जतीन्द्रनाथ मुखर्जी का जन्म 1879 में जैसोर जिले में हुआ था। वे क्रान्तिकारी युगान्तर पार्टी के प्रमुख नेता थे। बचपन में ही पिता की मृत्यु के बाद वे जीविकोपार्जन हेतु कलकत्ता चले गये थे। बचपन से ही वे शरीर से काफी बलिष्ठ थे। उनके बारे में एक कहानी काफी प्रचलित है कि एक बार जंगल से गुजरते वक्त उनका सामना बाघ से हो गया, तब उन्होंने अकेले ही हंसिये से बाघ को मार गिराया। तब से ही वे ‘बाघा जतीन’ के नाम से विख्यात हो गये थे।

कलकत्ते में राहत कार्यों में भाग लेने के दौरान सिस्टर निवेदिता से उनका परिचय हुआ। सिस्टर ने उन्हें स्वामी विवेकानन्द से मिलवाया और यहाँ से ही जतीन के जीवन की धारा बदल गई। वे न सिर्फ देश को आजाद कराने के सशस्त्र आन्दोलन में कूद पड़े, बल्कि अपनी तरह के लोगों को जोड़ना भी शुरू किया। जब अंग्रेजों के बंग-भंग का बंगाल में विरोध शुरू हुआ तो जतीन ने भी साम्राज्यवादियों की नौकरी छोड़ दी और क्रान्ति का रास्ता पकड़ लिया।

वर्ष 1910 में वे ‘हावड़ा षडयन्त्र केस में पकड़े गये और एक साल जेल में रहे। बाहर निकलने पर वे अनुशीलन समिति के सदस्य बने। तभी वे महर्षि अरविन्द के सम्पर्क में आये और युगान्तर नामक क्रान्तिकारी संगठन से जुड़ गये। उस समय उनके एक नारे आमरा मोरबो, जगत जागबो (हम जान देंगे तभी देश जागेगा) से आकर्षित होकर अनेक युवा युगान्तर से जुड़ गये। उन्ही दिनों उन्होंने अपने एक लेख में लिखा था- पूंजीवाद समाप्त कर श्रेणीहीन समाज की स्थापना क्रान्तिकारियों का लक्ष्य है। देशी विदेशी शोषण से मुक्त कराना और आत्म निर्णय द्वारा जीवनयापन का अवसर देना हमारी मांग है।

जतीन दुनियाभर में फैले क्रान्तिकारियों के सम्पर्क में तो थे ही, साथ ही देश को आजाद कराने की योजना पर भी बराबर काम कर रहे थे। प्रथम विश्व युद्ध में अंग्रेजों से लड़ रहे जर्मनों ने भारत में क्रान्तिकारियों की मदद कर ब्रिटिशों को झटका देने की योजना बनाई। इसी योजना के तहत जर्मनों ने जतीन से मुलाकात कर हथियार आपूर्ति का भरोसा दिया था। हथियारों का वह जखीरा उड़ीसा के बालासोर में उतरने वाला था। इस अभियान का उद्देश्य था जर्मन हथियारों के जरिये बालासोर रेलवे लाइन पर कब्जा कर ब्रिटिश सैनिकों की कलकते से मदास की तरफ आवाजाही रोकना।

उस समय क्रान्तिकारियों के पास आन्दोलन के लिये धन जुटाने का प्रमुख साधन डकैती हुआ करती थी। दुलरिया नामक स्थान पर भीषण डकैती और गार्डन रीच की भीषण डकैतियों में जतीन काही प्रमुख हाथ था। अंग्रेज भी यह बात जान चुके थे, पर हर बार जतीन पुलिस के चंगुल से बच निकलते थे। परन्तु 9 सितम्बर 1915 को एक मुखबिर की मदद से पुलिस ने जतीन का गुप्त अड्डा काली पोक्ष (काप्ति पोद) ढूंढ निकाला। राज महन्ती नाम का अफसर गांव के लोगों की मदद से उन्हें पकड़ने की कोशिश कर रहा था। भीड़ बढ़ने लगी तो बढ़ती भीड़ को तितर-बितर करने के लिये जतीन ने गोली चला दी। राज महन्ती वहीं ढेर हो गया। किन्तु तब तक यह समाचार बालासोर के जिला मजिस्ट्रेट किल्वी त पहुंच गया। किल्वी दल बल सहित वहां आ पहुंचा। दोनों तरफ से भीषण गोलीबारी शुरू हो गई। जिसमें चितप्रिय नामक एक क्रान्तिकारी शहीद हो गया। जतीन का शरीर भी गोलियों से छलनी हो गया। वे जमीन पर गिरकर पानी-पानी चिल्ला रहे थे। उन्हें अस्पताल ले जाया गया। अगले ही दिन बालासोर के एक अस्पताल में इस महानायक ने हमेशा के लिये अपनी आंखे मूंद लीं। यहां गौरतलब बात यह है कि जतीन्द्रनाथ से प्रेरणा लेकर ही सुभाष चन्द्र बोस ने दूसरे विश्वयुद्ध में जापान से मदद लेकर देश को आजाद कराने की योजना बनाई ‘थी। जतीन्द्रनाथ कितने बड़े क्रान्तिकारी थे, इसका पता कलकता पुलिस के खुफिया विभाग के प्रमुख और बंगाल के पुलिस कमिशनर रहे चार्ल्स टेंगार्ट की इस टिप्पड़ी से चलता है- ‘अगर बाघा जतीन अंग्रेज होते तो उनकी प्रतिमा लंदन के ट्रैफलायर स्क्वायर पर एडमिरल होरेशिया नेल्सन के बगल में लगवाते। एडमिरल होरेशिया नेल्सन ने 1805 में ब्रिटेन की तरफ से नेपोलियन की सेना के खिलाफ युद्ध लड़ा था। बालासोर में जहाँ जतीन के नेतृत्व में अंग्रेजों के विरुद्ध लड़ाई हुई थी, उसे एक स्मारक बना दिया गया है, जिसका नाम रक्त तीर्थ है। इसके अलावा कलकत्ता में विक्टोरिया स्मारक के पास बाघा जतीन की प्रतिमा स्थापित है।

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