अंग्रेज पसंद मिर्जा बाबर को छोड़कर भागा बैलगाड़ी हांकने वाला
1857 की क्रांति: बहादुर शाह जफर के अंग्रेज पसंद भाई मिर्जा बाबर के चहेते बेटे थे, जो बांकपन भरे अंग्रेज़ी लिबास पहनने के लिए मशहूर थे। उन्होंने अपने लिए लाल किले में एक अंग्रेजी तर्ज का बंगला भी बनवाया था।
19 सितंबर को जब लाल किले पर हमले का वक्त बिल्कुल नजदीक था, तो जफर सुल्तान ने अपनी अंधी मां को एक बैलगाड़ी में बिठाया और गाड़ी वाले से कहा कि उन्हें अजमेरी दरवाजे के रास्ते से करनाल ले चले। पहली रात वह किसी न किसी तरह अंग्रेजों और गूजरों दोनों के हमलों से बच निकले और एक गांव के करीब पहुंचकर वहां गहरी नींद सो गए।
अगली सुबह जब वह जागे, तो उन्होंने देखा कि गाड़ी वाला दोनों बैलों के साथ भाग गया था। फिर उन्होंने जाटों के एक गांव में पनाह ली, जिन्होंने उन्हें कुछ खाने को दिया, लेकिन जल्द ही जाटों ने उन पर हमला कर दिया क्योंकि उन्हें शक था–जो सही भी था कि वह अपने साथ कुछ कीमती जेवर लेकर आए हैं।
जब जफर सुल्तान को होश आया, तो उन्होंने देखा कि उनका सब सामान छिन गया है और वह जंगल में पड़े हैं। उनकी मां के सिर पर लाठी की चोट लगी थी।
“मैंने उनका हाल पूछा तो उन्होंने कहा, ‘मैं हिंदुस्तान के बादशाह की भावज हूं और मेरा नसीब देखो कि मैं एक जंगल में मर रही हूं, और मुझे एक कफन तक नहीं मिलेगा’। यह कहते-कहते उनकी जान निकल गई और मैंने किसी न किसी तरह हिम्मत करके जैसे भी कर सका, उनको दफन किया।”
ज़फर सुल्तान फकीर बन गए और शहर दर शहर फिरने लगे। वह बंबई चले गए और वहां से मक्का, जहां वह दस साल हाजियों की खैरात पर गुजारा करते रहे। आखिरकार वह कराची होते हुए दिल्ली वापस आ गए ‘क्योंकि मैं इस शहर को भुला नहीं सका। यहां मैंने ठेले वाले का काम किया और नई रेल के बनाने में ईंटें ढोता रहा, और आखिरकार मैंने इतना कमा लिया कि अपना ठेला खरीद सकूं।’ उन्होंने हुकूमत का वजीफा लेने से इंकार कर दिया क्योंकि उनका ख्याल था कि वजीफे पर गुजारा करने के बजाय अपनी मेहनत की कमाई पर जिंदा रहना बेहतर है। जब ख्वाजा हसन निजामी 1917 में मिर्जा जफर से मिले, तो वह एक बूढ़े और बहरे आदमी थे।
उनकी पहचान उस वक़्त हुई जब उनका ‘शराब के नशे में चूर एक अमीर पंजाबी बिजनेसमैन’ से झगड़ा हो गया था, जो अपना कोड़ा निकालकर बूढ़े आदमी को मार रहा था क्योंकि उनका ठेला उसकी कार से टकरा गया था। उन्होंने शुरू में तो कुछ कोड़े चुपचाप बर्दाश्त किए, लेकिन फिर उनका खून भी जोश में आ गया और उन्होंने उस कारोबारी को इतनी ज़ोर से मुक्का मारा कि उसकी नाक टूट गई। उन्होंने अदालत से कहा कि “अमीरों को गरीबों का कुछ लिहाज नहीं होता।
लेकिन 60 साल पहले इस आदमी के बाप-दादा हमारे गुलाम होते थे और न सिर्फ यह बल्कि पूरा हिंदुस्तान हमारा आदेश मानता था। मैं अपनी नस्ल को भूला नहीं हूं, इसलिए मैं ऐसी बेइज़्ज़ती कैसे बर्दाश्त कर सकता था? आप ही देखिए, जब मैंने उसे मारा तो वह बुजदिल किस तरह भाग खड़ा हुआ। एक तैमूरी का थप्पड़ बर्दाश्त करना आसान नहीं है।