देशी-विदेशी पर्यटकों की पसंदीदा जगह है चांदनी चौक

दी यंगिस्तान, नई दिल्ली।

Chandni chowk: पहले बात उस दिल्ली की करें जो दिल्लीवालों की दिल्ली थी। चांदनी चौक को धुरी मानें तो लालकिले से नाक की सीध में फतेहपुरी तक जानेवाली उस चौड़ी सड़क के दोनों तरफ़ थोड़ी-थोड़ी दूर पर कुछ अपेक्षाकृत छोटे बाज़ार, सड़कें या कटरे कटते हैं। इनकी खूबी यह है कि ये कहीं खत्म नहीं होते। भीतर ही भीतर कहीं तंग कहीं चौड़ी होती इन गलियों में रिहाइशी और व्यापारी-पूरी दुनिया बसी है। उस ज़माने में इसी सड़क के दाईं तरफ़ थोड़ी-थोड़ी दूर पर क्रमशः तीन सिनेमा हॉल थे। मोती टॉकीज, कुमार टॉकीज और मैजेस्टिक।

मोती टॉकीज के ठीक सामने विभाजन के बाद प्रसिद्ध लाजपतराय मार्केट बनी जिसे बहुत दिन तक रिफ्यूजी मार्केट कहा जाता रहा। कुमार टॉकीज और मैजेस्टिक दो दशक पहले तक जैसे-तैसे शहर के तथाकथित ‘चवन्नीवाले’ दर्शकों की बदौलत चलते रहे। पहले मैजेस्टिक चांदनी चौक के मशहूर गुरुद्वारे शीशगंज की विस्तार योजना की भेंट चढ़ गया और कुमार टॉकीज कुछ वर्ष बाद खस्ता ख्वार हालत में मेट्रो के रास्ते में आ गया। कुमार टॉकीज के ठीक बगल से जो सड़क भगीरथ प्लेस को जाती है उस पर अब भी बिजली के सामान और एक हिस्से में दवाइयों की थोक मार्केट बदस्तूर आबाद है। चांदनी चौक के मुहाने पर दिगम्बर जैन सम्प्रदाय का मशहूर लाल मन्दिर है जिसमें विश्व का एकमात्र परिन्दों का अस्पताल है। सत्तर साल से लगातार इसमें घायल पक्षियों का इलाज किया जाता है। लाल मन्दिर से लगा हुआ है गौरीशंकर का प्राचीन मन्दिर, जिसके प्रवेश द्वार के बगल में मथुरा छाप मिठाई की दुकान है, जिसमें आज भी प्रसाद के बतौर वही मिठाइयाँ मिलती हैं जो आधी शताब्दी पहले मिलती थीं।

यह मात्र संयोग नहीं है कि चांदनी चौक की लालकिले से फतेहपुरी तक लगभग एक मील लम्बी सीधी सड़क पर क्रमशः एक जैन मन्दिर, एक गौरीशंकर मन्दिर, एक चर्च, एक गुरुद्वारा और आखिरी सिरे पर एक मस्जिद है। सभी का इतिहास एक शताब्दी पुराना तो है ही, विभिन्न धर्मानुयायियों के सौहार्दपूर्ण सह-अस्तित्व का प्रमाण भी है।

दिलचस्प है फतेहपुरी मस्जिद के ठीक बगल में सिन्धी हलवाई की उस दुकान का अस्तित्व जो वर्षों कराची हलवे के लिए मशहूर रही और अब होली पर अपने ढंग की ‘गुझिया’ और तीज पर ‘घेवर’ के लिए उतनी ही लोकप्रिय हैं। ‘चैना राम’ नाम की उस दुकान का रुतबा स्वतन्त्रता के बाद की बात है। मस्जिद से कुछ पहले दाहिने हाथ पर ‘टाउन हॉल’ की विराट इमारत है जिसमें लम्बे समय तक अपनी भ्रष्टाचारी लचर कार्यशैली के लिए कुख्यात म्यूनिसिपल कॉरपोरेशन (पहले कमेटी) का दफ़्तर आबाद रहा। इसी के बगल से एक सड़क कटती है, जो कम्पनी बाग के बीच से गुज़रती हुई दिल्ली के पुराने स्टेशन पर जा मिलती है।

टाउन हॉल के अहाते में तब रानी विक्टोरिया की भव्य विराट मूर्ति थी- वास्तुकला का बेहतरीन नमूना, जिसे औपनिवेशिक सत्ता की अनेक दिशानदेहियों की तरह वहां से हटाकर कॉरोनेशन ग्राउंड पहुंचा दिया गया।

इसी टाउन हॉल के ठीक सामने बीचोबीच शहर का मशहूर घंटाघर था। इसका सांस्कृतिक महत्त्व वर्षों इसलिए बना रहा कि दशहरे के अगले दिन हर साल मचान बनाकर इस पर भरत मिलाप का दृश्य प्रस्तुत किया जाता था, जिसके साथ दस दिन तक चलनेवाली रामलीला का पटाक्षेप होता था। हज़ारों की संख्या में दिल्ली की उत्सव प्रेमी जनता इसे देखने के लिए उमड़ती थी। वह घंटाघर और मैजेस्टिक सिनेमा के सामनेवाला फव्वारा दोनों काल की भेंट चढ़ गए।

