1857 की क्रांति : 1857 की क्रांति में सब अफरा-तफरी और अराजकता की स्थिति में मुगल दरबार ने बावजूद अपनी सारी कमज़ोरी के एक केंद्रीय और राजनीतिक महत्व प्राप्त कर लिया, जो उसे पिछले सौ साल से हासिल नहीं था।
किले में दरबारे-आम फिर से रोज़ाना शुरू कर दिया गया, जो तब से बंद था, जब 1739 में ईरानियों ने शहर को लूटा था और अब बादशाह बहादुरशाह द्वितीय को फिर से शहंशाहे आजम, शाहों के शाह, सुल्तान इब्ने सुल्तान, बादशाह इब्ने बादशाह का ख़िताब देकर सारे हिंदुस्तान का शासक मान लिया गया था।
सादिकुल अख़बार ने लिखा था कि “हम बहुत विनम्रता से ख़ुदा के आभारी हैं और उसका शुक्रिया बजा लाते हैं कि उसने ईसाइयों की अत्याचारी हुकूमत का खात्मा करके फिर से उनकी जगह खलीफतुज़्ज़मां, साया-ए-खुदावंदी और नुमाइंदा-ए-रसूल को फिर से सल्तनत बख़्शी ।”” लेकिन इस सब लफ्फाजी के बावजूद अंदरूनी तौर पर शाही खानदान बिल्कुल बटा हुआ था और आपस में सख्त मुकाबला था।