20 सितंबर को अंग्रेजों ने लाल किले पर किया आक्रमण

1857 की क्रांति: 20 सितंबर को अंग्रेजों ने दिल्ली बैंक की बर्बाद इमारत से लाल किले पर चढ़ाई शुरू कर दी। 19 की रात में  महल के सामने लगी बंदूकें तैयार कर ली गई थीं। 20 की सुबह दस बजे एक विस्फोट दल फायरिंग की आड़ लेती हुई बारूद के थैले किले के दरवाजों के नीचे रखने के लिए दौड़ी, लेकिन कश्मीरी दरवाजे पर हमले के विपरीत यहां कोई रोक नहीं थी, जिससे यह जाहिर होता था कि किले की सुरक्षा करने वाले ज़्यादातर लोग फरार हो चुके हैं। सिर्फ कुछ मुजाहिदीन वहां मौजूद थे, जिनका ख़्याल था कि उनके शहंशाह खलीफतुज़्ज़मां, निगहबाने मुल्को-जहान की गद्दी किसी और को दे देने से बेहतर मौत है।

एडवर्ड कैंपबैल इस हमले का नेतृत्व करने वालों में एक था। लेकिन इसका तफ्सीली बयान उसके एक लेफ्टिनेंट फ्रेड मेसी ने उस खत में किया है, जो उसने अपनी मां और बहनों को स्विट्जरलैंड में लिखा थाः

“थोड़ी देर के सस्पेंस के बाद बारूद के थैले एक जबरदस्त धमाके के साथ फट गए और उस भारी-भरकम दरवाजे का आधा पट गिर पड़ा। हमने एक ज़ोरदार नारा लगाया और सबके सब अंदर घुस गए। अफसर, अंग्रेज़ सिपाही, हिंदुस्तानी फौजी, सुरंग लगाने वाले, सबके सब बिल्कुल बेतरतीब। अगर वहां कोई रोकने वाले होते, तो एक मुसीबत आ जाती।

मैंने कोशिश की कि दो-तीन अफसरों से कहूं कि वह अपने-अपने दस्तों को तरतीब में लाएं, लेकिन वह सब भागे ही चले जा रहे थे। और मैं या कोई और उनके साथ-साथ भागने के सिवा और कुछ भी नहीं कर सकता था। अंदर के सहन के मेहराबदार गलियारों में कुछ बंदूकबाजी होती रही लेकिन जिस किसी बागी ने लड़ने की हिमाकत की, वह मारा गया। हमें उनकी गोलियों से ज़्यादा अपनी ही गोलियों से खतरा था। इसलिए जब हम वहां से निकलकर खुले सहन में आ गए, तो हमने सुकून की सांस ली।

मैं बायीं तरफ मुड़ा क्योंकि वह सलीमगढ़ का रास्ता था और किसी ने कहा कि बादशाह उस तरफ हैं। मेरे साथ कुछ सिपाही थे, जिनका सरदार एक अफगानी मीर खान था, जिसने हमारा साथ दिया था। वह काली दाढ़ी और बाज जैसी नज़रों वाला एक खूबसूरत आदमी था, जो बादशाह को कैद करने के ख्याल से बड़े जोश में था (और वह यकीनन उनको मार डालता)। हम बहुत से दरवाजों से गुजरते और पतली-पतली गलियों में चलते गए। किले के अंदर एक पूरा शहर बसा था। हर लम्हे हमें ख्याल होता था कि अब हम पर गोलियों की बौछार होने वाली है। लेकिन हमको रास्ते में सिर्फ दो आदमी मिले, जिन्हें हमारे अफगानी दोस्त ने तीतरों की तरह गोली मारकर गिरा दिया।

आखिरकार मैंने एक आदमी को पकड़ा, जो एक दरवाज़े के पीछे से झांक रहा था और उससे कहा कि सामने आए। उसके पास कोई हथियार नहीं था और वह शायद बैलगाड़ी चलाने वाला था। मैंने उससे कहा कि अगर वह मेरे साथ रहेगा और यहां की जानकारी देगा तो मैं वादा करता हूं कि उसे कोई नुक्सान नहीं पहुंचेगा। लेकिन

