1857 की क्रांति: बगावत के समय शहर में हर तरफ मायूसी छाई हुई थी। सईद मुबारक शाह का कहना था कि बागी सिपाहियों की लूटमार और अंग्रेजों की गोलाबारी के बीच दिल्ली के लोगों को “चाहे वह बुरे हों या अच्छे, अंग्रेजों के पक्ष में हों या विरोध में, सबको अब लग रहा था कि वह चूहों की तरह पिंजरे में कैद हैं, जहां से भागने का कोई रास्ता नहीं है।

मिर्जा गालिब के लिए यह गोलाबारी इंतेहा थी। कहा कि “हर नाकारा आदमी, घमंड से भरा, अपनी मर्जी चला रहा है, जबकि ऊंचे तबकों के लोग, जिन्होंने कभी राग-रंग की महफिलों में गुलाब की ली से ऐशो-इशरत के चिराग रौशन किए थे, अब अंधेरी कोठरियों में पड़े मुसीबत की आग में जल रहे हैं।

इससे भी बुरा यह था कि उन जैसे खत लिखने के आदी आदमी की लिए इन हालात की वजह से डाक में गड़बड़ हो जाना बिल्कुल असहनीय था। घेराबंदी का बयान करते हुए वह अपनी दस्तंबू में लिखते हैं, “डाक का महकमा बिल्कुल नाकारा हो गया है और इसका सब कारोबार रुक गया है। डाकियों का आना-जाना नामुमकिन हो गया है, इसलिए खत न भेजे जा सकते हैं और न ही पाए जा सकते हैं।”

उनकी परेशानी और उलझन को और बढ़ाने के लिए रिज से खूब गोलाबारी हो रही थी: “आग बरसाने वाली बंदूकों और बिजली गिराने वाली तोपों से उठता गहरा स्याह धुआं आसमान पर घिरे काले बादलों की तरह है और उनकी आवाज़ ऐसी है गोया ओलों की बारिश हो रही है।” वह लिखते हैं:

“दिन भर तोप चलने की आवाज सुनाई देती है, जैसे आसमान से पत्थर गिर रहे हों। उमरा के घरों में चिराग जलाने को तेल नहीं है। वह घुप्प अंधेरे में बिजली चमकने का इंतजार करते हैं ताकि अपना गिलास और सुराही ढूंढ़ सकें और अपनी प्यास बुझाएं… इस हंगामे में बहादुर लोग भी अपने साये से डर रहे हैं और सिपाही दरवेशों और बादशाह दोनों पर हुकूमत कर रहे हैं।

लेकिन दिल्ली के ज़्यादातर लोगों के लिए डाक का बंद होना या रुक-रुक कर गोलाबारी होना इतना गंभीर मसला न था। बगावत के एक महीने के बाद अब आम लोगों और खासकर गरीबों के लिए ज़िंदगी बहुत मुश्किल होती जा रही थी। शहर के बहुत से भिश्ती और सफाईकर्मी शहर के मोर्चे बनाने और उन्हें मजबूत करने के काम में लगा दिए गए थे, इसलिए शहर की सफाई ठप्प हो गई थी। दरियागंज के अमीर इलाके की सड़कों तक पर मुर्दा ऊंट पड़े सड़ रहे थे।”

Spread the love

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here