1857 की क्रांति: बर्मा में बहादुर शाह जफर कैदी की तरह रह रहे थे। उनके जेलर ने डेविस ने पत्रों के जरिए जफर की स्थिति बयां की है। डेविस ने यह भी बताया कि किस हद तक जफर और जीनत महल अपनी हालत का जिम्मेदार अपने भूतपूर्व विश्वासपात्र, निजी हकीम और वजीरे-आजम हकीम अहसनुल्लाह खां को ठहराते थे। निष्कलंक रूप से भरोसेमंद जहीर देहलवी समेत बहुत से चश्मदीद गवाहों का बयान है कि हकीम ने ही जफर को मजबूर किया था कि वह क्रांतिकारियों  को किले में बंद यूरोपियन कैदियों को कत्ल करने से न रोकें। और जब जफर पर यह इल्जाम लगाया गया कि उन्होंने खड़े होकर यह कत्ले-आम देखा तो हकीम ने जफर के खिलाफ अदालत में गवाही देकर अपने आपको फांसी या कैद तक से बचा लिया।

डेविस लिखता है:

“कैदियों के बयानों को हमेशा बहुत एहतियात से लेना चाहिए। लेकिन जीनत महल के खजाने को गंवाने में आजमुल्लाह खां नाम के एक आदमी का हाथ मालूम होता है–कम से कम सारे कैदी तो उससे बहुत नाराज हैं और कहते हैं कि यही आदमी है जो बादशाह का हकीम और सलाहकार था, वह शख्स था जिसकी कपट भरी सलाह की वजह से यूरोपियन कैदियों का विनाश हुआ था। यह बात, मेरा विश्वास है, सच नहीं है (हालांकि डेविस इस बारे में गलत था। अगर हकीम ने जफर से रुकने की गुजारिश नहीं की होती तो वह कैदियों को बचाने में कामयाब हो सकते थे)। लेकिन यह नामुमकिन नहीं है कि इस आदमी ने छिपे हुए खजाने के बारे में इत्तला दी हो और इस तरह उसने मलिका के हिमायतियों की दुश्मनी मोल ली हो। और ऐसा लगता है कि इस हकीम ने दिल्ली में अंग्रेज़ अधिकारियों का विश्वास हासिल कर लिया है, निस्संदेह माकूल वजहों से, और बेगम और उनके साथियों की नाराजगी इस राय को मजबूत करती है।”

फिर डेविस शाह जमानी बेगम पर ध्यान देता है जिनका वर्णन भी वह अपनी पत्नी से मिली जानकारी के आधार पर करता हैः

“एक कमउम्र खूबसूरत लड़की, शायद सिर्फ पंद्रह साल की, हालांकि वह दो बच्चों की मां बन भी चुकी थीं। उनको कैद की बंदिशों का अहसास औरों से ज्यादा महसूस होता लगता था। शायद इसकी वजह उनकी नाजुक सेहत हो, जिसकी वजह उनके यहां आने के फौरन बाद हुआ प्रसव हो सकती है। जैसा लेफ्टिनेंट ओमैनी ने मुझे बताया कि वह लड़का था और मृत पैदा हुआ था। बूढ़े बादशाह और उनकी पुत्रवधु दोनों को हर छोटी से छोटी बात में डाक्टरों की राय लेते है, और उस कमउम्र लड़की की बहुत ख़्वाहिश है कि उसको कभी-कभी बाहर घूमने जाने की इजाजत दी जाए।”

डेविस ने मिर्जा जवांबख्त और शाह अब्बास के बारे में लिखा कि – “दोनों बेटे सेहतमंद और काफी होनहार नौजवान हैं, जो अपनी परवरिश और रहन-सहन में काफी भिन्न हैं। बड़ा जवांबख्त अपने बर्ताव और तौर-तरीके से अपनी श्रेष्ठता का इजहार करता है। इसकी वजह शायद खानदान में उसकी मौजूदा हैसियत है, न कि उसका किरदार और कोई उपलब्धियां। वह एक शहजादा पैदा हुआ है जबकि उसका कमनसीब सौतेला भाई एक दासी का बेटा है। दोनों ही काफी जाहिल हैं, बड़े की योग्यता सिर्फ इतनी है कि उसको फारसी पढ़ने और लिखने की कुछ जानकारी है, लेकिन जब मामूली से मसलों पर भी बात की जाती है तो उनकी ज्ञान की कमी एकदम जाहिर हो जाती है। उनको अपने मुल्क की सीमाओं तक के बारे में कोई जानकारी नहीं है।

