दिल्ली में पढ़ने के लिए 53 मील पैदल चले शायर अल्ताफ हुसैन हाली
दिल्ली के शिक्षण संस्थानों मदरसों की शोहरत इस कदर थी कि नौजवान शायर अल्ताफ हुसैन हाली अपना घर-बार और बीवी को छोड़कर अकेले 53 मील पैदल चलकर आए। न उनके पास पैसे थे और न सर छिपाने की जगह। लेकिन उनके दिल में यहां मशहूर कॉलेजों में शिक्षा पाने की लगन थी। वह लिखते हैं कि “हर एक यह चाहता था कि मैं कोई नौकरी ढूंढूं। लेकिन मेरा शिक्षा हासिल करने का शौक बाज़ी ले गया।
दिल्ली आखिरकार साहित्य एवं कला का एक प्रसिद्ध केंद्र थी और अपनी संस्कृति के चरम पर थी। यहां छह मशहूर मदरसे थे, और कम से कम चार और छोटे मदरसे। यहां से उर्दू और फारसी के नौ अख़बार छपते थे, और पांच साहित्यिक पत्रिकाएं दिल्ली कॉलेज से प्रकाशित होती थीं और बहुत से छापेखाने, प्रकाशक, और यहां कम से कम एक सौ तीस यूनानी डॉक्टर थे। और यहां पश्चिमी साइंस के नए-नए करिश्मों का पहली बार अरबी और फ़ारसी में अनुवाद हो रहा था, और इन सब कालेजों और मदरसों में दिमाग़ी सोच की उड़ान और आज़ाद ख़्याली का जोश महसूस किया जा रहा था।”
लेकिन दिल्ली की सबसे ज्यादा कशिश उसके शायर और बुद्धिजीवी थे। गालिब, जौक, सहवाई और आजुर्दा जैसे लोग। हाली का कहना है कि “खुश किस्मती से उस वक़्त दिल्ली में एक वक़्त में इतने प्रतिभावान लोग जमा थे कि उनकी महफ़िलों और मजलिसों को देखकर अकबर और शाहजहां का ज़माना याद आ जाता था।” हाली के ख़ानदान ने आखिरकार उनको दिल्ली में ढूंढ़ निकाला। लेकिन इससे पहले कि वह उनको पकड़कर ज़बर्दस्ती मुफस्सिल में उनकी शादीशुदा जिंदगी की ज़िम्मेदारियां निभाने वापस लेकर जाते, उनको हुसैन बख़्श के विशाल और ख़ूबसूरत मदरसे में दाखिला मिल गया था और उन्होंने वहां अपनी शिक्षा शुरू कर दी थी। बुढ़ापे में वह लिखते “मैंने अपनी आंखों से ज्ञान का यह आखरी भड़कता हुआ शोला देखा था। अब उसके ख़्याल ही से मेरा दिल गम से टुकड़े-टुकड़े हो जाता है।”
उधर चांदनी चौक में हालांकि दिल्ली बैंक के मैनेजर मि बेरेसफोर्ड सुबह नौ बजे से दफ़्तर आ गए थे लेकिन ग्यारह बजे से पहले किसी दुकानदार का नामो-निशान न था। ग्यारह बजे के बाद उन्होंने अपनी दुकानों के दरवाज़े खोले और सबसे पहले अपनी चिड़ियों को दाना डाला और फिर दुकान के सामने से कटोरों में पैसे उछालते, साधुओं और फ़क़ीरों से आगे बढ़ने को कहा जो हर दुकान के सामने से गुज़र रहे थे। इनमें से कई जाने-पहचाने लोग थे जिनकी काफी इज़्ज़त थी जैसे मज्जूब दीन अली शाह जिनके बारे में सैयद अहमद खां लिखते हैं कि वह दुनिया से इतने बेख़बर रहते थे कि अक्सर नंगे रहते थे। जब लोग उनके गिर्द जमा हो जाते तो वह उनको गालियां सुनाने लगते लेकिन जब कोई ख़्वाहिशमंद लोग उनके बज़ाहिर बेतुके शब्दों अल्फाज़ पर गौर करता तो उसको पता चलता कि उनमें उसके सवाल के साफ़ जवाब छुपे हुए हैं।” दिल्ली के माने हुए फ़क़ीरों में कुछ औरतें भी थीं जैसे असाधारण योग्यता वाली बाईजी जो सारी जिंदगी शाहजहानाबाद की पुरानी ईदगाह के क्रीब एक छप्पर के नीचे पड़ी रहीं। वह बात करने में कुरआन की आयतें भी पढ़ती थीं और वह जो भी भविष्यवाणी करतीं वह हमेशा सच साबित होती ।”
