विद्रोही लाल किले में मौजूद थे। सबकी निगाहें बहादुर शाह जफर पर टिकीं थी, कि वो क्या निर्णय लेते हैं। लेकिन उस वक्त जब ज़फ़र को अपनी ज़िंदगी का सबसे अहम फैसला करना था और जब दिल्ली के सब अमीर और संभ्रांत लोग उन बागी सिपाहियों और उनकी लूटमार के खिलाफ एक थे, तो जफर ने एक बिल्कुल अप्रत्याशित रूप से निर्णयात्मक विकल्प चुना।
उन्होंने बागियों को अपना संरक्षण दे दिया। इसकी वजह समझ में आ सकती है। हथियारबंद और गुस्से में भरे सिपाही उनके चारों ओर इकट्ठे थे, ऐसे में उनके पास और क्या चारा था? उसके अलावा साइमन फ्रेज़र और लॉर्ड केनिंग की मेहरबानी से उनके पास रह ही क्या गया था? इसलिए इसके बावजूद कि उनको सिपाहियों पर बहुत गुस्सा, चिढ़ और ख़ौफ़ था फिर भी उन्होंने यह अहम फैसला किया, जिसने ना सिर्फ उनकी नस्ल की बल्कि उनके शहर दिल्ली की भी तकदीर बदल दी, और दोनों को बगावत से जोड़ दियाः
“इसके बाद बादशाह एक कुर्सी पर बैठ गए और सब सिपाही और उनके अफसर एक-एक करके उनके सामने आते गए और अपना सर झुकाते गए, ताकि वह उनके सिर पर अपना हाथ रख दें। बादशाह ने ऐसा ही किया और फिर वह सब वहां से चले गए और अपने घोड़े सहन में बांधकर कुछ किले के कमरों में और कुछ पुल के दूसरी तरफ़ पुरानी मुग्लिया गढ़ी सलीमपुर में चले गए और कुछ ने अपना बिस्तर दीवाने – आम में ही लगा लिया और किले के चारों तरफ पहरे लगा दिए गएऔर इसी अहम मौके पर जब बादशाह ने सबके सामने अनमने ढंग से और अपनी मर्ज़ी के खिलाफ उन बागियों को संरक्षण देने का वादा किया था और वह किले के अंदर विभिन्न जगहों में फैल गए थे, अचानक एक बहुत ज़बर्दस्त धमाके की आवाज़ आई जिससे पूरा शहर और किला हिल गया। उसकी आवाज़ बीस मील दूर तक सुनी जा सकती थी। शहर की सारी इमारतें हिल गईं और किले में कई कमरों के प्लास्तर की छतें ढह गईं।
लाल किले से आधा मील दूर थियो के दोस्त विलियम विलोबी ने सिपाहियों से घिरने पर अपना पूरा अस्लहाखाना, जो पूरे उत्तरी भारत में हथियारों, तोपों और बंदूकों का सबसे बड़ा गोदाम था, उसको बारूद से उड़ा दिया और उसके साथ बहुत से जिहादी, बाग़ी और सिपाहियों को भी, जो उस पर हमला कर रहे थे और उन सारे अंग्रेज़ों को भी जो उसकी सुरक्षा कर रहे थे।
दूर उत्तर की तरफ, मैटकाफ हाउस से आगे, कैप्टन रॉबर्ट टाइटलर मई का ज़्यादातर दिन अपने साथियों और हमवतनों की तक़दीर से और किले में होती हुई सियासी बगावत से बेखबर गुज़ारा।
उसे दो सौ सिपाहियों के साथ नए बारूदखाने की सुरक्षा करने भेजा गया था। यह यमुना के घाट पर छावनी के पास एक बड़ी सी फ़ौजी इमारत में था जिसे व्हाइट हाउस कहा जाता था। उसे अंदेशा तो था कि हालात बिगड़ रहे हैं लेकिन किस हद तक वह दिल्ली में और उसके इर्द-गिर्द ब्रिटिश हुकूमत का खात्मा कर रहे थे, इसका उसे बिल्कुल इल्म नहीं था ।
