एक कहानी मैं कहूं, सुन ले मेरे पूत
बिना परों के उड़ गया बांध गले में सूत
बूझो तो जानें, किसी ने कहा और बच्चों ने कुछ देर सोचा, आपस में कानाफूसी की और फिर एक साथ चिल्ला उठे- ‘पतंग पतंग।’
दिल्लीवालों को पतंग उड़ाने का बेहद शौक था। सावन का महीना आया, पुरवैया चली और बच्चे और बड़े पतंग उड़ाने के लिए घरों की छतों और छज्जों पर जा पहुंचे। बूढ़े चिल्लाते रहे ध्यान रखना कोई गिरे नहीं, नीचे खुले मैदान में जाकर क्यों नहीं उड़ाते? छत पर काई जमी है, पांव न फिसल जाए। मगर बच्चे सुनी-अनसुनी कर देते और फिर चंद मिनट बाद बूढ़ों को शौक चर्राता तो खुद भी तमाशा देखने छत पर पहुंच जाते। अब ऊपर कोई गुड्डी में कन्नी बांध रहा है तो कोई हुचके या चरखी में लिपटी हुई डोर खोलकर किसी लड़के को गुड्डी बनाकर उसे कोने में जाकर दरियाई देने को कह रहा है। दरियाई मिल गई तो ठुमकी दे देकर उड़ा रहा है। लगभग यही हाल हरेक छत पर है। कुछ ही देर बाद आसमान की तरफ निगाह करो तो सैकड़ों पतंगें चील-कौवों की तरह हवा में मंडरा रही हैं। दमड़ी की गुड्डी से लेकर छह-सात रुपए तक की इन्सान के कद जितनी बड़ी तुक्कलें’ उड़ रही हैं।
अजब-गजब नाम
इन पतंगों के नाम भी बड़े अजीबोगरीब होते थे। यानी अलफन, बगला, परी या परियल, दो पलका, दो-बाज, गुलजमां, कलेजा-जली, किलसस, मांगदार, कुंदखुली कलेचिड़ा, भेड़िया, चांदतारा, अद्धा, अधेल, पूनिया, सांप गंडीरीदार, अंगारा, शकरपारा, नागदार और न जाने क्या-क्या। सैकड़ों तरह की पतंगें उड़ाई जाती थीं। हुचके दो-दो तीन-तीन साथ रहते थे, किसी की सादी डोर और किसी पर मांझा लिपटा रहता था। ऐसी भी पतंगें होती थीं जिन पर बारीक कागज पर लिखे हुए इश्क-मुहब्बत के शेर लेई से चिपका देते थे। यह शेर उन दिनों आम देखने में आता था-
लड़ चुकी आंखें अब उस कातिल से लड़ता है पतंग
डोर की फरमाइशें हैं यह भी सब पर डोर है,
जब किसी आशिक और महबूबा के दिल जलते और मुलाकात की कोई सूरत नजर न आती तो यही डोर और पतंग काम में लाए जाते। मुहब्बत के पयाम आते-जाते और किसी को कानों कान खबर न होती। पतंग को प्रेमिका की छत तक उड़ाया जाता और फिर झुकाई देकर नीचे उतार दिया जाता, जहां प्रेमिका पहले से आंख टिकाए होती पतंग पर संदेश पढ़कर अपना संदेश चिपका देती और मुस्कराकर पतंग को हलकी-सी दरियाई दे देती और दूसरे सिरे पर ठुमकी-पर-ठुमकी मारकर पतंग को उड़ाकर खींच लिया जाता।
पतंग के शायरों ने संवेदनशील हृदयों में भी प्रेम के भाव जगाए हैं। प्रेम के मामले में पतंग को दिलजलों ने कैसे-कैसे इस्तेमाल किया है उसकी उर्दू शायरी में बहुत-सी मिसालें जो मुंशी सफ़दर अली सफ़दर की रचना ‘हुस्न-ए-ख्याल’ में दिए गए हैं, पतंग का एक और ही रुख पेश करते हैं-
एक दिन मिस्ल-ए-पतंग-ए-कागजी’
ले के दिन सररिश्त-ए-आजादगी
खुद-ब-खुद कुछ हमसे कनियानें लगा
इस कदर बिगड़ा कि सर खाने लगा
मैं कहा एक दिल हवा-ए-दिलबरां
बस कि तेरे हक में करती है जिया
बीच में उनके न आना जीनहार
ये नहीं हैंगे किसू के यार-ए-गार
गोरे पिंडे पर न कर उनके नजर
खींच लेते हैं ये डोर अंजामकार
एक दिन तुझको लड़ा देंगे कहीं
मुफ्त में नाहक कटा देंगे कहीं।।