दिल्ली में नामी पतंगबाजों की कमी नहीं थी मगर मिर्जा चपाती का तो जवाब नहीं था। वह एक बाकमाल पतंगबाज थे। शाह आलम के पड़पोते थे और अगरचे पढ़े-लिखे नहीं थे, मगर शायरी भी करते थे और अपना नाम ‘फ़खरू’ तख़ल्लुस रखा हुआ था। उनका असल नाम फ़ख़रुद्दीन था। वह शुरू से तुतलाते थे। उनके वालिद भी शायर थे और ‘आलम’ तखल्लुस रखते थे। इसी कारण उनका नाम मिर्ज़ा चपाती पड़ गया। नौकरी खत्म होने के बाद माली तौर पर तंगदस्त रहने लगे थे शतरंज, चौसर, गंजना और पच्चीसी खेलने के शौकीन थे कबूतर और बटेरबाजी का शौक़ भी था। 1857 के हंगामें में क़िले से निकलकर एक साथी के हमराह जमना में तैर कर दिल्ली से आगरा पहुँचे थे। जब शान्ति स्थापित हुई तो दिल्ली वापस आ गए। पतंगबाजी में उनकी गिनती दिल्ली के मशहूर उस्तादों में होती थी। मांझा खुद तैयार करते थे और पतंग बनाते और बेचते भी थे। मटियामहल के पास चितलीकब्र पर अंतिम दिनों में रहने लगे थे।
मिर्जा चपाती बादशाह से जुड़ी पतंगबाजी की कहानियां भी खूब सुनाते थे। वो कहते थे कि “अमां मीर कनकौवे हमारे बादशाह बहादुरशाह जफर को लाल किले के शहजादों और उनके भाई-बंदों को पतंगबाजी का बड़ा शौक है। बादशाह हुक्म फ़रमाते थे, मिर्ज़ा यावर बख़्त आप जमना के उस पार से और नाजिर साहब दूसरे किनारे से पतंग उड़ाएंगे। बादशाह की सवारी आई। मिर्जा का पतंग उठाकर रेती पर सवार खड़े हो गए। जमना के दूसरे किनारे रेत के ऊपर पतंग उड़ रही है। पतंग झपकती हुई चली जाती इतनी दूर कि आसमान पर तारा-सा दिखाई देने लगती थी।
अब नाज़िर की बारी थी। उन्होंने भी पतंग उड़ाई। मिर्ज़ा ने ढील छोड़ दी। उनकी डोर दरिया के आर-पार लटकती दिखाई दी तो सवारों ने बांसों पर बची शाखों से डोर को उठा लिया। पेंच लड़े। मिर्जा ने दोहरा बांधा तो नाजिर ने खत लगाया। सैकड़ों लोग तमाशा देख रहे हैं और डोर लूटने के लिए बैचेन हैं। यह लीजिए वह पतंग कटी और हवा में लहराती, झूमती और गोता लगाती हुई शाहदरा की तरफ चली जा रही है। लोगों में खलबली मच गई, शोर मचा और दौड़ शुरू हो गई। जिसके हाथ पतंग और डोर लगेगी उसकी चांदी हो जाएगी, क्योंकि यह पतंग भी कीमती है और मांझा भी पतंग के पांच रुपए और डोर के वजन से बीस-पच्चीस रुपए सेर के भाव से काफ़ी रुपए मिल जाएंगे। गुरज यह कि इस पतंगबाजी का भी निराला ही हाल था। किसी ने पूछा, “बादशाह ने पतंग नहीं उड़ाई ?”
मिर्ज़ा चपाती सटपटाकर बोले, “मियां ठहरो तो सही, वह भी सुनाता हूं। बादशाह पतंग नहीं तुक्कल उड़ाते थे। उन तुक्कलों की भी वह शान कि एक बल्ली दो बल्ली से नहीं, चार बल्ली और पांच बल्ली डोर से उड़ाई जाती थीं। तुम्हारे जैसे तो तुक्कल के साथ हवा में उड़ जाएं। बादशाह सत्तर बरस के होते हुए भी अपनी जगह पर रहते। क्या मजाल जो पैर खिसक जाएं। लेकिन हा, डोर की धार ऐसी होती थी कि हाथों में मखमल के दस्ताने पहन लेते थे। जान-बूझकर तुक्कल कटवा देते या लोगों का जी रखने के लिए हत्थे से डोर तोड़ देते थे। उन्हें तुक्कल की डोर तोड़ने में सुकून मिलता था चाहते थे कि डोर या तुक्कल किसी गरीब के हाथ लग जाए तो उसके वारे-न्यारे हो जाएंगे।