उसे यह मालूम था कि उसके सिपाहियों ने अपने मेरठ के साथियों के साथ पूरी हमदर्दी का इज़हार किया था, जब परेड के मैदान में उनके सामने उन लोगों की सज़ा के बारे में बताया गया था। वह यह भी जानता था कि वह सब यह सुनकर बहुत जोश में थे कि मेरठ से सिपाही दिल्ली आ गए हैं और जब उनको मार्च के लिए तैयार होने को कहा गया तो वह कुछ शोरो-गुल मचा रहे थे और जब उनको हथियार दिए जा रहे थे तो कुछ सिपाहियों ने उससे ज़्यादा हथियार उठा लिए थे जितने उन्हें आवंटित थे। उसने उनके नाम याद कर लिए ताकि बाद उनको मुनासिब सज़ा दी जाए। लेकिन उस वक्त वह इतनी दूर और अकेला था कि उस तक कोई ख़बर नहीं पहुंची कि शहर में क्या हो रहा है। लेकिन नदी के दूसरी तरफ उसको कुछ धुआं उठता नज़र आ रहा था और कभी-कभी तोप या बंदूकों की हल्की सी आवाज़ भी सुनाई दे जाती थी ।
दोपहर बाद उसने और उसके साथी कैप्टन गार्डनर ने देखा कि उनके सिपाही व्हाइट हाउस की शरण में नहीं आ रहे हैं और बाहर गर्मी में छोटी-छोटी टोलियों में जमा रहे हैं। वह बाद में लिखता है कि: “मैंने उनको आदेश दिया कि वह अंदर आ जाएं और इस तरह धूप में नहीं खड़े रहें। उन्होंने कहा, ‘हमें धूप में खड़ा होना अच्छा लगता है।’ मैंने फिर से उनको आदेश दिया लेकिन कोई नहीं हिला। फिर मैंने पहली बार देखा कि एक हिंदुस्तानी, जो हुलिए से सैनिक मालूम होता था, उनके सामने एक जोशीला भाषण दे रहा था कि ‘सब हुकूमतें और ताकतें एक नियत समय तक कायम रहती हैं और यह कोई असामान्य बात नहीं है कि अंग्रेज़ भी अपने अंजाम तक पहुंच चुके हैं जैसा कि हमारी मजहबी किताबों में भविष्यवाणी की गई थी।’ इससे पहले कि मैं उसे गिरफ्तार करता, शहर में अस्लहाखाना फट पड़ा और हमारी दोनों कंपनियों के लोग अपने हथियार उठाकर ‘पृथ्वीराज की जय’ के नारे लगाते वहां से भाग खड़े हुए। मैं और कैप्टन गार्डनर उनके पीछे दौड़े और उन्हें वापस आने का आदेश दिया और जब किसी ने आदेश नहीं माना तो उनसे मिन्नतें कीं, लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ।
टाइटलर के पास अब सिर्फ अस्सी सिपाही रह गए थे जिसमें से ‘ज़्यादातर वह पुराने सिपाही थे जो अफ़ग़ानिस्तान में मेरे साथ थे, और जिनकी कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि वह क्या करें।’ थोड़ी देर में एक सिपाही यह पैगाम लेकर आया कि वह फ़ौरन शहर के नज़दीक रिज पर फ्लैगस्टाफ् टावर में अपने ब्रिगेडियर के पास पहुंचें।
जब टाइटलर वहां पहुंचा तो देखा कि वहां एक अजीब हलचल मची थी। एक दिन के अंदर-अंदर यह छोटा सा टावर जो शहर के एक बंजर इलाके में एक पहाड़ी पर अलग-थलग खड़ा था, अब छावनी और सिविल लाइंस के सब बचे हुए अंग्रेज़ों और उनके ख़ानदान वालों की शरणस्थली बन गया था। और बाकी कुछ अंग्रेज़ों का भी जो शहर से भागने में कामयाब हो सके थे जिनमें टाइटलर की बीवी हैरियट भी थी, जिसके जल्द ही बच्चा होने वाला था और जो अपने बोझ और परेशानी की वजह से अपने शांत स्वभाव के बावजूद बहुत घबराई हुई थी और रो रही थी। ख़ासकर इसलिए कि उसके चार वर्षीय बच्चे ने उससे बड़ी मासूमियत से पूछा था, “मामा क्या यह शैतान सिपाही पापा को मार डालेंगे और फिर मुझे भी?” और वहां वैगनट्राइबर का पूरा ख़ानदान भी मौजूद था जिसका प्रमुख जॉर्ज कश्मीरी दरवाज़े पर बाग़ी सिपाहियों के हमले में बाल-बाल बचा था, जब वह दिल्ली गजट दफ्तर की तरफ जा रहा था ।
