दिल्ली के प्राचीन सामाजिक जीवन में घर के अंदर मनोरंजन का बड़ा महत्त्व था। उस समय का समाज आज ही की तरह दो वर्गों में बंटा हुआ था। एक खुशहाल और अमीर था तो दूसरा माली तौर पर पस्त था। फर्क सिर्फ यह था कि खुशहाल और अमीर तबके के लोगों को किसी काम के लिए भी खुद मेहनत नहीं करनी पड़ती थी और उनके पास बहुत समय था। समय बिताने के लिए दोस्तों की सोहबत जरूरी थी और चंद दोस्त इकट्ठे होंगे तो घर बैठे तफरीह करने का ख्याल भी पैदा होगा। इन मनोरंजनों में बेशक खाने-पीने और गुफ़्तगू के अलावा इस किस्म के खेल भी शामिल होंगे जिनसे कुछ घंटे दिलचस्पी में गुजर सकें। इसलिए गंजफा, शतरंज और चौसर के खेल अपनाए गए। जब उच्च वर्ग में ये खेल शामिल हो गए तो आम वर्गों के लोगों तक भी पहुंच गए। मनुष्य का स्वभाव है कि हर खेल में शर्त लगाकर उसे ज्यादा दिलचस्प और आकर्षक बना लिया जाए। शुरू की ये शर्तें बाद में बिल्कुल जुए की शक्ल इख़्तियार कर गई और अमीर और गरीब दोनों वर्गों में गंजफा और चौसर जुए के खेल बन गए। शतरंज अलबत्ता उससे बची रही हालांकि हार-जीत की शर्त उसमें भी दोनों पक्षों के बीच लगती रही।

गंजफा या गंजीफा बहुत ही प्राचीन खेल है। ऐसे प्रमाण मिलते हैं जिनसे पता लगता है कि गंजफा महाभारत के जमाने में भी खेला जाता था और उस समय उसे गंजप्पा कहा जाता था। मुगलों के शासन काल में जो गंजफा शुरू हुआ उसे ‘मुगल गंजफा’ भी कहा जाता था। गंजफा ताश का खेल है जिसका अब लगभग लोप हो चुका है। ‘बाबरनामा’ से यह पता चलता है कि इस खेल की शुरुआत हिन्दुस्तान में सबसे पहले मुगल शहंशाह बाबर ने की। अकबर के समय में शायद इस खेल में कुछ परिवर्तन हुए और ये परिवर्तन स्वयं अकबर के किए गए प्रतीत होते हैं। अबुल फजल ने ‘आईन-ए-अकबरी’ में लिखा है कि शहंशाह गंजफे के बहुत शौकीन थे। दो प्रकार के गंजफाें का उल्लेख किया गया है। एक, जिसमें बारह रंग के 144 पत्ते होते थे और दूसरा, जिसमें आठ रंग के 96 पत्ते होते थे। पहला गंजफा मध्य एशिया और ईरान में खेला जाता था और शायद वहीं से हिन्दुस्तान में आया था। मुगल गंजफा दूसरे प्रकार के गंज को कहते हैं। दिल्ली वाले मुगल गंजफा ही खेलते थे। आठ रंगों के खास खास नाम ये थे- 1. गुलाम, 2. ताज, 9. शमशीर, 4. अशरफी (जर-ए-सुख), 5. चंग, 6. बरात, 7. सिक्का (जर-ए-सफेद) और 8. कुमाश।

बारह पत्तों में एक शाह, दूसरा वजीर और बाकी के दस पत्ते एक से दस तक के अंकों से एक-दूसरे से अलग होते हैं। ईरान में आजकल गंज में ताश की तरह 52 पत्ते होते हैं। चार रंग और हर रंग के तेरह पत्ते ईरानी रंगों के नाम हैं-कुश्नीज, खिश्त, दिल, सरो। तेरह पत्तों में से तीन के नाम निश्चित हैं यानी शाह, बीबी और सरनाज, बाकी के दस पत्ते लफ्जों के जरिए एक दूसरे से अलग होते हैं। मुगल गंज में गुलाम, ताज, शमशीर और अशरफी, ‘बड़ी बाजी’ कहलाते हैं और शेष चार रंग ‘छोटी बाजी’। हरेक रंग में मीर और वज़ीर होता है, जिन्हें ताज और घोड़ी भी कहा जाता है। बड़ी बाज़ी में दूसरे दस पत्तों को दस से एक तक यानी ऊपर से नीचे तक गिना जाता था, लेकिन छोटी बाजी में इससे उलट होता था। मीर या ताज को ‘महताब’ भी कहा जाता था और अशरफी या जर-ए-सुख को ‘आफताब’ कहा जाता था। ‘आफताब ‘ वाली बाजी दिन में खेली जाती थी और ‘महताब’ वाली रात को।

गंजफा के पत्ते शक्ल में गोल होते थे। ये 20 मिली मीटर से लेकर 120 मिली मीटर के साइज में मिलते थे और उन्हें उम्दा लकड़ी या हाथी दांत के डिब्बे में रखा जाता था। ये पत्ते आमतौर पर मोटे कागज, कलफ लगे सख्त कपड़े या चमड़े के बनाए जाते थे जिन पर तस्वीरें या निशान पेंट कर दिए जाते थे। अमीर घरों में हाथी- दांत, कछुवे की त्वचा और सीप के बने हुए पत्ते भी इस्तेमाल होते थे जो काफी महंगे होते थे।

