहीं बाएं हाथ की तरफ मोती मस्जिद है, जिसको शाह आलम ने 1709 ई. में तामीर कराया।

मस्जिद के सहन में संगमरमर के आसन बने हुए हैं, जिन पर संगमूसा का हाशिया है। सहन 45 फुट 51 फुट है। चबूतरा दो फुट ऊंचा है। मस्जिद सैदरी 45 फुट ×13 फुट की है। मस्जिद के दोनों तरफ दो कमरे हैं, जिनमें उत्तर की ओर का कमरा नया बना हुआ है। पहले कमरों का रास्ता मस्जिद के अंदर था।

मस्जिद तमाम संगमरमर की निहायत सुंदर बनी हुई है, जिसमें जगह- जगह संगमूसा के लेख बड़े सुंदर प्रतीत होते हैं। जब यह बनी होगी तो संगमरमर बहुत साफ रहा होगा। तभी इसका नाम मोती मस्जिद पड़ा। मस्जिद के तीन गुंबद हैं, जो कमरख की तर्ज के निहायत खूबसूरत दिखाई देते है।

गावदुम मीनार छह-छह फुट ऊंची मस्जिद के इधर-उधर है और इसी तरह छोटी-छोटी चार बुर्जियां निहायत नाजुक मस्जिद की पछील की दीवार में हैं। मीनारों पर बुर्जियों थीं, लेकिन पुरानी हो जाने से गिरने का अंदेशा था, इसलिए सिराजुद्दीन बादशाह ने 1846 ई. में इन्हें उतरवा दिया। शाह आलम सानी के काल में मस्जिद का बीच का गुंबद बैठ गया था। उसने तुरंत उसकी मरम्मत करवा दी, जो मालूम भी नहीं होती। गुंबदों के कलस टूट गए हैं।

मस्जिद में मकबरा नहीं है। मस्जिद की दक्षिणी दीवार की तरफ पांच सीढ़ियां चढ़कर एक सहन है, जिसके बाहर एक अहाता है। उस अहाते के पूर्व और पश्चिम की तरफ पक्की दीवारें हैं और दक्षिण की ओर महराबदार कमरे हैं। उत्तर की ओर एक सहन है, जिनमें दिल्ली के बादशाह की कब्रें हैं। उत्तरी अहाते का फर्श संगमरमर का है। इसकी लंबाई 21 फुट और चौड़ाई 6 फुट है। इस अहाते की संगमरमर की दीवारें दस फुट ऊंची हैं। अहाते का दक्षिण द्वार दीवार के पश्चिम में है।

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