टावर के बाहर दो हल्की तोपें लगा दी गई थीं, जिनकी निगरानी ब्रिगेडियर ग्रेव्ज और उस सुबह कलकत्ता दरवाज़ा बंद करने की कोशिश करने वाले अंग्रेजों में से इकलौता बचा दिल्ली का जज ले बास कर रहे थे। उनके साथ कुछ नाराज़ और बिगड़े हुए सिपाही थे और क्रिश्चियन बॉयज़ बैंड के कुछ एंग्लो-इंडियन अनाथ बच्चे जिनकी हथगाड़ियों का मुकाबला कई साल से दिल्ली डरबी का एक अहम मुकाबला रहा था और जिनको अब फ़ौजी सर्विस में लगा दिया गया था। उनको बंदूकें दे दी गई थीं और अब वह टावर के ऊपर कंगूरों के पीछे खड़े पहरा दे रहे थे।
अंदर अंग्रेज़ औरतों की एक बहुत बड़ी भीड़ भरी हुई थी। उनमें से कुछ को अभी-अभी ख़बर मिली थी कि उनके पति, भाई या बेटे कत्ल कर दिए गए । इतना ही बदहाल फादर जेनिंग्स का प्रिय गायक अंग्रेज़ सिपाही चार्ली थॉमासन था जिसे छावनी से उसकी बीमारी के बिस्तर से उठाकर लाया गया था और आते ही उसको मालूम हुआ कि उसकी मंगेतर ऐनी जेनिंग्स को किले में कत्ल कर दिया गया है।
टावर के अंदर सिर्फ अठारह फुट का एक कमरा था, जिसमें कोई खिड़की नहीं थी और हमेशा घुटन रहती थी और जो गर्मी के मौसम में तंदूर की तरह तपता था। और मुसीबत यह कि सुरक्षा के दृष्टिकोण से कुछ औरतों को ऊपर एक तंग और घुटे हुए जीने पर भेज दिया गया था, जहां उनमें कई बेहोश हो गई। लेकिन इस गर्मी, पानी की कमी और बेआरामी से भी ज़्यादा तकलीफदेह यह सस्पेंस था कि किसी को नहीं मालूम था कि क्या हुआ है, क्या होने वाला है और कब तक यहां रहना पड़ेगा। दिन भर ब्रिटिश रेजिमेंट की हालत की बदतरीन ख़बरें आती रहीं। शिकस्त के बाद शिकस्त और मौत पर मौत। मेरठ से भी अंग्रेज़ फौज के आने की उम्मीद कम होती गई। फ्लोरेंस बैगनट्राइवर ने लिखा है:
औरतें, बच्चे, नौकर, सब एक बदहवासी के आलम में जमा थे। बहुत सी औरत गर्मी और परेशानी की वजह से बुरी हालत में थीं। बच्चे रो रहे थे और मांओं से लिपटे हुए थे। बीवियां जो हाल में विधवा हो गई थीं, बहनें जो अपने भाइयों के कुल्ल की खबर सुनकर रो रही थीं, और कुछ जिनके पति अभी तक बिफरे हुए बागी सिपाहियों के बीच अपना फर्ज निभा रहे थे और जिनके अंजाम से वह बेखबर थी। टावर के इर्द-गिर्द एक पेड़ तक नहीं था जिसके साये में सूरज की गर्मी से पनाह मिल सके। बच्चों के सब कपड़े उतार दिए गए थे, क्योंकि गर्मी असहनीय थी।
इस उबलते हुए नर्क में आकर टाइटलर को फौरन अंदाजा हो गया। कि इस अलग-थलग टावर में बचाव की कोई सूरत नहीं थी और इतनी औरतों और बच्चों को वहां जमा करना कत्ले-आम को दावत देना था, जो उससे भी ज्यादा क्रूर होगा जो शहर में हो रहा था। बगैर झिझके हुए वह फौरन ब्रिगेडियर ग्रेव्ज के पास गया, और जैसा कि उसकी बीवी हैरियट ने बाद में लिखा है ““उसने बहुत साफ़ और ऊंची आवाज़ में पूछाः’
‘माफ कीजिये, सर, लेकिन अब आप क्या करने वाले हैं?”
