1857 की क्रांति: पहली अप्रैल 1859 को एडवर्ड ओमैनी ने जफर और उनके खानदान से विदा ली और अपनी रेजिमेंट के साथ हिंदुस्तान वापस रवाना हुआ। उसके साथ जफर के चार और हिंदुस्तानी नौकर चले गए, जो वर्मा में अपने वतन को बहुत याद कर रहे थे और अपने परिवारों के पास हिंदुस्तान वापस जाना चाहते थे।

तीन हफ्ते बाद जफर भी छावनी से कुछ दूर श्वे डागोन पगोडा से आधे मील दूर स्थित अपने नए आवास में चले गए। जफर के नए जेलर कैप्टन नेलसन डेविस ने दर्ज किया-

“मकान मेन गार्ड से चंद गज के अंदर है। घर अन्य घरों की तरह जमीन से काफी ऊंचा उठा हुआ है। उसका घेराव सौ फुट है और उसके चारों तरफ दस फुट ऊंचा कटहरा लगा है। उसमें सोलह गुणा सोलह फुट के चार कमरे हैं, जिनमें से एक अपदस्थ बादशाह के लिए, दूसरा जवाबख्त और उसकी कमउम्र बीवी के लिए हैं और तीसरे पर बेगम जीनत महल ने कब्जा कर लिया है। हर कमरे के साथ गुसलखाना है। चौथा कमरा शाह अब्बास और उसकी मां के पास है।

“नौकर या तो बरामदे में पड़े रहते हैं या घर के नीचे रहते हैं जहां जगह को सूखा रखने के लिए रोड़ी बिछी हुई है। इस मक्सद को पूरा करने के लिए घर के चारों तरफ एक नाली भी है। नौकरों के इस्तेमाल के लिए दो गुसलखाने और एक खाना पकाने की जगह भी है।

“ऊपर की मंजिल में बरामदों में बांस की चिकें पड़ी हैं जहां बूढ़े और कमजोर बादशाह और उनके बेटे अक्सर बैठे रहते हैं, और चूंकि ऊपरी मंजिल की सतह कटहरे के बराबर है इसलिए वह समुद्र की हवा का और सामने के खुशगवार दृश्य का भी लुत्फ उठाते हैं। उनकी कैद की जिंदगी की एकरसता सामने चलते-फिरते लोगों और बंदरगाह पर जहाजों को देखकर कम हो जाती है और यह अपनी वर्तमान स्थिति के साथ तालमेल बिठाने में उनकी मदद करती है।”

डेविस ने आगे शाही खानदान के सुरक्षा प्रबंधों के बारे में लिखा, “आमतौर पर दो घुड़सवार पहरेदार दिन में और तीन रात में पहरे पर रहते हैं।” दिन में दो बार कैदियों के पास जाकर उनकी जांच की जाती है। जहां तक बादशाह और उनके खानदान के खाने-पीने के खर्च की बात है तो यह “हिंदुस्तान के मुकाबले यहां बहुत ज्यादा है यानी औसतन कोई ग्यारह रुपए रोजाना। और जैसे-जैसे चीजों की कीमतें बढ़ रही हैं, मुमकिन है खर्च इससे भी ज्यादा हो जाए। जबसे मैंने जिम्मेदारी संभाली है, उनको हर इतवार एक रुपया अतिरिक्त दिया जाता है,” डेविस ने दरियादिली से बयान किया। “और हर महीने की पहली तारीख को दो रुपए अतिरिक्त।”

“इससे हर छोटी-मोटी चीज के लिए मुझसे पूछने के बजाय वह अपनी जरूरत की कुछ चीजें खरीद सकते हैं। बेशक कलम, कागज, स्याही की सख्ती से मनाही है। मेरे जिम्मेदारी संभालने से पहले वह अपनी जरूरत की छोटी-मोटी चीजें और अपने सारे कपड़े वगैरा अपने पास से खरीदते थे, लेकिन अब वह कहते हैं कि उनके सारे पैसे खत्म हो जाते हैं लेकिन इस बयान में संदेह है। मैं रोज खुद मुआयना करके और पूछकर पक्का करता हूं कि उनको जो खाना मिलता है, वह पर्याप्त और अच्छा है। हाल में उनको कपड़े भी दिए गए हैं लेकिन उनके पुराने कपड़े बहुत खस्ताहाल हैं और जल्द ही मुझे उनके लिए और कपड़ों का इंतजाम करना पड़ेगा।

“कैदियों के लिए बिल्कुल निचले दर्जे का इंतजाम किया गया है, उनके पास सिर्फ एक चपरासी है, जिसका काम उनका रोजमर्रा का राशन खरीदना है और वह मेरे और उनके बीच एक खुफिया कड़ी भी है। जो आदमी आजकल यहां है वह वर्मा का ही है, मगर उसको इतनी हिंदुस्तानी आती है कि वह कैदियों से उनकी बाजार की जरूरतों के आदेश ले सकता है। उसकी तन्ख्वाह एक हिंदुस्तानी के मुकाबले कुछ ज़्यादा है, लेकिन मैंने सोचा कि जब इस तरह के निरंतर संपर्क की जरूरत है तो एक दूसरी नस्ल के आदमी को नौकर रखना ज़्यादा ठीक होगा।

