amir khusrau biography
अमीर खुसरो (amir khusrau) का जन्म हिजरी 651 (1253) में उत्तर प्रदेश के एटा जिले में पटियाली नामक स्थान पर हुआ था। पिता सफेशम्सी सुल्तान शम्सुद्दीन इल्तुतमिश व उनके उत्तराधिकारियों के समय में उच्च पदों पर आसीन रहे, जो अमीर मोहम्मद शैफुद्दीन थे।
मां बलबन राज्य के एक उच्चाधिकारी इमादुल्मुल्क की पुत्री थीं। उनकी विशेष रुचि कविता रचना में थी। मात्र आठ वर्ष की अवस्था (amir khusrau) से ही उन्होंने काव्य रचना प्रारंभ कर दी थी और बारह वर्ष की अवस्था तक कवि के रूप में प्रसिद्ध हो गए। फारसी और तुर्की के अलावा हिंदी का भी अध्ययन किया।
जेल जाना पड़ा
बलबन के राज्यकाल में अमीर खुसरो (amir khusrau) अलाउद्दीन किशूल खां के दरबार में नियुक्त हुए, तत्पश्चात् बलवन के बेटे बुगरा खां के यहां नौकरी की। इसके बाद बलबन के बड़े बेटे मोहम्मद के मुहासिब हो गए, जिसके साथ वह मुलतान में पांच वर्षों तक रहे।
सन् १२८४-८५ में मोहम्मद के मारे जाने के फलस्वरूप उनको अन्य सैनिकों के साथ मंगोलों के कैदखाने में कष्टदायक जीवन व्यतीत करना पड़ा। बाद में कैदी जीवन से मुक्ति के पश्चात् वे (amir khusrau) मुलतान से दिल्ली आए।
amir khusrau books
दिल्ली आने के बाद जलालुद्दीन खिलजी के समय सन् १२९० से १२९५ तक (amir khusrau) शाही पुस्तकाध्यक्ष रहे। १२९५ से १३१५ तक अलाउद्दीन के राज्यकाल में उनका संबंध दरबार से रहा, जहां उन्होंने अनेक गजलें और कविताएं लिखीं। सन् १३१६ से १३२० तक कुतुबुद्दीन मुबारकशाह के काल में भी उनकी प्रतिभा के कारण उन्हें बड़ा सम्मान प्राप्त हुआ।
इस राज्य काल में उन्होंने ‘नुह सिपेहर’ नामक कविता की रचना की, जिसमें तत्कालीन राज्य विशेषताओं का चित्रण किया गया था। गयासुद्दीन तुगलक के राज्यकाल (सन् १३२० से १३२५) में ‘तुगलकनामा’ नामक कविता लिखी।
amir khusrau was a famous poet in the court of
सन् १३२४ में वह सुलतान के साथ बंगाल गए। इसी बीच उनके आध्यात्मिक गुरु एवं संगीत साहित्य के प्रेरणा स्रोत हजरत निजामुद्दीन औलिया की मृत्यु हो गई। जब खुसरो (amir khusrau) गुरु के अंतिम दर्शन के लिए पहुँचे तो औलिया साहब का नश्वर शरीर पड़ा हुआ था तथा उनके बालों की कुछ लटें उनके चेहरे पर पड़ी हुई थीं।
उसे देखकर उन्होंने अपने गुरु को गोरी (प्रियतम) की संज्ञा देते हुए तत्काल पद में कहा-
गोरी सोई सेज पर मुख पर डारे केश
चल खुसरो घर आफ्नो सूना पड़ा ये देश।
कई भाषाओं का ज्ञान
खुसरो (amir khusrau) गुरु की मृत्यु के पश्चात् अधिक शोकाकुल रहने लगे और विरहाग्नि में जलते हुए कुछ ही दिनों के पश्चात् सन् १३२५ में ७२ वर्ष की आयु में अपना शरीर त्यागकर गुरुधाम को चले गए। उनकी (amir khusrau) मृत्यु के पश्चात् उनकी लाश को औलिया साहब की कब्र के पायताने में ही दफना दिया गया। वहाँ आज भी हर वर्ष गुरु व शिष्य के सम्मान में उसे मनाया जाता है तथा दोनों की मजार पर चादर चढ़ाई जाती है और दोनों के द्वारा रचित रचनाओं को कव्वालों व अन्य संगीतज्ञों द्वारा गाया जाता है।
अमीर खुसरो कई भाषाओं जैसे फारसी, उर्दू, अरबी एवं हिंदी के विद्वान् होने के साथ उच्च कोटि के राजनीतिज्ञ तथा दार्शनिक भी थे। इन सभी के अलावा उनमें संगीत की उद्भट एवं मौलिक प्रतिभा थी, जिसके आधार पर उन्होंने प्राचीन रागों व लों से पृथक कई रोगों व तालों की रचना की, साथ ही भारत के प्राचीन वाद्यों को पांतरित कर नए वाद्यों का सृजन किया।
गोपालनायक को छलपूर्वक हराया
सन् १२९४ में अलाउद्दीन खिलजी के दक्षिण भारत में विजयी होने के काल में उनके साथ खुसरो (amir khusrau) भी थे। वहां देवगिरि के राजगायक गोपालनायक से उनकी संगीत हुई, जिसमें उन्होंने छलपूर्वक गोपालनायक को हराकर उनको दिल्ली अपने साथ ले आए और संगीत संबंधी महत्त्वपूर्ण शिक्षा प्राप्त कर भारतीय संगीत में अभिनव प्रयोग प्रारंभ किया। इस क्रम में उन्होंने छोटा खयाल गायन शैली के अलावा कव्वाली तराना आदि की परंपरा चलाई संस्कृत के सस्वर मंत्र गायन के अनुकरण व अनुकृति कर उन्होंने फारसी के शब्दों व शेष निरर्थक शब्दों के पुट से तराना शैली का आविष्कार किया।
भारत के प्राचीन तंत्री वाद्य वीणा को रूपांतरित कर ‘सेहतार’ का निर्माण किया, जिसे आज हम ‘सितार’ के रूप में जानते हैं। इसी प्रकार कहा जाता है कि उन्होंने पखावज को दो खंडों में परिवर्तित कर तबला की रचना की। उन्होंने प्राचीन रागों से पृथक् कई रागों एवं तालों की भी रचना की। रागों में- शहाना, साजगिरि, पूरिया, पूर्वी, जिला तथा तालों में तीन साल, आड़ाचार ताल, झुमरा, पश्तों व सुलफाक प्रमुख हैं।
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