उन्होंने जवाब दिया, ‘हम यहीं रुककर औरतों और बच्चों की सुरक्षा करेंगे, टाइटलर ।’
मेरे पति ने बहुत सफाई से कहा, “यह पागलपन है, सर, क्या आपके पास खाने की
व्यवस्था है?”
‘नहीं, टाइटलर ।’
“क्या आपके पास काफी पानी है?”
‘नहीं, टाइटलर ।’
‘तो फिर आप किस तरह औरतों और बच्चों के बचाव की व्यवस्था करने का सोच रहे हैं?
“हम कर भी क्या सकते हैं? अगर किसी ने ज़रा सिर भी बाहर निकाला, तो वह हमें गोली मार देंगे।’
मेरे पति ने कहा, ‘सुनिए, दोस्तो… हम इस जगह पर बैठे नहीं रह सकते। इसलिए हमारा फ़र्ज़ है कि हम पीछे हटें।’
इस पर दूसरे अफसरों ने कहना शुरू किया, ‘ख़ुदा के लिए टाइटलर की बात मत मानिए। फिर मेरे पति बोले, ‘ठीक है, आपका जो दिल चाहे कीजिये। यहां ठहरिए और कत्ल हो जाइए। मगर मैं अपने परिवार के साथ यहां से जा रहा हूं चाहे मेरा कोर्ट मार्शल हो जाए। मैं अपने बीवी-बच्चों का कत्ल होते नहीं देख सकता।”
टाइटलर यह कह ही रहा था कि एक बैलगाड़ी कश्मीरी दरवाज़े की तरफ से नीचे से आहिस्ता-आहिस्ता रिज की ओर चढ़ती नज़र आई। उसके अंदर कुछ खून भरे जनाना कपड़ों के नीचे उन तमाम अंग्रेज अफसरों की कटी-फटी लाशें थीं जो सुबह शहर के अंदर गए थे। उनमें से एक की बहन मिस बरोज टावर के अंदर पसीने में शराबोर खड़ी थी। यह गाड़ी दरअसल एडवर्ड वाइबर्ट ने छावनीं भिजवाई थी और वह गलती से उस तरफ़ आ गई और टावर में पनाह लेने वालों ने जो वैसे ही बहुत खौफजदा और परेशान थे, यह सोचा कि यह बागी सिपाहियों ने उनको डराने के लिए भेजी है। हालांकि असल में भेजने वाले का यह इरादा बिल्कुल नहीं था, लेकिन इसका असर यही हुआ। यह लाशें देखकर टाइटलर के बाकी बचे हुए सिपाहियों ने उनसे दर्खास्त की कि अगर वह चाहते हैं कि उनका भी यह हश्र ना हो तो उनको फौरन वहां से भाग जाना चाहिए। उन्होंने कहा कि मेरठ के सवार इस वक़्त नज़दीक ही ऑक्टरलोनी के बाग में अपने घोड़ों को सुस्ता रहे थे। “वह समझ रहे हैं कि आप सब लोग सारी रात यहां गुजारेंगे और वह आकर आराम से आप सबको मार डालेंगे,” सिपाहियों ने टाइटलर से कहा।
यह सुनकर इस डरी हुई भीड़ की हिम्मत बिल्कुल ही टूट गई। “जैसे ही ब्रिगेडियर और दूसरे अफसरों ने सुना कि उनका क्या हश्र होने वाला है,” हैरियट टाइटलर ने लिखा, “तो उन्हें अंदाज़ा हुआ कि उनकी मौत कितने करीब है और फिर फौरन एक भगदड़ मच गई। हर कोई अपनी-अपनी बग्घी की तरफ दौड़ा कि कौन पहले भाग सकता है।
जैसे-जैसे दिन गुज़रता गया कश्मीरी दरवाज़े के अंदर वाली पहरे की चौकी में एडवर्ड वाइबर्ट की स्थिति और कमज़ोर होती गई।
