1857 की क्रांति: बहादुर शाह जफर पर लगाए हुए कंपनी के इल्जामों की विसंगति को टाइम्स के संवाददाता विलियम हॉवर्ड रसेल-युद्ध पत्रकारिता के पिता–ने बहुत खूबी से स्पष्ट किया है, जो उसी समय दिल्ली के खंडहरों में पहुंचे थे, जब सड़कों पर हड्डियों के ढांचे पड़े थे, शहर के मीनार और गुंबद गोलियों के छेदों से छिदे हुए थे, लेकिन लाल किले की दीवारें अब भी अजीमुश्शान थीं। “मैंने बहुत कम इतनी आलीशान दीवारों का नक्शा देखा है,” रसेल ने अपनी हिंदुस्तान की याददाश्त में लिखा। ‘उस रोशन सुर्ख रंग की दीवार की विशालता मुझे विंडसर कासल के बेहतरीन हिस्सों की याद दिलाती है।’

रसेल को साइमन फ्रेजर के पुरान घर लूडलो कासल के सुख-साधन भी बहुत पसंद आए, जिसकी अब दिल्ली के कमिश्नर सॉन्डर्स ने मरम्मत करवाकर उसे फिर से शानदार बना लिया था। रसेल लिखते हैं, “गाड़ी सुतूनों पर बनी बरसाती में दाखिल हुई और अंदर से एक सुर्ख और सुंदर से अंग्रेज़ शख्स बाहर आए और इससे पहले कि मैं जान सक कि मैं कहां हूं वह मुझे अंदर एक खूबसूरत गोरी अंग्रेज़ औरत के पास ले गए, जो एक खाने से लदी मेज के सामने बैठी मेहमानों का सत्कार कर रही थीं।

मैंने जबसे कलकत्ता छोड़ा था मुझे किसी अंग्रेज़ औरत का चेहरा नहीं दिखा था। मैं धूल में भरा और गंदे हुलिए में था। गर्मी से परेशान नापसंदीदा अजनबी की तरह। और एकदम लगा कि मैं सभ्य समाज में फिर से वापस आ गया हूं, जहां हर तरह के ऐशो-आराम का साजो-सामान था, जो मुद्दत से मेरे लिए अनजान था।

उस घर की सजावट और आराम का सामान मेरे लिए बहुत सुकून का कारण था। बड़े-बड़े ऊंची छतों वाले कमरे, नर्म कालीनें, सोफे, आराम कुर्सियां, किताबें, तस्वीरें, आराम और सुकून, और बाहर खस की टटियां। जब हम अंदर पहुंचे तो परिवार अपने पहले नाश्ते पर था। मुझे पता चला कि यहां दो नाश्ते होते हैं, एक सुबह आठ बजे और दूसरा दोपहर को तीन बजे।”

लेकिन रसेल की आखरी मंज़िल इससे कहीं कम खुशनुमा थी। वह लाल किले के एक ‘अंधेरे गंदे पीछे के रास्ते’ से उस आदमी की कोठरी में पहुंचे, जिस पर उन्हें बताया गया था कि बगावत का सरगना होने का इल्जाम लगाया गया था; ‘वह बुझा हुआ, लगातार घूमती आंखों वाला, अपने ख्यालों में डूबा बूढ़ा आदमी जिसका नीचे का होंठ कमज़ोरी से लटका हुआ था और बगैर दांतों के मसूढ़े नज़र आ रहे थे-क्या यही वह आदमी था, जिसने एक शानदार सल्तनत को फिर से कायम करने का मंसूला बनाया था और जिसने दुनिया की तारीख की सबसे बड़ी बगावत पर लोगों को उकसाया था और जिसने अपने प्राचीन किले की दीवारों से खुल्लमखुल्ला नाफरमानी की थी और उस नस्ल का मजाक उड़ाया था जिसकी मुट्ठी में हिंदुस्तान का हर तख़्त था?’ रसल ने बड़ी हैरत से पूछा। जब रसेल अंदर आए तो ज़फर बीमार थे, और ‘अपनी कमज़ोर कमर को संभाले एक पीतल के बर्तन के ऊपर बिल्कुल झुके हुए बुरी तरह उलटियां कर रहे थे…’

“उकडूं बैठा एक छोटा सा दुबला-पतला बूढ़ा आदमी, मामूली मलमल का मैला अंगरखा पहने, जिसके पतले-पतले पांव नंगे थे और सिर पर मलमल की एक तंग गोल टोपी थी… उनके होंठों से एक शब्द नहीं निकलता था। वह दिन-रात खामोश आंखें ज़मीन पर झुकाए बैठे रहते जैसे वह अपने माहौल से और उन हालात से बिल्कुल बेखबर हैं, जिनमें उन्हें पहुंचा दिया गया था… उनकी आंखों में एक बहुत बूढ़े आदमी की बेहिसी और धुंधलापन था… ऐसा लगता था जैसे वह आंखें हमें एक अथाह अंधेरे की तरफ ले जाना चाहती हैं… कभी-कभी कोई उन्हें अपनी कही हुई गज़लों के कुछ शेर कहते सुनता या दीवार पर किसी जली हुई तीली से शेर लिखते देखता था…”

रसेल जो उनके इतिहास से वाकिफ थे, और मुगलों के शानदार किले की बर्बादी से विचलित थे, उन्हें कंपनी द्वारा जफर के खिलाफ लगाए गए इल्जामों के कानूनी तौर से जायज होने के बारे में शक था। उन्होंने लिखा है किः