गंजफा आमतौर पर दीवानखानों या बैठकों में खेला जाता था। गंजफा और शतरंज दो ऐसे खेल हैं जो पुरुषों में बहुत प्रिय थे और जब वे इन्हें खेलते थे तो उन्हें किसी बात का होश नहीं रहता था। अक्सर ये लोग भूख-प्यास की भी परवाह न करते और सुबह से शाम हो जाती मगर लोग उठने का नाम न लेते। ऐसे मौक़ों पर ये लोग आमतौर पर घर की तरफ का दरवाज़ा बंद रखते ताकि अंदर से किसी प्रकार का हस्तक्षेप न हो। मगर घर की औरतें कोई जरूरी संदेश भी भिजवातीं तो घर के मालिक नजरअंदाज कर देते। हां, खेलने के दौरान अगर उन्हें किसी चीज की जरूरत पड़ती तो वह था पानदान या लगे हुए पानों की तश्तरी और हुक्का। जो लोग शराब पीते थे वे उसका इंतजाम भी चोरी-छिपे बैठक में ही कर लेते थे और घर की औरतों को ख़बर भी न होती।

मुगल गंजफे से पहले हिन्दू राज्यों में ‘दशावतार’ गंजफा खेला जाता था। उन पत्तों पर हिन्दू देवी-देवताओं की बड़ी खूबसूरत तस्वीरें पेंट की जाती थीं। ‘दशावतार’ से अभिप्राय है विष्णु भगवान के दस अवतारों का। ‘दशावतार’ गंजफा में 120 पत्तों का एक सेट होता था। दस रंग के बारह-बारह पत्ते होते थे। उनमें से 96 पत्तों पर रामायण की विभिन्न घटनाओं की झलकी पेंट की होती थी। ‘दशावतार’ गंजफा अभी तक उड़ीसा, पश्चिम बंगाल और दक्षिण भारत के कई प्रांतों में खेला जाता है। यद्यपि ‘दशावतार’ गंजफा के हिन्दू-काल के सभी चित्र अर्थात पत्ते अजायबघरों में उपलब्ध हैं लेकिन प्राचीन काल में यह कैसे खेला जाता था इसका जिक्र किसी प्रामाणिक पुस्तक में नहीं मिलता।

मुगल गंजफे को कम-से-कम तीन आदमी खेलते थे, हालांकि आम रिवाज चार आदमियों के खेलने का था। पहले पत्तों को लकड़ी के डिब्बों में से निकालकर कपड़े की एक सफ़ेद चादर पर रख दिया जाता। शुरू में एक-एक पत्ता डाला जाता, फिर दाईं तरफ बैठे हुए आदमी से पूछा जाता और पत्ता चाहिए’। यह खेल नंबरों का होता है और आदमी अपना पत्ता देखकर दूसरा पत्ता मांग लेता है। कम-से-कम आठ या नौ नंबर होने चाहिए। कुल पत्ते बारह होने चाहिए और किसी भी दशा में तेरह से ज़्यादा नहीं। जब सब पत्ते बंट जाएंगे तो खेल शुरू हो जाएगा।

खेल वह आदमी शुरू करेगा जिसके पास कोई मीर हो। मीर के बारह नंबर होते हैं और घोड़ी के ग्यारह, बाक़ी के पत्तों के नंबर उनके निशानों के अनुसार होते हैं। मीर और घोड़ी अगर आ जाए तो फेंक दिया जाता है कि गधा जमाई आ गए। जिसके पास पहले ‘दून’ यानी जोड़ा आ जाए तो वह जीत गया। एक ही रंग के पत्ते ‘रंग’ कहलाते थे। इस दृष्टि से यह खेल ‘फ्लैश’ खेल से बहुत मिलता है। इक्के को मीर की घोड़ी और नहले की दून सबसे श्रेष्ठ मानी जाती थी।

गंजफ़ में बैठने के लिए कम से कम दस नंबर चाहिए, वह भी मौक़ा देखकर वरना 13 या 14 पर बैठना ज़्यादा ठीक है। 13 या 16 पर बैठाना ऐसा होता है जिसमें जीतने की संभावना अधिक होती है। बढ़िया 16 मीर और चौके के होते हैं और घोड़ी ‘और पंजे के। ‘दून’ के बाद ‘सेसर’ यानी तीन पत्तों की बाजी होती है यानी दो अट्टे और एक इक्का। उससे भी बड़ा ‘नक्श’ है जो 17 या 21 नंबर का होता है। सबसे बड़ा नक्श मीर और नहले का होता है या घोड़ी और दहले का। छोटा 17 नंबर का नक़्श मीर और पंजे का या घोड़ी और छक्के का। अगर एक ही रंग का नक़्श हो तो वह आम नक्श से बड़ा होगा। मीर और नहला अगर एक ही रंग का होगा तो सबसे बड़ा यानी ‘नक़्श-ए-हमरंग’ होगा। जिसके पास ऐसा नक्श होगा वह आवाज़ लगाकर कहता है ‘नक्श-ए-हमरंग पैसे दो संग।’

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