एक बजे के करीब वाइबर्ट की रेजिमेंट के 200 सिपाही जो गायब हो गए थे वह एकदम वापस आ गए। उन्होंने अपने भाग जाने और अफ़सरों को अकेला छोड़ देने का तर्क यह दिया कि वह निहत्थे थे और कश्मीरी दरवाज़े में घुसते ही अचानक बागियों आता देखकर बदहवास हो गए थे। वाइबर्ट को यकीन नहीं आया कि वह सच कह रहे हैं या नहीं क्योंकि, “बजाहिर उनका बर्ताव सम्मानपूर्ण था लेकिन वह छोटे-छोटे गुटों में खड़े आहिस्ता-आहिस्ता एक दूसरे बात कर रहे थे। मेरी कंपनी के एक सिपाही को जब आदेश दिया गया कि वह संतरी की ड्यूटी दे तो उसने इंकार कर दिया और वापस जाकर भीड़ में मिल गया। यह सब बातें बहुत व्याकुल करने वाली थीं।”
वाइवर्ट ने लिखा है, “लेकिन रुककर उसका यकीन करने का समय नहीं था। हमने भागना शुरू कर दिया ताकि पकड़े जाने से पहले मेटकाफ हाउस पहुंच जाएं। कांटेदार झाड़ियों से उलझकर औरतों के कपड़े तार-तार हो रहे थे लेकिन हम भागते रहे, पसीना हमारे चेहरों पर वह रहा था, होंठ प्यास से सूख रहे थे लेकिन हममें मुड़कर देखने की हिम्मत नहीं थी।
जब तक यह लोग मैटकाफ हाउस पहुंचे, घुप्प अंधेरा छा चुका था । घर के चारों तरफ ‘संदिग्ध से लोगों की भीड़ जमा थी, लेकिन वहां के नौकरों ने उनसे बहुत मेहरबानी का सुलूक किया। वह लोग सब थियो के बारे में बहुत चिंतित थे जो सुबह से लापता था। उन सबको नीचे तहखाने में सर थॉमस के बिलियर्ड रूम में ले जाया गया जहां पहुंचते ही तीनों फॉरेस्ट बहनें फौरन सो गईं। थोड़ी देर में वहां बीयर की बोतलें, मोमबत्तियां और कुछ खाना भी आ गया। मिसेज फॉरेस्ट के कंधे के जख्म की मरहम-पट्टी की गई। और फिर तीन घंटे तक यह सब आराम करते रहे।
लेकिन नौ बजे नौकरों ने आकर ख़बर सुनाई कि कुछ देर पहले छावनी से सिपाहियों के आने की सूचना मिली है जो कुछ ही दूर थे। उनके नारों और बंदूक की गोलियां चलने और तोप के गोलों की आवाजें भी सुनी गई थीं। इसलिए उन लोगों ने अपनी जेबों में खाना और पानी की बोतलें रखीं और फिर वहां से चल पड़े। उनका इरादा था कि यमुना के घाट में उतरकर पानी में चलते-चलते उत्तर-पूर्व की तरफ मेरठ की ब्रिटिश रेजिमेंट तक पहुंच जाएंगे जो अड़तीस मील दूर थी । “हममें से हर एक ने एक-एक औरत का जिम्मा ले लिया,” वाइबर्ट लिखता है। “मेरे जिम्मे फॉरेस्ट की छोटी बच्ची थी जो तरह-तरह के मासूम सवाल करती रही। उस बेचारी को हालात की गंभीरता का कोई अंदाज़ा नहीं था। इस तरह हम कोई आधे घंटे ही चले होंगे कि हमारे पीछे एक आग का लंबा शोला दिखाई देने लगा।” वह बाल-बाल बचे थे क्योंकि थोड़ी देर में मालूम हुआ कि वह तेज लाल रंग जो यमुना के पानी में घुल रहा था मैटकाफ हाउस में लगाई हुई आग के भड़कते शोलों का था।”