“यह वह जगह है जहां से वह आला फरमान जारी हुए थे जिनके द्वारा ताबेदारी और खिदमत की शर्त के साथ कुछ डरते हुए सौदागरों को ज़मीन खरीदने का अधिकार दिया गया था… अपनी बेहद खस्ताहाली के बावजूद अकबर के जानशीन ने अपनी बची हुई शान को इस तरह कायम रखा था कि गवर्नर जनरल भी उनसे बराबरी के ओहदेदार के रूप में नहीं मिल सकता था, और दिल्ली के ब्रिटिश अफसरों के लिए अनिवार्य था कि वह उनके साथ संपर्क में वह सारा सम्मान बनाकर रखें, जो एक बादशाह को अपने खादिमों से मांग करने का हक था…

“(बादशाह को) अपने उपकारियों के खिलाफ बगावत करने पर अकृतज्ञ कहा गया। इसमें कोई शक नहीं कि वह एक कमज़ोर और क्रूर बूढ़े थे, लेकिन उन्हें अकृतज्ञ कहना बिल्कुल बेतुकी बात है जबकि उनकी नज़रों के सामने उनके पूर्वजों की सारी सल्तनत धीरे-धीरे जब्त कर ली गई, यहां तक कि उनके पास सिर्फ एक खाली खिताब और उससे भी ज़्यादा खाली खज़ाना रह गया और उनका महल गरीब शाहजादों से भरा रह गया। क्या उनसे यह उम्मीद की जाती कि उन हालात के लिए जिनमें वह पहुंचा दिए गए थे, वह कंपनी के कृतज्ञ होते?

“यह सच है कि अब हमें भी वही अधिकार प्राप्त हैं, जो दिल्ली घराने के मुसलमान संस्थापकों को हिंदुस्तान पर सल्तनत करने के लिए प्राप्त थे (यानी फतह का अधिकार) लेकिन हम हिंदुस्तान में किसी बड़ी फौज के साथ दाखिल नहीं हुए थे, जिस तरह वह इस पूरे इरादे से हुए थे कि वह मुल्क को फतह करेंगे। हम तो सिर्फ मामूली सौदागरों की तरह चुपके से घुस आए थे जिनका वजूद भी दिल्ली के बादशाहों के अफसरों की मर्जी पर निर्भर था, और जो कुछ भी ‘मेहरबानी’ हमने उनको दिखाई वह तो उनके पूर्वजों द्वारा हमारी कौम के साथ किए गए अहसानों का एक बहुत छोटा इकरार था…”116

रसेल ने आखिर में कहा कि अगर बादशाह पर मिलिट्री कमीशन के बजाय किसी यथोचित अदालत में मुकद्दमा चलाया जाता, तो उन पर लगाए हुए इल्जामों को सही साबित करना नामुमकिन होता, ‘एक अंग्रेज़ वकील अंग्रेज़ी अदालत में आसानी से साबित कर देता कि हमारी हुकूमत के लिए दिल्ली के बादशाह के खिलाफ गद्दारी का इल्जाम लगाकर उन्हें सजा देना बहुत मुश्किल है।’

रसेल ने यह भी लिखा कि उनके ख्याल से ज़फ़र पर अपनी बंदिशों को तोड़ने की कोशिश करने के लिए कोई इल्जाम नहीं लगाया जा सकता। उन्होंने लिखा, ‘उस बूढ़े आदमी को देखने पर मुझे लगा कि किसी हद तक हमारे शासक ही उन अपराधों के जिम्मेदार हैं, जो ज़फ़र ने किए थे… मेरे ख्याल में तो बगावत शुरू होने के बहुत पहले से ही बादशाह की स्थिति असहनीय हद तक तकलीफदेह हो चुकी थी। उनका किला वास्तव में उनकी नज़रबंदी की जगह था।

वह जानते थे उनकी पिछली सारी शक्तियों के बदले एक मजाक की तरह उन्हें जो चंद निरर्थक रिआयतें अभी तक मिली हुई हैं, वह भी उनके वारिसों से छीन ली जाएंगी, और उन्हें अपने ही महल में रहने के हक से वंचित कर दिया जाएगा और उनको उसकी दीवारों से बाहर निकाल दिया जाएगा। हमने उनके शाही रिश्तेदारों को अपनी सेवा में आने की अनुमति नहीं दी, हमने उन्हें उनके किले के अंदर गरीबी और कर्ज की बदतरीन जिंदगी रहने को मजबूर किया, और फिर हमने उन पर नाकारापन, अय्याशी और कमीनेपन का इल्जाम लगाया। हमने सैनिक प्रतिष्ठा के दरवाज़े उन पर बंद कर दिए।

हमने उनसे इज़्ज़त और हौसले के साथ जीने के सब जरिए छीन लिए, और फिर हमने अपने अखबार और मैस के कमरे शाहजादों के नाकारापन, अय्याशी और आलस के खिलाफ गालियों की बौछारों और व्यंग्यों से भर दिए। ऐसी घृणित और अपमानजनक ज़िंदगी जीने से तो हज़ार बार मर जाना बेहतर। अगर बूढ़े ज़फ़ और उनके बेटे बेगुनाहों का खून बहाने से बाज रहते अगर वह अपनी कमर पर अपनी जिम्मेदारी लादे हुए मर जाते-तो कम से कम मुझे उनकी तकदीर के साथ हमदर्दी होती।””

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