बाहर सड़क के किनारे वो सौदागर जिनकी अपनी दुकान नियत स्थानों पर बैठ जाते। कान साफ करने वाला अपनी कुरेदनी और सलाई नहीं थी, अपने-अपने निकाल लेता, दांत चमकाने वाला नीम की डंडियों के बंडल जमाता, ज्योतिषी अपने ताश के पत्ते और तोता निकाल लेता, नीमहकीम अपनी छिपकली और तरह-तरह के गदले कामोद्दीपक तेलों की बोतलें रखता और कबूतर वाला अपने मोरपंख और खूबसूरत कबूतरों को दिखाता। सड़क के पीछे, दुकानों के अंदरूनी हिस्सों में लोगों की नज़रों से दूर कारीगर जौहरी जेवरात में जमुर्रद, नीलम मोती की तरह के चमकते पत्थर, बरमा के लाल हीरों, पुखराज बदख्शां के याकूत और हिंदूकुश के नीलम जड़ने में मसरूफ होते। मोची भी चमड़ा निकालकर जूतों की नोक निकालने में लग जाते और तलवारें बनाने वाले अपनी भट्टी में आग धौंकने लगते। बजाज अपने कपड़ों के थान निकाल लेते और मसाला बेचने वाले हल्दी की छोटी-छोटी सुनहरी पहाड़ियां बनाकर बैठ जाते ।
सबसे बड़ी दुकानें मारवाड़ी और जैन साहूकारों की थीं जिनके सामने पहरेदार लठ लिए खड़े होते। उनके रजिस्टर कर्जदारों के नामों से भरे होते थे, जिनमें जवांबख़्त की शादी के बाद ज़फ़र का नाम भी शामिल हो गया था। वह गाव तकियों से टेक लगाए उन रुपयों को वसूल करने के ख़्वाब देखा करते जो उन्होंने अपनी बेवकूफी में दरिद्र शहज़ादों को कर्ज़ दिए थे। उन लोगों में लाला सालिगराम, भवानी शंकर, और सबसे ज़्यादा दौलतमंद लाला चुन्नी लाल शामिल थे, जिनके दिल्ली बैंक में सबसे बढ़कर रुपए जमा थे। चुन्नी लाल कटरा नील में अपनी बहुत बड़ी और शानदार हवेली में रहते थे।
जैसे-जैसे चांदनी चौक में रौनक बढ़ रही होती, तो दो मील दूर छावनी में दिनभर का काम ख़त्म हो रहा होता। सब अंग्रेज़ अपना फ़ौजी काम ख़त्म करके वापस आकर जल्दी से नहाते, अख़बार पढ़ते और एक-दो घंटे बिलियर्ड्स खेलते। फिर शाम तक उनके पास कुछ करने को नहीं होता सिवाय इसके कि ढीले-ढाले कपड़े पहनकर सुस्ताएं, पढ़ें या सो जाएं।” उनके छोटे से ईंटों के बंगले में गर्मी असहनीय होती थी। इतनी कम मसरूफियत होने की वजह से हिंदुस्तान में बोर हो जाना, उनकी सबसे बड़ी समस्या थी। “मेरी ये कमबख़्त सुस्ती बहुत बड़ी आफत है,” बंगाली फौज के एक सिपाही एलन जोंस ने उन्हीं दिनों में लिखा, “पिछले दस दिन से मैंने न ही एक किताब खोली है और न एक लाइन लिखी है। सिर्फ बिस्तर में आलस से लेटा रहा हूं। मेरे ख्यालों में हमेशा घर की याद और यहां के लोगों और चीज़ों से नफरत होती
थोड़ा दक्षिण में, सिविल लाइंस में, लूडलो कासल के रेज़िडेंसी ऑफिस में, सर थॉमस मैटकाफ का भी दिन का काम लगभग पूरा हो चुका होता: उसकी विभिन्न मीटिंग्स ख़त्म हो चुकी होतीं, कोतवाल और अदालतों के सवालों के जवाब दिए जा चुके होते, उसके ख़त लिखे जा चुके होते, और महल की ख़बरों का अध्ययन करके उनका संक्षिप्त रूप आगरा और कलकत्ता भेजा जा चुका होता।
