1857 की क्रांति: दूसरे दल का नेतृत्व थियो कर रहा था। जिसमें ज्यादातर गोरखा सिपाही थे। वह उन्हें पीछे की गलियों से निकालता जामा मस्जिद की तरफ जा रहा था। तीसरे दस्ते ने दक्षिण-पूर्वी ओर से दिल्ली कॉलेज से गुजरते हुए लाल किले का रुख किया था। फौज के दस्ते आगे बढ़े तो जनरल विल्सन भी लूडलो कासल से बाहर निकला, जिसकी छत से उसने हमले की सारी कार्रवाई देखी थी। स्किनर की जली हुई हवेली में उसने अपना हेडक्वार्टर बना लिया। पास ही सेंट जेम्स चर्च में एक कैंटीन और जंगी अस्पताल भी बनाया गया।

उसी वक्त–सुबह सात बजे के बाद-अचानक अंग्रेजों के लिए हालात एकदम खराब होना शुरू हो गए। उन्होंने सोचा था कि चारदीवारी के अंदर घुसना ही हमले का सबसे मुश्किल काम होगा, और अपेक्षाकृत बहुत कम नुक्सान के साथ और वक़्त से पहले ही यह काम कर लिया गया था। लेकिन दूसरा चरण यानी शहर की सड़कों पर आगे बढ़ना कहीं ज़्यादा मुश्किल और महंगा साबित हो रहा था। उम्मीद यह थी कि यह पता लगने पर कि अंग्रेज़ किले की तरफ बढ़ रहे हैं क्रांतिकारियों  की हिम्मत टूट जाएगी और वह देर-सवेर पलटकर भाग खड़े होंगे। न सिर्फ ऐसा नहीं हुआ, बल्कि क्रांतिकारियों  ने जवाबी हमला किया और इतना हैरतअंगेज मुकाबला किया कि वह अंग्रेजों को शहर से निकालने और वापस रिज की ओर धकेलने में तकरीबन कामयाब भी हो गए। बख्त खां और मिर्जा मुगल ने अच्छी तैयारी की थी।

फ्रेंड रॉबर्ट्स सारगर्भित ढंग से लिखता है, “इस बार, हमने बुरी तरह मात खाई।” चार्ल्स ग्रिफिथ्स उस दस्ते के साथ था, जो दक्षिण में किले की तरफ जा रहा था। दस्ते ने आहिस्ता आहिस्ता दिल्ली कॉलेज के लुटे-पिटे बाग से बढ़ना शुरू ही किया था कि वह सीधे दुश्मन की घात में पहुंच गए।

“अचानक इमारतों के हर दरवाजे, खिड़कियों और झरोखों और घरों की छतों से हम पर हर तरफ से गोलियों की बौछार शुरू हो गई, और जब-तब नुक्कड़ों से गुजरते वक्त  गोलों से भरी छोटी तोपें अपना तमाम असलहा हम पर खाली कर देतीं। अफ्सर और सिपाही धड़ाधड़ गिर रहे थे। लेकिन इससे बाकी के सिपाही बुरी तरह भड़क गए… उन्होंने चंद आमने-सामने की मुठभेड़ों के बाद घरों और बागों को क्रांतिकारियों  से खाली कर दिया, और वहां जो मिला उसे संगीनों से मार डाला।”

फिर भी अंग्रेजों का इतना ज्यादा नुकसान हुआ कि उन्होंने आगे बढ़ने का इरादा छोड़ दिया और अपना मोर्चा बनाने के लिए कॉलेज की ही किलेबंदी करने लगे।

थियो का दस्ता शहर के काफी अंदर पहुंच गया था। वहां उन्हें क्रांतिकारियों  ने घेर लिया। थियो बहुत सावधानी से पिछली गलियों से होता हुआ आगे बढ़ रहा था, कहीं-कहीं उसके कुछ जवान इत्तफाकिया गोली या छरों का निशाना बन जाते थे। सड़कें तकरीबन खाली थीं और शुरू में आश्चर्यजनक ढंग से उन्हें कोई खास रुकावट नहीं मिली। वह हिचकिचाते हुए चांदनी चौक से गुजरे और दहशत भरे सन्नाटे में जामा मस्जिद के उत्तरी दरवाज़े तक पहुंच गए।

उन्हें यह ख्याल आया ही था कि वह मस्जिद के दरवाज़े को उड़ाने के लिए बारूद नहीं लाए थे कि एकदम खामोशी से दरवाज़ा आहिस्ता-आहिस्ता खुद-बखुद खुल गया और अंदर मौजूद क्रांतिकारियों  का हुजूम चिल्लाते हुए सीढ़ियों से उतरने लगा। सईद मुबारक शाह के मुताबिक, जिहादी “अंग्रेजों पर टूट पड़े जो इतनी तादाद से घबराकर अपनी दो तोपें और चालीस सिपाही खोकर पीछे भागने लगे। “13 अंग्रेज़ चांदनी चौक की तरफ हट ही रहे थे कि क्रांतिकारियों  को लाहौरी दरवाज़े से लाई हुई एक जंगी तोप से और मदद मिल गई, जिसने बाजार की पूरी लंबाई में गोलाबारी की और एक गोला सीधे “अंग्रेज़ दस्ते के बीचोंबीच फेंककर पचास से ज़्यादा लोगों को जख्मी और मुर्दा कर दिया।

