मुहम्मदशाह रंगीले की हुकूमत में नवाब दरगाह कुली खां सालारजंग निजाम-उल-मुल्क के साथ दिल्ली आए थे। उन्होंने अपनी फारसी की रचना में जिनके उर्दू के अनुवाद का नाम मुरक्का-ए-दिल्ली है और बातों के अलावा बड़ी नामी नाच-गानेवालियों का हाल अपनी विशिष्ट, लच्छेदार चटपटी भाषा में लिखा है। लिखते हैं-

“नूरबाई दिल्ली में काफी मशहूर है। बड़े-बड़े अमीर उसकी शक्ल-सूरत और मुजरे के लिए तड़पते हैं और उसके मकान पर जाना गौरव का विषय समझते हैं। नूरबाई का मकान एक आलीशान दरबार की तरह सजा होता है। रंगारंग सजावट की चीजें हर तरफ नज़र आती हैं और उसकी सवारी बड़ी शान-शौकत से निकलती है और आगे-पीछे नौकरों और चोबदारों का हथियारबंद दस्ता साथ होता है। जहाँ जाती हैं हीरे-जवाहिरात से ख़ातिर की जाती है और बेशुमार दौलत साथ लाती हैं। उसकी अमीरी की यह दशा है कि जब उसको मुजरे के लिए बुलाया जाता है तो क्रीमती उपहार पहले ही भेज देते हैं। इसके अलावा नाच-गाने के बाद भी दौलत का अंबार उसके साथ कर देते हैं।”

महेश्वर दयाल अपनी पुस्तक दिल्ली जो एक शहर है में लिखते हैं कि नूरबाई के बारे में मशहूर था कि जिसने नूरबाई से दोस्ती की वह तबाह हो गया। बहुत-से अमीरों के घर बरबाद हो गए थे लाखों की जायदाद शौक़ीन और ऐयाश रईसों ने उसके पीछे खराब कर दी थी। वह बड़ी सितमगर थी और नागिन की तरह दौलत को इस लेती थी कमबख्त आदमी से नहीं उसकी दौलत से मुहब्बत करती थी। जिसके पास रुपया था, उसकी यार थी और जो गरीब था, उसकी तरफ आंख उठाकर भी नहीं देखती थी। बात यह थी कि वह बला की हसीन और शोख थी। उसकी बातचीत में एक जादू था । मजलिस के नियम-कायदों से पूरी तरह वाकिफ थी और बहुत जहीन थी। उड़ती चिड़िया को पहचान लेती थी। बारीक-से-बारीक मामलों की तह तक फौरन पहुंच जाती।

गुफ़्तगू में मुहावरों और कहावतों का इस्तेमाल बड़े उम्दा ढंग से करती। इसलिए जो अमीर उसे देखता और उससे बात करता उस पर मोहित हो जाता और उसे पाने की आरजू करने लगता। इस इच्छा की पूर्ति में वह अपना खजाना लुटा देता और उसके एक इशारे पर दौलत का अंबार लगा देता। नूरबाई उन पर कोशिश और असर पैदा करने के लिए चंद हसीन औरतें ले जाती और ऐसा गुमान होता कि चाँद सितारों के झुरमुट में है। दरगाह कुली खां ने उस समय की एक और मुज़रेवाली अमीर बेगम उर्फ़ अद बेगम का यों जिक्र किया है-

“अमीर बेगम दिल्ली की नामी और सारे जहां में मशहूर तवाइफ है। उसका कमाल यह है कि वह महफिलों में नंगी आती है। उसने अपने जिस्म पर चोली और टांगों पर पायजामे की नक्काशी करवा रखी है और कोई नहीं कह सकता कि वह नंगी है। इस राज को उसके गिने-चुने यार ही जानते हैं।’

दरगाह-कुली खां ने जिन तवाइफों और मुजरेबालियों का जिक्र किया है, उनमें चमनी, सरसरूप, चमकम दामनी, रमजानी, जीनत, गुलाब, रहमानबाई, पन्ना बाई, कमाल बाई, उमा बाई, कुंवर और तन्नो शामिल हैं। ये सबकी सब बड़ी तरहदार और दिल को लुभाने वाली तवायफ थीं जो जान-ए-महफिल समझी जाती थीं। उनका जिक्र दूर-दूर तक होता था। दरगाह कुली खां उनका अलग-अलग वर्णन करने के बाद लिखते हैं-“आज मैं उन ऐश की महफ़िलों को याद करके ऐश का लुत्फ़ हासिल कर रहा हूं। आज बड़ी तमन्ना है कि उन वाकमालों की मजलिसों और महफिलों में शिरकत करूं, लेकिन अब वो पुराने दिनों के मजे कहां?

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