औरंगजेब से पहले लाल किले की यह थी हालत

शाहजहां के बनाए गए किले का पूर्ण उदय औरंगजेब के काल में हुआ। सुरक्षा के लिहाज से औरंगजेब ने लाहौरी और दिल्ली दरवाजों के सामने घुस का घूंघट बनवा दिया था। इसके अतिरिक्त उसने कई अन्य संगमरमर की इमारतें और एक मोती मस्जिद बनवाई। जब दरवाजों के सामने औरंगजेब ने घूंघट बनवाए तो कैद से शाहजहां ने उसे एक पत्र लिखा था कि तुमने किले को दुल्हन बनाया और उसका घूंघट निकाला।

औरंगजेब के बाद किसी अन्य बादशाह ने किले की कोई विशेष तरक्की नहीं की। इस किले की तबाही से पूर्व इसकी जो हालत थी वह इस प्रकार है :-

लाहौरी दरवाजे से एक लम्बे-चौड़े छज्जे में दाखिल होते हैं, जिसके बीच में एक बड़ा भारी रोशनदान है । इसके दोनों तरफ एक पतली-सी गली निकाली गई है। सीधी तरफ की गली एक बाग में जा निकलती थी। इसके आगे इमारतों के दो ब्लाक थे, जिनमें से एक सिलसिला इमारतों का, जो दक्षिण की घोर था, दिल्ली दरवाजे तक कुछ ऊपर तीन सौ गज तक चला गया था और दूसरा किले के पश्चिम की घोर फसील से पूर्व की घोर डेढ़ सौ गज लम्बा था। इन दोनों ब्लाकों की इमारतों में साधारण दरजे के मोहदेदार या तो रहते थे या अपनी ड्यूटी पर रहा करते थे।

बाएं हाथ की गली आगे बढ़ कर एक आम रास्ते में मिल जाती थी, जिसमें से और गलियां और चौराहे फूटते थे। किले की उत्तर और फसल की तरफ का सारा मैदान इमारतों से पटा पड़ा था, जिनमें कारखाने ये एक हाल में जरदोज और कारोबसार हर वक्त काम में लगे रहते थे. जिन पर एक दारोगा नियत था।

दूसरी जगह सुनार जेवर गड़ा करते थे। तीसरे में नक्काश, चौथे में रंगसाज, पाचवे में सोहार, बढ़ई, खरादी, दरजी मोची आदि, छठे में जरबत, किमखाब, रेशमी कपड़ा और बारीक मलमल बनाने वाले तथा दूसरा कपड़ा बनाने वाले जैसे पगड़ियां सीले पटके, दोपट्टे और हर प्रकार के फूलदार जनाने कपड़े बनाने वाले काम वाले लोग अपने-अपने कारखानों में बहुत तड़के अपने काम में लग जाते थे और सारा दिन काम में लगे रहते थे। वे शाम के करीब अपने अपने घरों को चले जाते थे।

छज्जे से ठीक पूर्व में नक्कारखाना था। एक सड़क उत्तर से दक्षिण को जाती थी। उसके बीच में पाने जाने से इस बड़े सहन के दो भाग बन गए थे। यह सड़क दक्षिण में ऐन सोध में किले के दिल्ली दरवाजे को बली गई थी और उत्तर की पोर मशहूर महताब बाग था। वहां से यह किले की उत्तरी फसल से जा मिली थी। यह सड़क सात सौ गज लम्बी थी। इसके दोनों पर मकान बने थे और सामने दुकाने थी। वास्तव में यह एक बाजार था जिससे गर्मियों और बरसात में बढ़ा माराम मिलता था क्योंकि सारा बाजार पहाता है, जिसमें हवा और रोशनी के लिए जगह- रोशनदान है।

नक्कारखाने से दीवाने आम को जाने का यह रास्ता था। दीवाने ए आम में उत्तर की तरफ शाही रसोईघर था और इससे आगे बढकर महताब तथा याता बाग थे। उनके सामने नहर दौड़ती थी, जी सीधी पूर्व की घोर साह बुर्ज को जाती थी और फिर आगे बढ़ कर किले की उत्तरी चारदीवारी से जी मिलती थी। इस हिस्से में शाही पुसाल थी। दीवाने ग्राम के दक्षिण में शाही महल और बड़े उमरायों के महलात का सिलसिला था, जो किले की दक्षिणी फसील पर जाकर खत्म होता था। इन दो सड़कों के अतिरिक्त किले में दाएं बाएं और बहुत से छोटे-बड़े रास्ते थे, जो राज्य अधिकारियों के मकानों को जाते थे । इन उमरायों की बारी हफ्तेवार घाती थी और वे चौबीस घंटे बराबर हाजिर रहते थे। इन उमराम्रों के मकान भी महल थे। हर एक अमीर इसी उधेड़- बुन में रहता था कि वह हर बात में दूसरे से बढ़-चढ़ कर रहे शाही महलात में अलहदा अलहदा खूबसूरत सजे-सजाएं कमरे थे, जो बहुत लम्बे-चौड़े और शानदार थे और हर एक वेगम की शान के योग्य थे।

हर कमरे के धागे होत और बहता पानी था और हर और बाग, साएदार वृक्ष, पानी की नालियां फव्वारे हुजरे और तहखाने थे, जिनमें गर्मी में धाराम मिल सके। दीवाने ग्राम के सहन के उत्तर-पूर्व के कोने में एक महराबदार फाटक था, जिसमें से एक ओर छोटे सहन में रास्ता निकलता था। इस सहन के महाते की पूर्वी दीवार में एक और दरवाजा दीवाने खास में जाने का था। इसी सहन के उत्तर में मोती मस्जिद, माही हम्माम और इसी पर कुछ यागे बढ़ कर हयात बाग, नाही बुर्ज और नहर भी। इसके आगे फिर इमारतों का तांता बराबर किले की उत्तरी दीवार तक चला गया था। दीवने खास के ऐन दक्षिण तथा पश्चिम में और दीवाने ग्राम से मिला हुआ इमतियाज महल और रंगमहल था किले की दीवार और उन दोनों महलों के महातों के बीच में जो जगह थी वह सारी शाही महलों में भरी पड़ी थी। उन्हीं इमारतों के एक कोने में असद बर्ज था। यह तमाम इमारते दरिया की ओर थी।

मोहम्मदशाह के दौरान अन्दर की इमारतों में बड़ा परिवर्तन हुआ। नादिरशाह के दिल्ली के कत्ले आम के बाद किले की बेनजीर इमारतें सराव और खस्ता हालत में हो गई। जो खाली जगह शाहजहां ने छोड़ दी थी, वहां भी बेकायदा मकान बना दिए गए और सब खूबसूरती नष्ट कर दी गई। लोग सारा काम खुरच कर ले गए और सारे कीमती पत्थर उताड़ कर ले गए। शाही इमारतें उपेक्षा के कारण बरवाद हो गई। उस शानो-शौकत का कही पता नहीं रहा, जो शाहजहां पौर औरंगजेब के जमाने में हुआ करती थी। 1857 ई० के गदर के बाद अंग्रेजों ने किले की इमारतों को तोड़-फोड़ कर अपनी जरूरत के अनुसार बना लिया । किले में अब जगह-जगह बैरके बन गईं और किले की काया ही पलट गई। सब कुछ बरबाद होकर अब चंद शाही इमारते देखने को बाकी बची है, जिनको नक्कार- खाने के दरवाजे से शुरू करके देखने जाते हैं।

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