1857 की क्रांति: क्रांति के बाद मिर्जा गालिब उन बहुत कम उन लोगों में शामिल थे, जो शहर में रह गए थे। उनकी किस्मत अच्छी थी कि वह बच गए। जबकि उनके बहुत से दोस्त और संरक्षक मारे गए थे या शहर से निकाल दिए गए थे। उनके मुहल्ले बल्ली मारान में हकीम और अंग्रेजों के वफादार महाराजा पटियाला के दरबारी रहते थे।

महाराजा ने अंग्रेजों को रिज पर काफी मदद और सिपाही भेजे थे और जिन्होंने अब मुहल्ले पर पहरेदार लगाने की व्यवस्था की थी ताकि लूटमार करने वाले वहां हमला न करें। महाराजा के पहरेदारों की वजह से गालिब शायद शहर के अकेले संभ्रांत दरबारी थे, जिनके घर पर हमला नहीं हुआ और जिनकी जायदाद सुरक्षित रही। फिर भी, यह बड़ी मुसीबत का वक्त था।

गालिब ने दस्तंबू में लिखा है कि किस तरह उन्होंने और उनके पड़ोसियों ने मुहल्ले के दरवाजे बंद करके उनके आगे पत्थरों के ढेर लगा दिए थे ताकि वह अपनी मोर्चाबंदी कर सकें। उनके चारों तरफ कल्ले-आम और गिरफ्तारियों के नतीजे में उनके बीसियों दोस्त या तो मार डाले गए थे या फिर कैद कर लिए गए थे।

इस मोर्चाबंदी के दौरान गालिब और उनके पड़ोसी बहुत परेशान हाल में थे और उम्मीद कर रहे थे कि थोड़ा बहुत खाना और पानी जो उनके पास है वह शांति कायम होने तक चल जाएगा। अपनी डायरी में वह अपनी परेशानी बयान करते हैं कि वह किस तरह ज़िंदा रह सके, जब उनके चारों तरफ उनका शहर बिल्कुल बर्बाद हो गया थाः

“न अब कोई सौदागर है न खरीदार, न कोई गेहूं वाला जिससे आटा खरीद सकें, और न कोई धोबी है जिसे अपने मैले कपड़े दे सकें। बाल तराशने को कोई नाई नहीं है और न ही फर्श की सफाई के लिए कोई मेहतर। पानी या आटे के लिए गली से निकल पाना नामुमकिन था। धीरे-धीरे, खाने-पीने का जो सामान हमारे घरों में था, वह खत्म होता जा रहा था। हमने पानी के इस्तेमाल में बड़ी किफायत की थी, लेकिन अब घड़ों और कटोरों में एक बूंद पानी भी नहीं बचा और हम रात-दिन भूखे-प्यासे रहते।

बाहर कत्ले-आम जारी था और सड़कें भयानक मंजरों से भरी पड़ी थीं… हम कैदियों की तरह हैं, न कोई हमसे मिलने आ सकता है और न हमें किसी की खबर मिलती है। हम अपनी गली से बाहर नहीं जा सकते, इसलिए अपनी आंखों से कुछ देख भी नहीं सकते कि क्या हो रहा है। फिर एक दिन बादल आए और बारिश हुई।

हमने फौरन अपने सेहन में एक चादर बांध दी और उसके नीचे घड़े रखकर कुछ पानी इकट्ठा किया… लेकिन दोनों (गोद लिए) बच्चे जिनको मैंने इतने नाजों से पाला है, मुझसे फल, दूध और मिठाई मांगते हैं, और मैं उनकी यह ख़्वाहिश पूरी नहीं कर सकता।” ग़ालिब की दूसरी परेशानी उनके मानसिक रोगी भाई की तरफ से थी।

वह उन तक जा नहीं सकते थे। और फिर उन्होंने सुना कि उनके भाई का घर लूट लिया गया था। उसके बाद और भी बुरी खबर यह आई कि उनके भाई बाहर सड़क पर भाग आए थे और हिंसक अंग्रेज सिपाहियों ने उन्हें गोली मार दी। ऊपर से, मुसीबत यह कि शहर से बाहर जाकर उन्हें दफ्न करना नामुमकिन था, न ही पानी उपलब्ध था कि उन्हें नहला सकें और न ही उन्हें पहनाने के लिए कफन था।

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