1857 की क्रांति: पत्रकार जहीर देहलवी 14 सितंबर को जल्दी जागे और हमेशा की तरह अपनी नौकरी पर जाने के लिए शहर से होते हुए लाल किले की ओर रवाना हुए। अब तक भारी गोलाबारी की आवाजें सुनने के आदी हो चुके उन्हें उस लड़ाई की अहमियत का पता नहीं था, जो उस वक़्त उत्तर में एक मील से भी कम दूरी पर हो रही थी। चांदनी चौक से निकलते ही पहली असाधारण बात जो उन्होंने देखी वह एक अन्य शाही अफ्सर से मुलाकात थी, जो विपरीत दिशा में जा रहा था और जिसने उन्हें बताया कि आगे जाने का कोई फायदा नहीं है क्योंकि किले के दरवाजे बंद हैं।

“तब जाकर मैंने ध्यान दिया कि शहर की लगभग सारी दुकानें बंद थीं और बाजार भी असामान्य ढंग से बिल्कुल खाली था, सिर्फ इक्का-दुक्का आदमी घूम रहे थे। मैंने सोचा कि मुझे खुद जाकर देखना चाहिए कि क्या माजरा है। लेकिन जब मैं (किले के) लाहौरी दरवाज़े पर पहुंचा, तो मैंने देखा कि वहां रोक लगी थी और गेट के सामने दो भरी हुई तोपें लगी थीं। पास ही कुछ लोगों की भीड़ थी, जो एक हवलदार से उस सुबह की लड़ाई का बयान सुन रहे थे।

“उसी वक्त कुछ घुड़सवार सिपाही अंदर से आए और उन्होंने पहरेदारों को आवाज दी कि दरवाजा खोलें क्योंकि उन्हें बाहर निकलना है। हवलदार ने उनसे कहा कि वह शहर के काबुली दरवाजे की तरफ जाएं क्योंकि तमाम कुमुक वहीं जमा हो रही थी। यह सुनकर मैं भी घर वापस जाने के लिए मुड़ा।

“मैं कुछ दूर ही गया था कि मैंने देखा कुछ पुरबिए भवानी शंकर के घर की तरफ से तेजी से दौड़ते हुए आ रहे थे। साफ था कि वह लड़ाई से भाग रहे थे। शहर के लोग बागियों को बहुत नफरत से देख रहे थे और पूछ रहे थे, ‘हमारे शहर को इस लड़ाई में झोंककर तुम अब क्यों भाग रहे हो?’ यह सुनकर उन्होंने यानी बागियों ने अपनी पिस्तौलें-तलवारें निकालकर फेंक दीं और कहा, ‘हम तो बहुत दिनों से लड़ रहे हैं, अब तुम क्यों नहीं कोशिश करते?’

जहीर ने तय किया कि अब घर जाना चाहिए, ताकि अपने घरवालों को खबरदार कर सकें, लेकिन जब वह बल्लीमारान पहुंचे तो उन्होंने पाया कि उनके मुहल्ले का दरवाजा बंद हो चुका है। वह वापस चांदनी चौक पर छोटे दरीबा कलां के दरवाजे की ओर भागे। वहां भी दरवाजा बंद था, लेकिन छोटा दरवाजा खुला छोड़ दिया गया था। वह सिकुड़कर उससे अंदर घुसे तो पता चला कि लड़ाई तो कोतवाली तक पहुंच चुकी है। बदकिस्मती से वह सीधे जामा मस्जिद की तरफ जा रहे थियो के दस्ते के सामने पड़ गएः

“मेरी तरफ कोतवाली की तरफ से गोलियों की बौछार की गई और गोलियां सड़क और नालों में ओलों की तरह बरसती रहीं। अंग्रेज़ फौज की एक इकाई कोतवाली के सामने खड़ी थी और वह जिस किसी को भी देखती, उस पर गोली चला देती। एक आदमी जो मेरे पास ही खड़ा था उसके पेट में गोली लगी और वह दोहरा हो गया। मैंने उसकी सुरक्षा के लिए उसको छोटे दरवाज़े से अंदर किया और फिर सीधा अपने घर की तरफ भागा।

