1857 की क्रांति: क्रांति के बाद अंग्रेजों ने दिल्ली पर कब्जा कर लिया। बहादुर शाह जफर के मुकद्दमे की तारीख 27 जनवरी 1858 तय हुई थी। जफर अभी भी बहुत बीमार थे। जाड़े का वह दिन बहुत ठंडा, नम और बादलों से घिरा हुआ था।

जेलर एडवर्ड ओमैनी बहुत खुश था कि उसके कमरे में आग जल रही थी। उसने सॉन्डर्स को बताया कि ‘बूढ़ा आदमी आज बहुत टूटा हुआ और कमजोर अग रहा है और उसके मुंह से बात भी नहीं निकल रही है। मुझे नहीं लगता कि वह इस हाल उसके मुंह से दन जी सकेगा। चूंकि ज़फ़र चल भी नहीं सकते थे, इसलिए ओमैनी को उन्हें पालकी से उतारने में भी मदद करनी पड़ी। उनको एक तरफ से मिर्ज़ा जवांबख्त संभाले थे और दूसरी तरफ से एक नौकर। उन्हें दीवाने-खास में ले जाया गया, जहां अब गद्दारी के जुर्म में वह लोग उन पर मुकद्दमा चलाने वाले थे, जिनको वह अभी तक अपना ताबेदार मान सकते थे।

उन्हें यह स्पष्ट करने करने के लिए कि वह कंपनी की प्रजा हैं, उन्हें न तो मोरछल की इजाजत दी गई और न हुक्के की। जो दर्शक वहां बैठे थे, उनमें चार्ल्स और मैटिल्डा सॉन्डर्स, एडवर्ड वाइबर्ट, दिल्ली गजट का प्रतिनिधि जॉर्ज वैगनट्राइबर, और हैरियट टाइटलर, जिसे तबसे किले में निवास मिल गया था। जब उसके पति रॉबर्ट ने किला फतह होने की शाम को अपना फौजी खजाने का संदूक किले में पहुंचा दिया था।

मुकद्दमा बड़ी अव्यवस्था के साथ शुरू हुआ। हालांकि इसकी कुछ कार्रवाई हिंदुस्तानी में होनी थी, लेकिन पांचों जजों–जोकि सभी जूनियर रैंक के फौजी अफ्सर थे-में से किसी को भी यह जबान बोलना या समझना नहीं आता था। एडवर्ड वाइबर्ट का कहना था कि ‘सिर्फ अध्यक्ष ही इस जबान से परिचित थे’ ।” कार्रवाई ग्यारह बजे शुरू होने वाली थी लेकिन कोर्ट मार्शल का अध्यक्ष ब्रिगेडियर शॉवर दोपहर तक नहीं आया और जब आया भी, तो बस इतना कहने को उसे आगरा जाकर वहां की कमांड संभालने का आदेश मिला है। इस सारे अर्से में, जफर को बाहर ‘एक तगड़े राइफलबरदार दस्ते की निगरानी में’ इंतजार करना पड़ा।

आखिरकार दोपहर बाद कर्नल डॉज की अध्यक्षता में कार्रवाई शुरू हुई और इल्जाम पढ़े गए। जफर अब तकियों के सहारे डॉज और अभियोग पक्ष के वकील मेजर हैरियट के बीच बैठे थे। उनसे पूछा गया कि क्या वह अपना अपराध स्वीकार करते हैं। लेकिन बहुत जल्द यह अंदाजा हो गया कि उनको कुछ खबर ही नहीं थी कि यह सब क्या हो रहा है। फिर ‘काफी देर’ और उन्हें यह समझाने में लगी कि वह कहें कि उन्हें इल्जाम कुबूल नहीं है।

आने वाले दिनों में, साक्ष्यों का एक बड़ा पुलिंदा और पेश किया गया। एक के बाद एक गवाह बुलाए गए कि वह गदर का आंखों देखा हाल और घटनाएं बयान करें और किले के, कोतवाल के, और मिर्ज़ा मुग़ल के दफ्तरों और क्रांतिकारियों  के फौजी कैंप से जब्त किए गए कागजात पेश किए गए। एक गवाह चार्ल्स बॉल के अनुसार, ‘हर कागज़ जो पढ़ा जाता वह कैदी के वकील (गुलाम अब्बास) को दिखाया जाता और उनसे पहचान कराई जाती, हालांकि बादशाह ने खुद उन तमाम कागज़ों के वजूद से बिल्कुल अनजान होना जाहिर किया। अपने दस्तखत होने से इंकार किया, और इंकार के इशारों के जरिए कोशिश की कि वह अपना बिल्कुल बेखबर और बेगुनाह होना अदालत को समझा सकें। लेकिन जल्द ही ज़फ़र का ध्यान बंटना शुरू हो गया। ऐसा लगता था कि शाही कैदी उस सब कार्रवाई को बिल्कुल गैरअहम और थकाऊ समझ रहे हैं। उन्होंने हालात की नीरसता से बचने के लिए ऊंघना शुरू कर दिया, लेकिन कभी-कभी जब कोई खास अनुच्छेद पढ़ा जाता, तो उनकी आंखों में चमक आ जाती और वह अपना झुका हुआ सिर उठाकर बहुत गौर से सुनते। लेकिन फिर वह ऊंघती हुई उदासनीता में वापस चले जाते… लेकिन उनका बेटा बहुत चाक-चौबंद था और अपने पिता के ख़िदमतगारों से खूब हंसी-मजाक कर रहा था, जैसे उसे कोई शर्मिंदगी न हो।

कुछ दिन बाद ओमैनी ने जवांबख़्त के बर्ताव को ‘बहुत अशिष्ट, अभद्र और असभ्य’ करार दिया, और उनके जेलर ने आगे की किसी कार्रवाई में उनके शामिल होने पर पाबंदी लगा दी। अपने प्यारे बेटे की अनुपस्थिति की वजह से जफर की उन कार्रवाईयों में दिलचस्पी और भी कम होती चली गई। अक्सर वह इतने बीमार होते कि आ ही नहीं पाते थे और अदालत को कैदी की बीमारी की वजह से अक्सर अदालत बर्खास्त करना पड़ती।

और बॉल के अनुसार, जब अदालत बैठती, तोः “बादशाह एक खास रवैया इख्तियार कर लेते जो उन गंभीर हालात के विल्कुल विपरीत था, जिनमें वह फंसे हुए थे। अक्सर जब गवाही हो रही होती तो वह अपने आपको शॉल में लपेटकर अपने तकियों पर बिल्कुल बेपरवाही से टिक जाते और अपने माहौल से बिल्कुल बेपरवाही इख़्तियार कर लेते। कभी वह एकदम से ऐसे चौंककर उठते जैसे सपने से जागे हों और ऊंची आवाज में किसी गवाह के बयान को नकारने लगते, और फिर एक वास्तविक याचनावटी असंवेदनशीलता में डूबते और लापरवाही से कोई सवाल पूछक वास्तविक यह सत हुए, किसी गवाह के वाक्य की व्याख्या करने लगते।

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