“मुझे लगता है कि चूंकि मैं ही एक ऐसा जरिया हूं जिससे उनकी ख्वाहिशें सुनी जा सकती हैं, इसलिए हुकूमत की जानकारी के लिए यह बता दूं कि दोनों लड़के शिक्षा प्राप्त करने की सराहनीय इच्छा जताते हैं। उन्होंने अक्सर अपनी दिली ख्वाहिश जाहिर की है कि वह खासतौर से अंग्रेजी सीखना चाहते हैं और वह यह भी जानते हैं कि अगर वह ऐसा करेंगे तो यह उनकी मौजूदा जिहालत के कलंक को न सही उनकी बदकिस्मती को दूर करने की तरफ एक कदम होगा। वह कहते हैं कि उन्होंने दिल्ली के कमिश्नर से इच्छा जताई थी कि उनको दूसरी किसी जगह के बजाय इंग्लैंड भेजा जाए। लड़कों के माता-पिता ने भी इस सिलसिले में मुझसे बात की है और सबकी ख़्वाहिश है कि इस ओर शुरूआत होनी चाहिए। दोनों लड़के काफी जहीन हैं और उम्मीद है कि वह जल्दी तरक्की करेंगे। उन्होंने मुझसे वादा किया है कि अगर हुकूमत ने इस पेशकश को मान लिया तो वह बहुत मेहनत से पढ़ेंगे। मैंने उनसे कहा है कि मैं उनकी ख़्वाहिश हुकूमत तक पहुंचा दूंगा।”

डेविस ने कंपनी को लिखे पत्र में दोनों लड़कों की उम्मीद जाहिर की और राय दी कि अगर उन दोनों को इंग्लैंड भेज दिया जाए तो अपने तौर-तरीके सिखाकर उन्हें अंग्रेजों के तरफदार मुगल शहजादे बनाया जा सकता है। डेविस ने यह भी लिखा कि जफर और जीनत महल भी इस योजना का समर्थन करते हैंः “मैंने बहुत सावधानी से उन लड़कों को ऐसा कोई प्रोत्साहन नहीं दिया है कि वह यह सोचें कि हुकूमत उनके मामले में दखल देगी। लेकिन जैसे-जैसे उनके पिता की ज़िंदगी के दिन कम होते जा रहे हैं, उन दोनों नौजवानों के हालात और जिंदगी में कुछ तब्दीली लाना जल्दी ही मुमकिन हो सकता है।

“इन हालात में इससे इंकार नहीं किया जा सकता कि यूरोपियन शिक्षा प्राप्त करने की उनकी मौजूदा ख़्वाहिश को बढ़ावा देने का अच्छा-खासा नैतिक और सियासी फायदा हो सकता है। इससे उनकी उत्सुकता खुलेगी, शायद उनका अराष्ट्रीयकरण करने का यही एक तरीका है, जिसका नतीजा गुप्त मगर आपसी उम्मीदों के समावेश के रूप में बेहद ज़बर्दस्त फायदा होगा… एक वंश के वारिसों और रिआया के बीच जो एक विदेशी ताक्त के अधीन है।

लड़कों के माता-पिता ने भी इस बारे में मुझसे बात की है और सबकी यही रुवाहिश लगती है कि यह काम तुरंत शुरू हो जाना चाहिए…

“उनकी यह स्वाहिश हमें बहुत अच्छा मौका देती है कि हम उनका और उनके देश के लोगों का आपसी रिश्ता खत्म कर दें और जो उन्हें पूरी तरह से हिंदुस्तानी जिंदगी की तंगनज़र दुनिया और उसके पूर्वाग्रहों और मूर्खताओं से अलग रखने पर ज़्यादा आसान होगा। और एक उपयोगी दिमाग पर काम करके लाए ऐसे बदलाव का फायदा महाराजा दलीप सिंह की मिसाल से साबित हो चुका है…