दोपहर के एक बजे जब सर थॉमस काम ख़त्म करके अपनी बग्घी में मैटकाफ हाउस वापस जा रहा होता तो लाल किले में हलचल शुरू होती। अगर बादशाह को शिकार के लिए जाना होता जोकि सत्तर साल की उम्र तक उनका शौक था तो वह सुबह जल्दी उठ सकते थे। लेकिन आमतौर पर रात को मुशायरे या महफ़िल के बाद वह देर तक बिस्तर में लेटे रहते। उनकी सुबह ख़वासों के आने से शुरू होती जो हाथ में चांदी के घड़े और तस्ले लिए हाज़िर होतीं और उसे दरी या चमड़ा बिछाकर उस पर रख देतीं। फिर कुछ तौलियाबरदार ख़वासें रूपाक और पापाक लेकर आतीं और शाही चेहरे और पांव साफ़ करतीं और एक रूमाल से शाही नाक।
फिर सुबह की नमाज़ पढ़ी जाती जिसके बाद डॉक्टर चमन लाल ज़फर के पांव पर जैतून के तेल की मालिश करते। चमन लाल के ईसाई होने के बाद से कई उलमा ने उन्हें हटाए जाने की मांग की थी, लेकिन उन्होंने जवाब दिया कि डॉक्टर का धर्म उनका जाती मामला है और जो उन्होंने किया वह कोई शर्म की बात नहीं है। इसलिए वह रोज़ किले में आकर अपना फर्ज़ अंजाम देते।” अब हल्का सा नाश्ता पेश होता और बादशाह पालथी मारकर फ़र्श पर बैठ जाते। और इस दौरान गुफ्तगू शाम के मुशायरे की तर्ज और तरह के बारे में होती (ज़फ़र अक्सर अपने दरबारी शायरों को तज़मीन जैसे मुश्किल काम देते थे, मसलन उनके दो मिस्रों के शेरों को तीन मिनों में बदलना और वह भी ऐसे कि न उनका वज़न बदले न मतलब)। फिर ज़फर किले का एक चक्कर लगाते। उनके साथ तुर्की, तातारी और अफ्रीकी पहरेदार औरतों का एक दस्ता चलता जो सब मर्दाना फौजी वर्दी पहने हुए होतीं और उनके हाथ में तीर और कमान होते।”
फिर वापस आकर ज़फ़र अर्जियां वसूल करते, अपने मालियों से फूल और फल कुबूल करते और शिकारियों और मछेरों से तोहफ़े लेते। किले की छोकरियों को या सलातीन के नामुनासिब बर्ताव का इंसाफ करते, और फिर अपने उस्ताद ज़ौक से मुलाकात करते और अपनी ताज़ा ग़ज़लों पर इस्लाह लेते। कभी वह अपने शागिर्दों से भी मिलते और उनकी ग़ज़लों को सही करते। किले की डायरी में दर्ज़ है कि एक बार मार्च के महीने में उन्होंने एक ख़सबरदार और एक महिला-पीरम जान को शायरी की शागिर्दी में कुबूल किया था। इस शायरी और इस्लाह में दिन के कई घंटे गुज़र जाते। जैसे कि आज़ाद का कहना था कि “ज़फ़र को शायरी से पागलपन की हद तक इश्क़ था।
किले के अंदर दरिया के किनारे शाह बुर्ज में मिर्ज़ा फखरू अपनी खुशनवीसी में मसरूफ़ होते या अपनी किताब “पैगम्बरों और बादशाहों की तारीख़” पर काम करते होते और उनके छोटे भाई स्कूल का काम शुरू कर देते जो मुग़लों के लिए बहुत अहम चीज़ थी । एक मेहमान का कहना था कि वह सब हमेशा पढ़ाई में मसरूफ़ रखे जाते हैं और उनकी निगरानी की जाती है। हिंदुस्तान भर में कोई और शहज़ादा उन दिल्ली के मुगलजादों की बराबरी नहीं कर सकता । न सिर्फ ज्ञान प्राप्त करने में बल्कि दिमागी सलाहियतों में भी जो प्रकृति की देन थीं और जिनको अच्छी और उच्च शिक्षा से और भी मजबूती मिली। इस दौर में शहज़ादों की शिक्षा में तर्कशास्त्र, दर्शनशास्त्र, गणित, खगोलशास्त्र और कानून व औषधि पर बहुत ज़ोर था और उनसे यह उम्मीद भी की जाती थी कि यूरोप के पुनर्जागरण के समय के दरबारों की तरह कोई भी सुसंस्कृत शहज़ादा शायरी की योग्यता रखता हो।