1857 की क्रांति: सितंबर 1857 में दिल्ली में भीषण जंग हुआ। क्रांतिकारियों ने अंग्रेजी फौज के हौसले पस्त कर दिए। दिल्ली में ब्रिटिश हेडक्वार्टर बनी स्किनर की हवेली में भी जोश में बहुत कमी थी। वहां हेडक्वार्टर के कर्मचारियों पर हालात की मायूसी जाहिर होने लगी थी। फ्रेड रॉबर्ट्स ने अपने माता-पिता को लिखा थाः
“करीब बारह बजे मुझे चर्च में नाश्ता मिला, जिसके दौरान बराबर गोलियां आती रहीं। मेरे चारों तरफ इतने उदास चेहरे थे, जितने शायद मैंने जिंदगी में कभी नहीं देखें। हमारे हर दस्ते को वापस आना पड़ा। हमारे दस हज़ार गुणा बेहतरीन अफसर, बेचारे निकल्सन, को मैंने अभी डोली में देखा था, उनके चेहरे पर मौत लिखी थी। कोई भी कुछ करने के काबिल नहीं दिख रहा था। सारे पुराने अफ्सर भौंचक्के थे। और हालात बिगाड़ने के लिए जानकर या अनजाने में सारी बीयर और ब्रांडी की दुकानें खुली छोड़ दी गई थीं और हमारे अनेक जवान नशे में मदहोश हो गए थे, बाकी लोग अपनी रेजिमेंट ही नहीं ढूंढ़ पा रहे थे, और पिछले पांच-छह दिन की मेहनत से सब बेहद थके हुए थे…
“मैं भी सो गया और इतने शोर-गुल के बावजूद सूरज डूबने तक नहीं उठा… फिर मैं अपनी स्थिति का जायजा लेने गया। सब कुछ बिल्कुल बेतरतीब था। खाने का कोई सामान शहर में नहीं आ सका था। खानसामे भी अंदर आने के लिए तैयार नहीं थे क्योंकि हर तरफ से गोलियां चल रही थीं। यूरोपियन नशे में धुत्त थे और देसी लोग बाहर लूटमार कर रहे थे।
फौज का अनुशासन और मनोबल जिस तेजी से गिरा था, उसे देखकर होडसन दंग रह गया। उसने अपनी पत्नी को लिखाः “ज़िंदगी में पहली बार मैंने अंग्रेज सिपाहियों को बार-बार अपने अफसरों का हुक्म मानने से इंकार करते देखा है। असल में सारे फौजी इतनी मेहनत और इतनी ज़्यादा शराब की वजह से अपनी हिम्मत बिल्कुल खो बैठे हैं।” इससे भी बुरा यह था कि जनरल विल्सन का अपने हमले पर से भरोसा बिल्कुल उठ गया था और वह वाकई पीछे हटने की सोच रहा था। होडसन ने लिखा, “विल्सन थकान और चिंता से बिल्कुल टूट गया है, वह तो अपनी टांगों पर खड़ा भी नहीं हो पा रहा।” दोपहर तक और घबराने वाली खबरें आईंः मेजर रीड के नेतृत्व में चौथे दस्ता न सिर्फ लाहौरी दरवाज़े पर कब्ज़ा नहीं कर पाया था बल्कि जब उसके साथ शामिल महाराजा कश्मीर का दस्ता भाग गया, तो बख्त खां और उसकी बरेली की फौज के ज़बर्दस्त जवाबी हमले की वजह से उसे बाड़ा हिंदू राव लौटना पड़ा।
बख्त खां के साथ “बरेली और नीमच कैंप के बहुत से बागी भी थे। और उसी ब्रिगेड के एक दूसरे खंड ने सूरज डूबने के वक़्त “बड़ी तादाद में” मोरी बुर्ज की दीवारों के अंदर एक और जबर्दस्त जवाबी हमला किया, और वह रात में भी परेशान करते रहे।
केंडल कॉगहिल उन फौजियों में था जो मोरी बुर्ज और काबुली दरवाज़े के बीच इस उत्तर-पश्चमी मोर्चे पर फंस गए थे, और उसने खासकर क्रांतिकारियों -“शैतानी और कट्टर मजहबी कौम” को भयंकर दुश्मन पाया। अपने बहुत से साथियों की तरह यह जानकर उसे बहुत हैरानी थी कि उसकी अब तक की बहादुरी और खूनी इंतकाम की ख्वाहिश की जगह अब गहरे डर ने ले ली थीः “देसी लोग हर जगह के एक-एक इंच की हिफाजत कर रहे थे।” उसने लिखाः
“यह एक बहुत मुश्किल लड़ाई थी और अपनी बंदूकों के साथ हमारे कुछ बचे सिपाहियों के मुकाबले उनके पास बहुत ज़्यादा तादाद में सिपाही और मैदानी तोपें थीं। लेकिन चूंकि हमें काबुली दरवाजे पर कब्जा करने का स्पष्ट आदेश था, इसलिए कोई चारा नहीं था। सिपाही और अफसर दोनों थकान से बेहाल थे, जोश खत्म हो चुका था। हमें हुक्म था कि आखिर तक सारे दरवाजों पर कब्जा रखें, इसलिए हर दरवाजे और बुर्ज पर हमें कुछ सिपाही छोड़ने पड़े, और इस तरह काबुली दरवाज़े पर हमारे पास सिर्फ दो सौ आदमी रह गए थे। दुश्मन लगातार करीब तीन हज़ार लोगों और दो हल्की तोपों के साथ हम पर हमला कर रहा था।
अगर हम उन पर हमला करते तो न सिर्फ वह हम सबको गिरफ्तार कर लेते बल्कि दरवाजे पर भी फिर से कब्जा कर लेते। इसलिए हमको जमीन पर बिल्कुल चित लेटना पड़ा और उनकी बंदूकों की गोलियां हमारे ऊपर से गुजरती रहीं, और फिर जब वह हमारे नजदीक आए, तो हमारी संगीनें काम आई। यह सिलसिला सुबह नौ बजे से शाम के चार बजे तक चलता रहा। हम पर दूर से गोलियां चल रही थीं और हमें न जवाबी हमला करने की उम्मीद थी और न ही किसी मदद की, और हमें यह भी मालूम नहीं था कि हमारे पीछे या बाईं ओर क्या हो रहा है क्योंकि हम एकदम दाईं तरफ ये… हमने सारे दिन कुछ खाया-पिया नहीं था और थकान से बेहाल हो गए थे। मेरी इकलौती तसल्ली मेरे कंधे पर लटकी हल्की ब्रांडी और पानी से भरी एक सोडे की बोतल थी, लेकिन अब उसमें भी गोली लग चुकी थी और सारी शराब बह गई थी। हम पूरी रात हथियारों के साये में रहे, क्योंकि वह रात भर हम पर हमला करते रहे थे।