दिल्ली के अखाड़ों में कुश्तियाँ तो की ही जाती थीं, लेकिन कुछ अखाड़ों में कई पूर्वी खेलों या करतबों का, जिनका संबंध शारीरिक शक्ति और चुस्ती से था, बाकायदा प्रशिक्षण भी दिया जाता था। उनका मक़सद भी व्यक्तिगत रक्षा की शक्ति को बढ़ावा देना और जरूरत पड़ने पर हमलावर के हमले को नाकाम बनाना था। मुग़लों के ज़माने में पंजा लड़ाना, बिनौट, बाँक, पटेबाज़ी, बनैटी, गुलेलबाजी, तीरअंदाजी और बंदी बहुत लोकप्रिय कलाएँ थी शरीफों और अमीरों के बच्चे भी इन अखाड़ों 1 में जाकर यह हुनर सीखते थे। मुग़ल बच्चों में इनका खास तौर पर शौक था। शाम के वक्त मोतिया खान पर क़दम शरीफ़ के क़रीब मुग़ल बच्चों की एक भीड़ जमा हो जाती थी। वहाँ एक मीठे पानी का कुआँ भी था जिसका पानी बर्फ़ की तरह ठंडा होता था। इस पानी से ठंडाई तैयार होती। साथ ही पहलवानों और उनके कमालों पर चर्चा होती रहती। पंजाकशी, बिनौट, बाँक और पटेबाजी के ऐसे-ऐसे उस्ताद दिल्ली में मौजूद थे कि उनका सानी नहीं मिलता।

पंजाकशी दरअसल बॉक और विनौट की पहली कड़ी है जबकि देखने पर इनमें कोई सीधा-सा संबंध मालूम नहीं होता। इसमें दोनों पक्ष अपने दाएँ हाथ की हथेली को एक-दूसरे के खिलाफ़ जोड़कर उँगलियों को आपस में मिलाकर एक शिकंजे में मोड़ते हैं। इतना जोर लगाते हैं कि या तो प्रतिद्वंद्वी का पंजा मुड़ने लगता है और अगर उसमें ज़्यादा ताक़त और महारत है तो पंजे उलझे रहते मगर किसी का पंजा भी टस से मस न होता। ऐसे में दोनों का चेहरा लाल अंगारा हो जाता, गर्दनों की रगें उभर आतीं और पसीना फूट पड़ता। जिसका पंजा मुड़ने पर मुड़ता चला जाता और वह तकलीफ़ से चिल्लाने लगता तो उसकी हार मानी जाती। कभी-कभी पंजाकशी शर्त लगाकर भी होती और उसमें खासी रकमें और चीजे दाँव पर लगा दी जातीं। ताज्जुब की बात यह थी कि कई पंजाकशी खुशनवीसी की कला के भी माहिर थे।

आमतौर खुज़नवीसी के लिए हलकी या नरम उँगलियों की अपेक्षा की जाती है न कि पंजाकश की पत्थर जैसी सख्त और खुरदरी उँगलियों की अंतिम मुगल बादशाह के जमाने में एक मीर पंजाकश बड़े लोकप्रिय थे। उनका असल नाम सैयद मुहम्मद अमीर रिजवी था और खुशनवीसी में उनका सानी नहीं था। उनके कमाल का यह हाल था कि उनके पहले ही हर्फ़ अलिफ़ में देखने वालों को महबूब के क़द का अक्स नजर आता था। उसके बावजूद पंजाकशी में उन्होंने वह शोहरत पाई कि लोग उन्हें मीर पंजाकश ही कहने लगे। बादशाह बहादुरशाह ज़फ़र भी उनके शिष्यों में से एक थे। कहा जाता है कि मीर साहब लोहे के पंजे से जोर किया करते थे और अपनी ताकत से उसे मोड़ दिया करते थे। बहादुरशाह ज़फ़र उनका विशेष सम्मान करते थे। मीर साहब पंजाकशी के अलावा बाँक और विनीट के भी माहिर थे। 1857 की पहली आजादी की लड़ाई में भी उन्होंने अपने तौर पर जो कुछ हो सकता था किया और उसकी वजह से फिरंगियों की गोली का निशाना बने। उस समय उनकी उम्र 96 वर्ष की थी। उनकी कब्र पहाड़ी इमली में उनके मकान के अंदर ही बनी जो आज तक सुरक्षित है। अब उस मकान में एक स्कूल खुला हुआ है।

मीर पंजाकश के एक शार्गिद मिर्जा अली बेग थे जब मिर्ज़ा अली बेग की उम्र अस्सी से ऊपर हो गई और वे दस्तों की बीमारी के शिकार हुए तो उनके पास मेरठ का एक पहलवान आया जो उनसे पंजाकशी की कला सीखने का बड़ा इच्छुक था। मिर्ज़ा ने अपनी वृद्धावस्था और रुग्णता के कारण क्षमा माँगी, बल्कि अपनी तर्जनी की तरफ़ इशारा किया जो टूटी हुई थी। लेकिन पहलवान का आग्रह था कि आप ही मुझे यह हुनर सिखाएँ। लाचार होकर मिर्ज़ा अली बेग बिस्तर पर ही उठकर बैठ गए और उन्होंने अपना काँपता हुआ हाथ पहलवान के सामने करके उसका आह्वान किया कि वह अपना पंजा उनके पंजे से मिला ले। साथ ही उन्होंने उससे यह भी कहा कि मेरे बुढ़ापे और कमजोरी का खयाल रखना और ऐसा न हो कि मेरी उँगलियों की हड्डियाँ चरमरा जाएँ। पहलवान ने पंजा मिलाया और कोई दस मिनट तक उसमें और मिर्ज़ा साहब में जोर आजमाइश होती रही। फिर मिर्जा ने अपनी एक चाल क्रमची’ इस्तेमाल की और पहलवान की कलाई को एक झटके से मोड़ दिया। यह झटका इतना अचानक और भारी था कि पहलवान दर्द से कराहता हुआ पलंग पर से फर्श पर गिर पड़ा। क्रमची पंजाकशी की कला में बड़ा कारगर दाँव था जिससे कभी-कभी प्रतिद्वंद्वी की उँगलियाँ हमेशा के लिए बेकार तक हो जाती थी। हालांकि आज भी नौजवान लड़के और कुछ शौकिया पंजा लड़ाते हैं मगर यह कला तो अब लुप्त हो चुकी है।

1930 के दशक में दिल्ली में एक मजबूत जिस्म का रफ़ूगर था जो पंजाकशी में महारत रखता था और काफ़ी मशहूर हो गया था। एक दिन हौज़ क़ाजी में एक छोड़ा हुआ बैल काबू से बाहर हो गया और वह राहगीरों पर हमला करने के लिए इधर-उधर दौड़ रहा था। लोग घबराहट में भागकर जहाँ जगह मिली छिप गए। रफ़ूगर ने शोर सुना तो दुकान से निकला। वह बैल के पीछे गया और जब उसने मुड़कर उस पर हमला करना चाहा तो रफ़ूगर ने अपने पंजों से मजबूती से बैल को सींगों से पकड़ लिया। उसने पूरी ताक़त लगाकर बैल को नीचे गिरा दिया और उसे उसी हालत में रखे रहा, जब तक पुलिस आ गई और बैल को टाँगों से बाँधकर वहाँ से ले गई। उस जमाने में कुछ लोगों के पंजों की ताक़त का यह हाल था!

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