1546 ई. में जब सलीम शाह सूरी ने यह सुना कि हुमायूँ फिर हिंदुस्तान आ रहा है तो वह लाहौर से दिल्ली लौट आया और यहां उसने दीनपनाह के विलमुकाबल यमुना नदी के पानी के बीच में सलीमगढ़ की इमारत बनवाई, ताकि हिंदुस्तान में उससे बड़ा मजबूत कोई किला न हो सके, क्योंकि इसकी बनावट से ऐसा मालूम होता है कि जैसे एक ही पत्थर से यह सारे का सारा बना है। यह मुसलमानों की ग्यारहवीं दिल्ली थी।
यह किला अर्द्ध-गोलाकार है और किसी वक्त इसके 19 बुर्ज इसकी रक्षा के लिए बने हुए थे। कहते हैं, इसमें सलीम शाह के चार लाख रुपये लगे थे। लेकिन केवल दीवारें बन पाई थीं कि बादशाह की मृत्यु हो गई और वह वैसा ही उपेक्षित पड़ा रहा।
अस्सी वर्ष बाद फरीद खां ने, जिसे मुर्तजा खां भी कहते हैं और जो अकबर और जहांगीर के वक्त में एक प्रभावशाली अमीर था, यह किला और दूसरे स्थान जो यमुना के किनारे पर थे, अकबर से जागीर में ले लिए और इस किले में मकान बनवाए। 1818 ई. में ये इमारतें बिल्कुल खंडहर बन चुकी थीं। लेकिन एक दोमंजिला पवेलियन और एक बाग अकबर सानी ने सुरक्षित किया हुआ था, जो वह अपनी सैरगाह के तौर पर इस्तेमाल किया करता था। 1788 ई. में गुलाम कादिर अपने साथियों के साथ इस किले में से भागा था और उसने वह पुल पार किया था, जो लाल किले से इसे मिलाता है। यह पुल जहांगीर ने बनवाया था।
किले पर से अब यमुना के पुल के पास रेल गुजरती है। जैसा कि बताया गया है, 1546 ई. में इसे सलीम शाह ने बनवाया था। यह शाहजहां के किले के उत्तरी कोने में बना हुआ है और लाल किला बनने के पश्चात इसको शाही कैदखाने के तौर पर काम में लाया जाता था। यह लंबाई में पाव मील भी नहीं है और किले का तमाम चक्कर पौन मील के करीब है। यह यमुना के पश्चिमी किनारे पर एक द्वीप में बना हुआ था। नूरुद्दीन जहांगीर ने पांच महराबों का एक पुल इसके दक्षिणी दरवाजे के सामने बनवाया था। तभी से इसका नाम नूरगढ़ पड़ गया था। लेकिन आम नाम सलीमगढ़ ही रहा।