घर जाते ही मैं सीधा अपने कमरे में गया और सदमे से बेहाल बिस्तर पर जा गिरा। मैंने अब अपनी आंखों से देख लिया था कि अंग्रेज फौज शहर में घुस आयी है और पुरबिये भाग रहे हैं। मैंने सोचा कि अब मौत का वक्त करीब आन पहुंचा है और अब दुआ के सिवा कोई और चारा नहीं है। हम सिर्फ इंतजार कर सकते थे कि देखें अब क्या होता है।

“मैंने अपनी मां को या घर के किसी सदस्य को नहीं बताया कि मैंने क्या देखा। बस मैं अपने कमरे में बैठा दुआएं पढ़ता रहा। कोई डेढ़ घंटे बाद तोप चलने की बहुत ऊंची आवाजें आयीं, जो ऐसा लगता था कि मेरे घर के सामने से ही आ रही हैं। मुझे बहुत ताज्जुब हुआ कि कोई तोप कैसे हमारी गली में घुस सकती है। मैंने दो तीन नौकरों को साथ लिया और घर से बाहर यह देखने निकला कि क्या हो रहा है।

जब जहीर और उसके साथी सड़क पर पहुंचे, तो उन्होंने सड़क पर चलने वालों से पूछा कि अंग्रेज फौज कहां गई। किसी ने कहा कि उसे अभी भगा दिया गया है। जहीर तब चावड़ी बाजार से जामा मस्जिद के पीछे गए, तो वहां उन्होंने देखा कि कई लोग तलवारें, छड़ियां, डंडे और नोक तेज की हुई लाठियां लिए वहां घूम रहे थे।

“जब मैं जामा मस्जिद के एक ओर आया, तो मैंने इतनी लाशें पड़ी देखीं कि एक मिनट को यह लगा जैसे लकड़ी बेचने वालों की दुकान हो। कई लाशें किलही बाजार और जामा मस्जिद और कोतवाली के बीच की गलियों में पड़ी थीं। मैंने सड़क पर खड़े लोगों से पूछा कि क्या हुआ, तो उन्होंने बताया कि अंग्रेज़ फौज का एक दस्ता जामा मस्जिद की सीढ़ियों तक आ गया था और उसी वक्त कुछ अंग्रेज़ अफ्सर लोगों के घरों में घुस गए थे और उनको लूटना शुरू कर दिया था।

“फिर सिपाहियों ने जामा मस्जिद के अंदर दाखिल होना चाहा। जो लोग अंदर थे उन्होंने सोचा कि अगर वह अंदर घुस आए, तो पवित्र स्थल पर ही लोगों को मारना शुरू कर देंगे, इसलिए बेहतर है कि बाहर जाकर उनका मुकाबला किया जाए। इसलिए वह बंदूकें संभाले मस्जिद से बाहर निकले और उन्होंने अंग्रेज दस्ते पर हमला कर दिया… बहुत से अंग्रेज़ मारे गए या जख्मी हो गए… आखिरकार वह कश्मीरी दरवाज़े की तरफ लौट गए और वहां उन्होंने तोपें लगा दीं और उसे अपना ठिकाना बना लिया। जहीर फिर से घर वापस लौट गए और थोड़ा सोने की कोशिश करने लगे। अगले दिन सारे शहर में अफवाह फैली थी कि रात भर अंग्रेज सिपाही एक घर से दूसरे घर जाते रहे और सीढ़ियां लगाकर कमरों में घुस आए और उन्होंने लोगों के जनानखानों में जाकर सोती औरतों को कत्ल कर दिया और उनके जेवर चुरा लिए। यह नहीं मालूम हुआ कि इस खबर में कितनी सचाई थी। उस वक़्त लूटमार सिर्फ उन इलाकों में हो रही थी, जिन पर उनका कब्जा था। खासकर कश्मीरी दरवाजे के आसपास, लेकिन जो फतह की खुशी अंग्रेजों को जामा मस्जिद से पीछे हटाने की वजह से शहर में फैल गई थी, वह धीरे-धीरे हर घर में कम होती गई और उसकी जगह बढ़ती हुई पेरशानी ने ले ली।

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