दिल्ली के अलावा पतंगबाजी का दूसरा मशहूर केंद्र लखनऊ था। वहां के उस्ताद दिल्ली आकर दिल्ली के उस्तादों के मुकाबिलों में पेंच लड़ाते थे। मीर कनकुइया लखनऊ के वाजिदअली शाह के पतंगबाज थे। वह अपनी टोली को लेकर हर साल पतंगबाज़ी की प्रतियोगिता में शामिल होने के लिए दिल्ली आते थे। ये प्रतियोगिताएं पुरानी ईदगाह के पास वाले मैदान में होती थीं और लोगों की भारी भीड़, वहां इकट्ठी हो जाती थी।

दरअसल एक बड़ा मेला लग जाता था। चाटवाले, पान-बीड़ीवाले और हर तरह के सौदेवाले और खिलौनेवालों के साथ पतंग, डोर, हुबके और मांझेवाले की दुकानें ज़मीन पर ही लग जाती थीं। मिर्ज़ा चपाती और दूसरे भी अपनी दुकानें लगाते थे। पतंगबाजी की होड़ के लिए नियम-कायदे होते थे। उनका उल्लंघन करने वाले को हारा हुआ करार दे दिया जाता था और इस बात का फैसला मध्यस्थ किया करते थे।

आमतौर पर एक बाजी पांच रुपए की होती थी जो दिनों खासी रकम थी। हर जीतने वाले को उसी समय अपने प्रतियोगी से पांच रुपये चांदी के खनकते सिक्कों की सूरत में मिल जाते थे। जिस उस्ताद का सितारा बुलंद होता था वह अंधेरा होने तक सत्तर- पचहत्तर रुपए जीत लेता था। कोई पतंग कटती तो दर्शक इतना शोर करते कि कान पड़ी आवाज सुनाई न देती। जिसकी पतंग कटती उसे ‘पीरी है भई पीरी है’ कहकर शर्मिंदा करते। लेकिन हारने वाले अपने उस्ताद का दिल टूटने नहीं देते थे और उस्ताद से कहते, “अजी एक पतंग कटी गई तो क्या हुआ? यह तो हवा का खेल है।

अभी तो कई हाथ और बाक़ी हैं। इस बार ईशा अल्लाह आपकी जीत होगी” जब प्रतियोगिताएं समाप्त हो जाती थीं तो दिल्ली के पतंगबाज़ लखनऊ के पतंगबाज़ों से गले मिलते थे और दोनों में बीते हुए दौर की बातें होती थीं। बादशाह की पतंगबाजी के चर्चे घंटों तक सुनाए जाते थे।

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