“दूसरे नौकरों में सिर्फ एक भिश्ती, एक धोबी और एक मेहतर है। वह हिंदुस्तानी ही हैं, लेकिन वह सब मेरे मातहत हैं, और चूंकि मैंने उन्हें अपने अहाते में रहने की जगह दे रखी है जो कैदियों के घर के पास ही है, इसलिए वह पूरे वक्त मेरे क्रीब रहते हैं और मैं उन पर नज़र भी रख सकता हूं। बेशक आम लोगों को कैदियों से मिलने की इजाज़त नहीं है और नौकर भी अंदर सिर्फ मेरा दिया पास दिखाकर आ सकते हैं, जो रोज़ाना उन्हें दिया जाता है और जिसकी मेन गार्ड पर मौजूद अफसर जांच करता है फिर उनको अंदर जाने दिया जाता है। और ज़्यादा हिफाजत के लिए दस्तखत के अलावा यह पास हर बार नंबर से छपते और देखे जाते हैं।”

फिर डेविस जफर की सेहत के बारे में बयान करता है जो उसके ख्याल में “काफी अच्छी है… जबसे उन्हें पहले वाली बंद कोठरी की कैद से निकाला गया है, उनकी सेहत बहुत बेहतर हो गई है, हालांकि अब भी वह बहुत कमज़ोर हैं लेकिन उससे ज़्यादा नहीं जितना हिंदुस्तान के एक 86 साल के शख्स से उम्मीद की जा सकती है। जब उन्हें अपने ख्याल इकट्ठा करने का वक़्त मिलता है, तो उनकी याददाश्त अभी भी अच्छी होती है, लेकिन दांत गिर जाने की वजह से उनकी बोली बहुत साफ नहीं है। उनको देखने से यह नहीं लगता कि वह किसी अतिरिक्त मानसिक ऊर्जा या क्षमता के लायक हैं, लेकिन कुल मिलाकर वह अपनी उम्र का बोझ काफी अच्छी तरह उठा रहे हैं। उनके दिन लापरवाही भरी उदासीनता में गुजरते हैं और वह सभी चिरस्थायी मसलों के अलावा हर चीज़ की ओर से बेपरवाह हैं। बजाहिर उनकी यह हालत बहुत समय से है और शायद आने वाले वक्त में भी जारी रहेगी, जब तक कि अचानक किसी दिन उनकी ज़िंदगी की जद्दोजहद खत्म न हो जाए, जिससे किसी को भी ताज्जुब न होगा।” डेविस जीनत महल से नहीं मिल पाता था क्योंकि वह पर्दे में रहती थीं, लेकिन रिपोर्ट लेने के लिए वह अपनी पत्नी को भेजते थे। मिसेज डेविस, जो अक्सर दोनों बेगमों से मिलती थी, का कहना था कि

“वह अधेड़ उम्र की औरत हैं। उनकी सेहत बहुत अच्छी है। मैंने उनसे पर्दे के पीछे से कई बार बात की है। वह अक्सर तफ्सील से बगावत के जमाने में अपने द्वारा उत्तर-पूर्वी सूबों (आगरा) के लेफ्टिनेंट गवर्नर मिस्टर कॉल्विन को खत भेजने और उनसे अपनी मदद के लिए आने की गुजारिश करने के कदम के बारे में बताती हैं क्योंकि उनके मुताबिक उस वक्त शाही खानदान क्रांतिकारियों  के रहमो-करम पर था और वह हमेशा दावे के साथ कहती हैं कि वह लोग इतने बेबस थे कि उस बदनसीय यूरोपियन लड़की को भी न बचा पाए, जिसने उनके पास पनाह ली थी।

“वह अक्सर उस निजी खजाने, जवाहरात और जायदाद के छीने जाने का भी जिक्र करती हैं, जिनके लिए मेजर होडसन ने उन्हें वचन दिया था और उनकी जाती मिल्कियत और जायदाद की हिफाजत की जमानत का दस्तावेज भी दिया था। मुझे खुद इस बारे में ज़्यादा नहीं मालूम लेकिन मैं बेगम के बयान का जिक्र कर सकती हूं। वह कहती हैं कि मेजर होडसन की मृत्यु से पहले उनकी मिल्कियत को किसी ने नहीं हुआ था। उस वक़्त उनसे कहा गया कि उन्हें यह दस्तावेज वापस करना होगा, जो मेजर होडसन ने जमानत के तौर पर उन्हें दिया था। उसके बाद दिल्ली के कमिश्नर मिस्टर सॉन्डर्स ने उनकी सारी जायदाद जब्त कर ली, जो तकरीबन बीस लाख की थी और उस दस्तावेज को वापस करने से इंकार कर दिया।

मैंने उनको समझाना चाहा कि जब उनके शौहर पर बगावत का इल्जाम लगाया गया था, तो पूरे खानदान की जायदाद सरकार की हो गई कि इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि उनका आवास बादशाह से अलग था और वह एक अलग महल में रहती थीं। लेकिन वह यही समझती हैं कि उनकी जायदाद जब्त कर लेना कानून के खिलाफ है। बहरहाल मैंने उनको कोई उम्मीद नहीं दिलाई कि कभी उनको इतनी दौलत या दर्जा मिल सकेगा कि वह कोई शरारत कर सकें जिसकी उनमें काफी क्षमता है, अगर वह ऐसा कोई इरादा रखती हैं तो, क्योंकि औरत होते हुए भी अपनी बातों और बर्ताव से उनकी सोच काफी मर्दाना है। अपने जड़बुद्धि शौहर के मुकाबले ज़ीनत महल के पास क्रांतिकारियों  की साजिशों के बारे में कहने को बहुत कुछ है।”

(हालांकि सच इसका उलट है: ज़ीनत महल ने हमेशा क्रांतिकारियों  से दूरी बनाए रखी और निरंतर उनका विरोध करती रही थीं, खासतौर से इसलिए कि उत्तराधिकार में जवांबख़्त के प्रतिद्वंद्वियों ने जोशो-खरोश से उनका साथ दिया था)

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