(महाराजा दलीप सिंह लाहौर के मशहूर सिख बादशाह रंजीत सिंह के सबसे छोटे बेटे थे और दस साल की उम्र में लाहौर के बादशाह बन गए थे। 1849 में अंग्रेजों और सिखों की लड़ाई में उनको गद्दी से हटा दिया गया था। वह 1854 में ब्रिटेन गए, जहां वह ईसाई बन गए और मलिका विक्टोरिया के कृपापात्र बन गए थे, जो अक्सर उन्हें ऑज्बर्न में अपने साथ रहने के लिए बुला लेती थीं। उन्होंने ईस्ट एग्लिया में एल्वेडेन में एक कंट्री हाउस खरीद लिया, खासकर तीतर के शिकार के उनके शौक को पसंद करते हुए अंग्रेज़ उन्हें काले अंग्रेज़ साहब की मुकम्मल मिसाल समझते थे।) “…और यह लड़के भी उम्र के इस दौर में हैं जब आसानी से दिमाग में अच्छे प्रभाव डाले जा सकते हैं और स्वाभाविक योग्यताएं उभारी जा सकती हैं, जब बिना किसी मुश्किल के नैतिक नियम मन में बिठाए जा सकते हैं और अंदरूनी बुराइयां दूर की जा सकती हैं, और जब उनको खुद यह ज्ञान करवाया जा सकता है कि असली खुशी पाने के लिए नैतिकता बहुत जरूरी है और यह व्यावहारिक नैतिकता उनकी जिंदगी और बर्ताव का एक हिस्सा बन सकती है।

“इसे नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता कि वह वक़्त जल्द आने वाला है जब ये दोनों नौजवान वयस्क हो जाएंगे और जो लोग उनके ऊपर हैं, यह उनके हाथ में है कि उनके भविष्य को सही रास्ता दिखाएं। क्या इस ओहदे के साथ कोई जिम्मेदारी नहीं है? “इसलिए सबसे पहली और अहम बात यह है कि उन्हें बढ़ने की जगह दी जाए और उन्हें इस कट्टरपन, अंधविश्वास भरी अज्ञानता और फलस्वरूप आने वाली गिरावट के खराब माहौल से बिल्कुल अलग रखा जाए, जिससे वह आजकल घिरे हुए हैं। यहां उनके साथी सिर्फ नौकर हैं, जो शिक्षा और नैतिकता दोनों से अनजान हैं-एशियाई हरम की बची-खुची तलछट ।”

डेविस ने अपने खत के आखिर में जफर के नौकरों के बारे में थोड़ा सा बयान किया है, जिन्होंने देश निकाले और कैद में उनके साथ रहना पसंद किया था। लेकिन इस सराहनीय वफादारी की डेविस को कोई कदर न थी।

“जफर के नौकरों के बारे में बस इतना कह सकता हूं कि उनके तौर-तरीकों में गंदे और किसी भी अफसर के घर के मामूली नौकरों से भी कम दर्जे के। इकलौता अपवाद सिर्फ अहमद वेग है। वह काफी इज्ज़तदार बुजुर्ग मालूम होता है और सिवाय वफादारी के भूतपूर्व बादशाह की खिदमत करने की उसकी और कोई गर्ज नहीं है। लेकिन बेगम के नौकर अब्दुर्रहमान का मामला थोड़ा अलग है। वह ओछा और चालाक है और मुझे कोई खास इत्मीनान नहीं है कि उसका मलिका से क्या रिश्ता है, सिर्फ नौकर का या इससे कुछ ज़्यादा। ” डेविस का मशवरा कि शाहजादों को इंग्लैंड भेज दिया जाए, कलकत्ता में उसके आला अफसरों ने फौरन और निर्णायक ढंग से नामंजूर कर दिया। उन्होंने उससे साफ कह दिया कि आइंदा कभी “वह अपने खतों या डायरी में ऐसी फिजूल बातों का जिक्र न करे, जिनसे हुकूमत का कोई वास्ता नहीं है। डेविस को ‘अपदस्थ बादशाह’ या ‘भूतपूर्व शाही खानदान’ या ‘बेगम’ जैसे शब्द इस्तेमाल करने पर भी लताड़ा गया। “काउंसिल के गवर्नर जनरल की दर्खास्त है कि कैप्टन डेविस को भविष्य में इस तरह के खिताब लिखने से बचने की हिदायत दी जाए।” उससे कहा गया कि उनका जिक्र सिर्फ ‘दिल्ली सल्तनत के कैदी’ कहकर करे।

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