1951 में घंटाघर का भहराकर गिरना दिल्लीवालों के लिए ऐसी हौलनाक खबर थी, जैसे शहर की नींव हिल गई हो! इस हादसे के बाद हफ्तों उस मलबे के ढेर को देखने के लिए लोगों का तांता लगा रहा। तब उसमें आतंकवादी साजिश ढूंढ़ने की कोई गुंजाइश नहीं थी। ऊपर का हिस्सा अपने आप ढह गया और बाकी को दुर्घटना की आशंका के कारण गिरा दिया गया।

स्वाधीनता के कई वर्ष बाद तक चांदनी चौक के दोनों सिरों को जोड़ती एक ट्राम चलती थी। कुछ ऐसी रफ़्तार से कि तेज चलता हुआ आदमी जब चाहे लपककर उस पर चढ़ और उतर जाए। वैसे उसके नियत स्टॉप भी थे, जिनका संकेत कंडक्टर रस्सी के सहारे बंधी घंटी को टनटनाकर दिया करता था। याद नहीं आता कि समय-समय पर होनेवाले साम्प्रदायिक दंगों का कोई हिंसक प्रभाव इस सड़क पर बने धर्म स्थलों पर पड़ा हो। ठेठ दिल्लीवालों की संस्कृति और मानसिक बनावट की सही समझ के लिए इस तथ्य को नजरअन्दाज़ नहीं किया जा सकता।

कहते हैं, चांदनी चौक के बीचोबीच एक नहर बहती थी-लालकिले से फतेहपुरी तक। नहर के दोनों तरफ दुकानें थीं, ‘मुगुल’ बेगमात की खरीदारी के लिए। जगमोहन ने अपनी लेफ्टिनेंट गवर्नरी के दौरान उस नहर के पुनरुद्धार का सपना देखा था। वह सपना तो पूरा न होना था न हुआ। अलबत्ता सड़क की गहराई में अब मेट्रो की दुनिया ज़रूर आबाद हो गई है।

अजब इलाका है यह चांदनी चौक। एक सीधी सड़क के दाएं-बाएं इतने कटाव-कुछ कटरे, कुछ कूचे, कुछ सड़कें, कुछ बाज़ार, कुछ गलियाँ, इन्हीं के बीच एक है गली बल्लीमारान ।

अन्दाज़ा लगाना मुश्किल है कि पराँठेवाली गली के बीच से मोती बाज़ार नाम की सँकरी गली आखिर घूमकर चाँदनी चौक में क्यों मिलती है; या कूचा नटवा के लगभग सामने कटरा अशरफ़ी का नामकरण कैसे हुआ होगा? लम्बे समय तक बल्लीमारान को चूड़ियों का थोक बाज़ार और मुसलमानों का रिहाइशी इलाक़ा समझने की गलती में जानकारों ने इजाफा किया कि उसी में थोड़ा अन्दर जाने पर वहाँ बड़ी संख्या में कायस्थ परिवारों की बसागत है और वहीं मशहूर हवेली हैदरकुली है जो बनियों की बस्ती है।

गरज़ यह कि पूरे इलाके की बनावट गोरखधन्धे की तरह है। भूगोल और इतिहास, दोनों की पेचीदगी में कोई पैठे तो उम्र बीत जाए, तब भी सिरा शायद ही हाथ आए। यह महज गली-मोहल्लों के मकड़जाल का नहीं, आबादियों के बसने-उजड़ने, एक में एक गुत्थमगुत्था होने का मसला है। इसीलिए दिल्ली की कोई एक तय जुबान नहीं। निहायत सादगी और नफ़ासत से बोली जानेवाली हिन्दुस्तानी से लेकर व्यापारी घरानों की घरेलू ज़बान के अलावा वकील-मुशियों की, कोर्ट-कचहरी की, करखनदारों की, दफ्तरों की, सरकारी अफसरों और साहबों की, न जाने कितने रंग हैं यहाँ की बोली-बानी के।

बस, एक बात तय है-शब्दावली, वाक्य-रचना, बलाघात की विविधता के बावजूद उच्चारण साफ़। कुछ ऐसा कि मुँह खोलते ही पहचान में आ जाए कि बन्दा हो न हो दिल्ली का है। ऐसी दिल्ली के चांदनी चौक के उस वक़्त के जौहरी बाज़ार यानी दरीबा कलाँ में लगभग आखिरी सिरे पर एक कूचा है जो आज भी कूचा सेठ कहलाता है। इस नाम का औचित्य न तब समझ में आता था न अब आता है क्योंकि वह सेठों का मोहल्ला तो नहीं ही कहा जा सकता। इसी कूचा सेठ की गलियों में एक गली थी गली ककरौंदा। सँकरी इतनी कि छह फीट का आदमी हो तो घुसने के लिए सिर झुकाना पड़े पर एक बार घुसने के बाद गली के दोनों तरफ़ मकान थे, छोटे- छोटे, गिनती में चार-छह रहे होंगे। गली के आख़िरी सिरे पर शहर के बहुत बड़े जौहरी की हवेली थी-बन्द गली का आखिरी मकान-दिल्ली की लाला संस्कृति का अजीबोगरीब नमूना।

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