1857 की क्रांति: अंग्रेजी सरकार ने बहादुर शाह जफर पर मुकदमा चलाया। उनके ऊपर अभियोग लगाने के लिए तीसरी कैवेलरी के मेजर जेएफ हैरियट को जज एडवोकेट जनरल नियुक्त किया गया। जैसे-जैसे एक के बाद एक गवाह आते गए, यह और भी ज़्यादा साफ होता गया कि बहादुर शाह जफर को समन्वित बगावत की किसी योजना के बारे में विल्कुल पता नहीं, और उन्होंने इस पूरे अर्से में दिल्ली की रिआया की सुरक्षा करने की कोशिश के अलावा कोई अपराध नहीं किया था। उस अदालत में एक और दर्शक मिसेज म्यूटर ने भी लिखा है,

“मैंने जो कुछ सुना उससे मुझे लगता है कि जफर ने कानपुर के कल्ले-आम की कड़ी निंदा की थी, और इसके बहुत सुबूत मौजूद हैं कि उन्होंने दिल्ली के शहरियों को भी सिपाहियों के जुल्म से बचाने और रईसों और अमीरों की बेइजजती करने और देश के लोगों को गूजरों की लूटमार से बचाने की बहुत कोशिश की थी।

यह जाहिर था कि बेचारे बूढ़े बादशाह गदर के तूफान में घिरकर कितने परेशान थे क्योंकि न तो उनमें उस पर काबू पाने की हिम्मत थी और न ही ऐसी मजबूत इच्छा शक्ति कि अपने आसपास के दर्दनाक हादसों को रोक सकें। बहुत सी अर्जियों का अनुवाद किया गया, जिन पर बादशाह की राय लिखी थी। उनमें से ज़्यादातर जो उन्होंने लिखा सही और अच्छा था। सिपाहियों की गुस्ताखियों के बारे में उनकी शिकायतें बहुत कड़वी थीं… उनकी शैया पर जो कांटे बिछाये गए थे वह उनके लिए कितने तकलीफदेह थे। उनकी हैसियत सिर्फ कठपुतली की थी…

“मैं नहीं समझती कि तैमूर घराने के आखरी वारिस के साथ बर्ताव में हमारे मुल्क ने अपनी सामान्य उदारता दिखाई। हमें हमेशा याद रखना चाहिए कि यह हमारी फौज थी, जिसने मुल्क में आग लगाई और हमारी बुजदिली से यह सारी मुसीबत खड़ी हुई। हमारे पास यह कहने का बहाना तक नहीं है कि हम कह सकें कि यह बगावत अनपेक्षित थी।

“बादशाह पर जो भी गरीबी और नफरत लादी गई थी, उस सबके बीच मुझे यह देखकर खुशी हुई कि वहां बुलाए गए बहुत से गवाहों का रवैया बादशाह के साथ बहुत इज़्ज़त का था। वह उनके सामने हाथ जोड़कर ज़मीन पर झुकते और पलंग पर पड़ी उस दयनीय आकृति को ‘शहंशाहे-आलम’ कहकर खिताब करते। हालांकि कमेटी उनको ‘तुम’ कहकर मुखातिब करती रही। उन्होंने इस बेबस शख्स के साथ इज़्ज़त का सुलूक किया, जो उन्होंने अदालत से नहीं किया, जोकि सिर्फ सिर हिलाकर ही उन्हें सजा-ए-मौत सुना सकती थी।

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