मुगल काल में औरतों को मर्दों की तरह खुशबू लगाने का बड़ा शौक था। सुगंधियों या इत्र का का उल्लेख प्राचीन काल में भी मिलता है। इतिहासकार बोकारों ने 1644 ई. में हिन्दुस्तान में पुर्तगाली उपनिवेशों का जिक्र करते हुए उन सुगंधियों का भी जिक्र किया है जो उन दिनों स्त्रियों में ख़ास तौर से लोकप्रिय थीं और जिन्हें ‘सवा’ कहा जाता था।

कौटिल्य के ‘अर्थशास्त्र’ में स्नान के लिए सुगंधित द्रव्यों की एक लंबी सूची मिलती है। ‘आईन-ए-अकबरी’ में भी इत्रों का जिक्र बड़े विस्तार से किया गया है। उन दिनों इत्र आधे रुपये प्रति तोला से पचपन रुपए प्रति तोला तक विकते थे । इत्र संदल, अर्क-सेवती, अ-चमेली, अर्क-मौलसिरी और अंबर-इश्व की गिनती श्रेष्ठ इसों में होती थी। बेगमात गुस्ल के बाद और रात को बिस्तर पर जाने से पहले अपने लिवास और बदन पर इत्र जरूर लगाती थीं।

अकबर का इत्र का एक अलग महकमा था जिसे खुशबूखाना कहते थे। यह शेख मन्सूर की निगरानी में था। इस खुशबूखाने में माहिर लोग नए-नए इत्रों की ईजाद करने की धुन में लगे रहते थे। वेगमात और बादशाह और शहजादों के लिए वे भावोत्तेजक इत्र तैयार करते थे जिनमें वे मोती, सोना और अफ़ीम की भस्म मिलाते थे। नूरजहाँ की माँ ने गुलाब के फूलों का एक नया इत्र बनाया जिसका नाम ‘इत्र-ए-जहाँगीर’ रखा गया। जहाँगीर ने इस इत्र के बारे में लिखा है, ‘इसकी खुशबू इतनी तेज है कि अगर इसकी एक बूँद हाथ की हथेली पर रख दी जाए तो सारे बाजू में खुशबू फैल जाती है और दिन भर नहीं जाती।”

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