1857 की क्रांति: दिल्ली में सिपाही अंग्रेजों से मोर्चा ले रहे थे। इसी समय खबर आयी कि ग्वालियर से 2,000 सिपाहियों और नासिराबाद से 6,000 क्रांतिकारियों  की दर्खास्त आई है। उनका कहना था कि वे दिल्ली मार्च करने के लिए तैयार हैं, अगर बादशाह सलामत आदेश दें।

बहादुरशाह ज़फ़र ने जवाब लिखवाया कि “दिल्ली में 60,000 लोग जमा हैं और अभी तक अंग्रेजों को रिज पर से नहीं हटा सके हैं, तो तुम 6,000 क्या कर लोगे।” जब बख़्त खां ने शिकायत की कि सिपाही अब उसका कहना बिल्कुल नहीं मान रहे हैं, तो जफर ने जवाब दिया कि “तो उनसे कह दो कि वह शहर छोड़ दें।”

कुछ समय बाद उन्होंने कहाः

“यह असहनीय होता जा रहा है कि सिपाही सारे शहर को डरा-धमका रहे हैं। वह कसम खाकर यहां आए थे कि वह अंग्रेजों को तबाह करेंगे न कि अपने ही लोगों को! और यह बहुत घमंड से डींगें मारते हैं कि वह अपनी सुरक्षित जगहें छोड़कर अंग्रेजों को खत्म करने जा रहे हैं लेकिन फिर वह उसी तरह शहर वापस आ जाते हैं। अब तो यह साफ जाहिर हो रहा है कि अंग्रेज फिर से शहर पर कब्जा कर लेंगे और मुझे ही मार डालेंगे।”

इसलिए कोई ताज्जुब की बात नहीं थी कि जुलाई के आखिर में जब फिर से फौजी कमांड में तब्दीली हुई, तो बख्त खां को कमांडर-इन-चीफ के ओहदे से हटा दिया गया और पूरी फौज की कमांड एक कोर्ट ऑफ एडमिनिस्ट्रेशन को दे दी गई जिसके अध्यक्ष मिर्जा मुगल थे जो अपने पिता के नाम से उसको चला रहे थे। यह कोर्ट एक अजीब किस्म की संस्था थी, जिसमें चुनी गई सैनिक सत्ता थी जिसमें मुगल सियासत के उसूलों से ज्यादा यूरोपियन लोकतंत्र की झलक थी।

यहां तक कि कोर्ट के विभिन्न अफसरों के लिए अंग्रेजी अल्फाज इस्तेमाल किए जाते थे। इसके अनोखे कानून में दस सदस्य थे, जिसमें से फौज से चुने हुए थे, यानी दो पैदल फौज से, दो घुड़सवार दस्तों से छह और दो तोपखाने से, बाकी के चार सदस्य किले से थे। यह कोर्ट बाकायदगी से मिलता और फौजी और शहरी हाकिमों के दर्मियान संपर्क कायम करता। कभी-कभी वह दोनों के बीच भी पड़ता, जैसे इसने मिर्ज़ा खिजर सुल्तान को फटकार लगाई, जब वह बगैर इसकी इजाज़त के शहर के बैंकरों से पैसा ऐंठ रहा था और उनको गिरफ्तार कर रहा था।

लेकिन वह कभी भी एक केंद्रीय संयुक्त कमांड नहीं बन सका। बख़्त खां ने हमेशा इससे दूरी रखी और बचे हुए ग़दर के काग़ज़ात से जाहिर होता है कि यह कोर्ट पूरी तरह मिर्ज़ा मुग़ल और उनके फौजी मददगारों का था। लेकिन बरेली के दस्ते जो अभी भी बख़्त खां के तहत थे, हमेशा इससे आजाद रहे।

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