थियो के बचे-खुचे सिपाही आधे घंटे तक चांदनी चौक में रुके रहे और क्रांतिकारियों  के कुल्हाड़ों और तलवारों के वार से बचने की कोशिश करते रहे। वह उम्मीद कर रहे थे कि ग्रिफिथ्स का दस्ता, जो यहां उनसे मिलने वाला था, उनकी मदद को आ जाएगा। लेकिन जब तीस मिनट गुजर गए और यह स्पष्ट हो गया कि वह भी किसी मुसीबत में फंस गया है, तो उन्हें कश्मीरी गेट लौटने का हुक्म दे दिया गया।

इधर यह सब हो रहा था, और उधर शहर की दीवार के ऊपर निकल्सन के दस्ते को भी बहुत मुश्किलों का सामना करना पड़ा। कश्मीरी गेट पर हमले के वक़्त दस्ता तितर-बितर हो गया था और जब वह उसके बगैर दीवार के साथ-साथ आगे बढ़ते रहे, तो निकल्सन ने अपने ज्यादातर सिपाहियों को गंवा दिया था। उनमें रिचर्ड बार्टर भी था। वह बहुत एहतियात से दीवार के निचले हिस्से में एक मेहराब से दूसरी में दौड़ता चलता गया। “सड़क पर भागते हुए हम जब भी देखते थे कि तोपों में आग लगाई जा रही है, तो हम फौरन मेहराबों में छिप जाते। जब बारूद का गुबार साफ हो जाता और इससे पहले कि उनको फिर से भरा जाता, हम जल्दी से और संगीनों से तोपचियों को धर लेते और गोली मार देते।” अक्सर बार्टर का दल उन घरों पर हमला करने के लिए रुक जाता, जिनमें बागी सिपाही होते थे और उनको अचानक घेरकर मार डालता, और वह फिर से उसी तरह दीवार के साथ-साथ निचले हिस्से में चलता जाता।”

कुछ लोगों का खतरे की तरफ से काफी बेपरवाह रवैया था। लेफ्टिनेंट आर्थर मोफाट लैंग ने अपनी डायरी में लिखा है, “हम चिल्लाते और नारे लगाते हुए मुंडेर पर आगे बढ़ते गए जबकि हर मोड़ और हमारे बाईं तरफ की हर गली, प्राचीर और घरों की छतों से गोलियां बरस रही थीं, जिससे हमारे सिपाही और अफ्सर लगातार मर रहे थे। उस वक़्त हम पर पागलपन भरा जोश था और मेरे मन में आगे बढ़ने के अलावा और कोई भावना नहीं थी। मेरे दिमाग में सिर्फ यह ख्याल था कि मैं कितनी देर बगैर गोली खाए चल सकता हूं जबकि सारी फिजा में गोलियों की भरमार थी… हम एक के बाद एक मीनार पर, और एक के बाद एक तोपों पर कब्ज़ा करते गए, और कहीं नहीं रुके… हमने काबुली दरवाज़ा पार किया और आगे बढ़ते गए जब तक कि लाहौरी दरवाज़े के करीब नहीं पहुंच गए। वहां एक छोटी सी रुकावट सड़कबंदी की मिली, जिसके पीछे से एक तोप गोले बरसा रही थी।

ब्रिगेडियर जोंस आगे आया और उसने इंजीनियर अफसर को बुलाकर पूछा कि काबुली दरवाज़ा कहां है. … ‘बहुत पीछे रह गया,’ मैंने कहा। ‘अब तो हम लाहौरी दरवाज़े के पास हैं।’ मगर अफ़सोस उसने कहा कि उसे तो काबुली दरवाज़े पर रुकने का हुक्म था… “जब तक हम नारे लगाते और बगैर रुके आगे बढ़ते गए, सब ठीक था। लेकिन उस रुकावट की वजह से गड़बड़ हो गई। कोनों और प्राचीर की मेहराबों में छिपे हमारे सिपाहियों में धीरे-धीरे दहशत फैल गई। एक-एक करके वह वापस जाने लगे। हमने उन्हें रोका और कोई आधा घंटे उनके भागने को रोके रहे। लेकिन आखिरकार वह सब बाहर निकल आए और अफसरों को पीछे धकेलकर काबुली दरवाज़े की तरफ भाग गए।

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