ब्रितानिया आदेश के बावजूद समुद्र पार क्यों नहीं करना चाहते थे भारतीय जवान

1857 की क्रांति: नेटिव इंफैंट्री का पुराना तजुर्बेकार अफसर कैप्टन राबर्ट टाइटलर ब्रितानिया हुकूमत में शामिल भारतीय जवानों से हमदर्दी रखता था। 1857 की क्रांति से काफी पहले दूसरी ऐंग्लो-बर्मा जंग के ज़माने में टाइटलर की रेजिमेंट को डल्हौजी ने समुद्र पार रंगून जाने का हुक्म दिया था। टाइटलर की बीबी हैरियट का कहना था कि डल्हौजी बहुत जिद्दी स्कॉट था। जिसने समुद्र पार कर रंगून जाने का आदेश दिया था।

टाइटलर के लिए यह मसला अपने सिपाहियों के सामने रखना बहुत तकलीफदेह था, क्योंकि वह अवध के बहुत ऊंची जात वाले लोग थे और उनको समुद्र पार बर्मा जाने के लिए कहने से बगावत का डर था। हैरियट का कहना था कि “उनको सिपाहियों से पूछना चाहिए था कि कौन जाने के लिए तैयार है। मेरे पति ने भी कहा कि मैं जानता हूं कि हुक्म दिए जाने पर मेरे सिपाही कभी नहीं जाएंगे। लेकिन अगर हुकूमत उनसे उनकी मर्जी पूछेगी कि कौन जाने पर तैयार है तो हर आदमी मान जाएगा।”

लेकिन टाइटलर के इस सुझाव को नज़रअंदाज़ कर दिया गया और समुद्र के सफर का हुक्म दे दिया गया। सिपाहियों का जवाब था कि वह जाएंगे लेकिन समुद्र के रास्ते से नहीं। उनको सजा देने के लिए डल्हौजी ने पूरी रेज़िमेंट को पैदल मार्च करने का हुक्म दिया, लेकिन रंगून के बजाय ढाका जाने के लिए जो सेहत के लिए सबसे ज़्यादा नुकसानदेह स्थान माना जाता था। पांच महीने के अंदर पूरी रेजिमेंट में सिर्फ तीन आदमियों के अलावा बाकी सब मर चुके थे या अस्पताल में थे। हैरियट का कहना था, “यह बहुत बेरहमी की बात थी और ईसाई धर्म के खिलाफ कि उन बेचारे लोगों को जो अपने धर्म का पालन कर रहे थे, इस तरह किसी ऐसी जगह भेजा जाए जहां वह कुत्ते की मौत मरें।

अपने सिपाहियों की धार्मिक भावनाओं को समझते और उनसे हमददी रखते हुए टाइटलर बहुत परेशान था, जब उसके सिपाहियों तक नई एंफील्ड राइफल के बारे में अफवाहें पहुंचना शुरू हुई और उन्होंने इसके बारे में सच्चाई मालूम करना चाही। 1857 के शुरू तक दिल्ली छावनी में स्थित सिपाहियों तक यह राइफलें नहीं पहुंची थीं। लेकिन जल्द ही हुक्म आया कि दिल्ली की दोनों रेजिमेंटों की दो-दो टुकड़ियां अंबाला नई राइफल इस्तेमाल करना सीखने के लिए भेजी जाएं। हैरियट ने लिखा है कि “हमारे सिपाहियों ने वहां तक मार्च किया और हालांकि दिल्ली से चलने से पहले कुछ लोग विरोध कर रहे थे, लेकिन अफ़सरों को उम्मीद थी कि वह राजी हो जाएंगे जब वह यह देखेंगे कि हमारी यह ख़्वाहिश बिल्कुल नहीं है कि हम उनकी जात बिगाड़ें या उनको ईसाई बनने पर मजबूर करें।” लेकिन यह उम्मीद जल्द ही ख़त्म हो गई।

‘अम्बाला से ब्रिगेडियर के पास ख़बरें आती रहीं कि सिपाही एंफील्ड राइफल और उसकी चिकनाई लगी गोलियों के इस्तेमाल से बहुत नाखुश हैं। और मेरे पति अक्सर मुझसे कहते थे कि अगर यहां के लोग बगावत कर बैठे तो हिंदुस्तान हमारे हाथ से निकल जाएगा। जैसे-जैसे दिन गुज़रते गए वह और भी ज़्यादा परेशान होते रहे। हर तरफ नाखुशी और नाराज़गी के संकेत स्पष्ट थे।”

और यह सब रोज़ बरोज़ और भी ज़्यादा नज़र आने लगे और बढ़ने लगे। 29 मार्च को बंगाल में बैरकपुर के एक सिपाही मंगल पांडे ने अपने साथियों को बगावत करने के लिए ललकारा। और दो अफसरों को गोली मारकर ज़ख़्मी कर दिया। उस पर फ़ौरन मुकद्दमा चला और उसको फांसी दे दी गई। उधर अम्बाला में चंद अंग्रेज़ अफसरों ने बहुत ज़ोर देकर दर्खास्त की कि नई राइफल को वापस ले लिया जाए। लेकिन जो कमांडर इन चीफ जनरल जॉर्ज ऐंसन ने इसे नामंजूर कर दिया। वह खुद एक जुआ खेलने वाला अफसर था जो यूरोप का बेहतरीन ताश का खिलाड़ी माना जाता था और जिसने 1842 में डरबी रेस एक ऐसे घोड़े से जीती थी, जिसे उसने सिर्फ 120 पाउंड में ख़रीदा था।

लेकिन उसे अपने सिपाहियों की उतनी पहचान नहीं थी जितनी घोड़ों की। जब उसको बताया गया कि सिपाही बगावत पर उतर आए हैं तो उसका कहना था, “मैं कभी उनके फिजूल पक्षपातों को नहीं मानूंगा।”” और उसका नतीजा यह हुआ कि उस शाम से लेकर मई तक अम्बाला छावनी में छिप-छिपकर हमले होते रहे और अगर कोई सिपाही भी कारतूस को मुंह से काटता तो उसके साथी उसे जात से खारिज कर देते और ईसाई होने का ताना देते । अस्लहाखाने का कमांडर कैप्टन मार्टिनो लिखता है: “लोगों के जज्बात इतने भड़के हुए हैं कि मैं कुछ भी इलाज नहीं सोच सकता। मैं जानता हूं कि इस वक़्त पूरी हिंदुस्तानी फौज में एक असामान्य हलचल मची हुई है, लेकिन इसका क्या नतीजा होगा, यह सोचने से ही डर रहा हूं। मुझे तूफान के आने के आसार नज़र आ रहे हैं और मैं तेज़ आंधियों की आमद सुन सकता हूं लेकिन यह तूफ़ान कब और कहां फट पड़ेगा यह मैं नहीं कह सकता। शायद यह लोग खुद भी नहीं जानते कि यह क्या करें और न ही इनके ज़हन में कोई ख़ास योजना है सिवाय अपने धर्म और जात पर हमले का मुकाबला करने के।

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