उस दिन मेरी गारंटी की कोई कीमत नहीं थी। मेरा अफगानी दोस्त मेरे पीछे ही था। मैंने उससे कहा कि यह बूढ़ा आदमी मेरा कैदी है और मैंने इससे वादा किया है कि इसे कोई तकलीफ नहीं होगी। उस बेचारे ने ज़मीन पर सिर रगड़ा और अपने डर के बावजूद मीर खान का शुक्रिया अदा किया। वह गरीब मेरे साथ-साथ दौड़ रहा था और मुझे रास्ता दिखा रहा था। हम अभी दस गज ही गए होंगे कि सन्न से एक आवाज़ आई और बिजली सी चमकी, और मेरा बेचारा कैदी धड़ से ज़मीन पर गिर पड़ा क्योंकि गोली उसके जिस्म को पार कर गई थी। उस कमबख्त अफगान ने उसे गोली मार दी थी और मुझे भी लगभग झुलसा डाला था। मुझे बेहद गुस्सा आया लेकिन वह सरदार मेरे आदेश से बाहर था और उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि दुश्मन के घर में पकड़े गए किसी बदमाश से किए गये किसी वादे को पूरा करने की क्या जरूरत थी।”

थोड़ी देर के बाद मेसी और उसके साथियों ने किले के बीच के सहन से गोलियों की आवाज़ सुनी, और उन्होंने सोचा कि वहां जाकर देखा जाए क्योंकि वह हिस्सा बिल्कुल खाली मालूम हो रहा था। “हमने देखा कि सब लोग, अफ्सर, सिपाही, घोड़े वगैरा वहां एक बड़े से धातु जड़े दरवाज़े के सामने खड़े थे जिस पर मजबूत ताला लगा हुआ था। बंदूक के निशानों, लकड़ी के शहतीरों और दूसरे ज़ोरदार हमलों से किसी तरह उस दरवाज़े को ज़बर्दस्ती खोला गया और फिर हम बिल्कुल बेतरतीबी से किले के बीच के सहन में पहुंच गए जिसके दूसरी तरफ दीवाने-आम था। पूरे सहन में लूटी हुई गाड़ियां, पालकियां, डोलियां और बग्धियां पड़ी थीं और एक आध बंदूकें जो शायद जल्दी में पीछे छूट गई थीं।

“अब हम दीवाने-आम की तरफ बढ़े, जहां अस्थायी रूप से सिपाहियों के रहने के लिए कोठरियां बना दी गई थीं। वहां कोई पंद्रह जख्मी आदमी पड़े थे, जिनको हमारे सिपाहियों ने मारना चाहा। लेकिन अफसरों ने उन्हें रोका, और उनसे सवाल करने लगे। एक नौजवान मुसलमान मेरे करीब पड़ा था, जो बहुत बीमार लग रहा था। मैंने उससे पूछा कि सब सिपाही क्या हुए और बादशाह कहां हैं। उसने अपनी जान की अमान मांगी। मैंने उससे कहा कि अगर वह मेरे साथ चलेगा और बता देगा कि बादशाह कहां हैं, तो मैं उसकी सुरक्षा करूंगा। उसने कहा कि बादशाह और उनकी बेगम और छोटे बेटे अगले या सबसे अंदर के सहन में हैं। उस बदमाश ने झूठ बोला। क्योंकि बादशाह कई दिन पहले जा चुके थे और उसे यह मालूम था। मगर हमने उसका यकीन कर लिया। फिर अगले सहन की तलाशी के लिए पुकार लगाई गई।

“उसी वक्त वह काली दाढ़ी वाला आ गया और जैसे ही उसने बागियों को देखा उन पर हमला कर दिया। उसको कोई रोक नहीं सकता था और मेरे ख्याल से शायद कोई रोकना चाहता भी नहीं था। जहां तक अफसरों का सवाल था, तो वहां इतना शोर और हंगामा था कि हमें मालूम ही नहीं था कि क्या हो रहा है और अगर मालूम भी होता तो हम बेबस थे। कुछ कराहों और चीखों की आवाजें सारी दास्तान बयान कर रही थीं। मैंने उस आदमी को जिससे मैंने सुरक्षा का वादा किया था, कुछ सिपाहियों के पहरे में ज़िंदा छोड़ा लेकिन वह भी बाद में मारा गया। मैंने सुना कि उन बारह या पंद्रह जख्मी लोगों में मीर खान ने अकेले ही आठ को खुद मारा। मैंने कभी ऐसा खून का प्यासा जंगली नहीं देखा।

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