श्री गणेश अष्टकम: गणेश जी की महिमा और शक्ति का वर्णन
दी यंगिस्तान, नई दिल्ली।
श्री गणेश अष्टकम एक दिव्य और शक्तिशाली स्तोत्र है, जो भगवान गणेश की उपासना और उनके गुणों का विस्तार से वर्णन करता है। यह स्तोत्र विशेष रूप से गणेश चतुर्थी और अन्य धार्मिक अवसरों पर गाया जाता है। भगवान गणेश को विघ्नहर्ता, बुद्धि और समृद्धि के देवता माना जाता है, और यह अष्टकम उनके आशीर्वाद को प्राप्त करने का एक प्रभावशाली उपाय है। इस स्तोत्र में भगवान गणेश के विभिन्न रूपों और उनके गुणों का गान किया गया है, जो भक्तों को आंतरिक शांति और समृद्धि की ओर मार्गदर्शन करता है।
(1)
गणपतिपरिवारं चारुकेयूरहारं
गिरिधरवरसारं योगिनीचक्रचारम् ।
भवभयपरिहारं दुःखदारिद्र्यदूरं
गणपतिमभिवन्दे वक्रतुण्डावतारम् ॥ 1 ॥
गणेशजी सभी गणपतियोंके परिवारमें विराजमान रहनेवाले हैं, वे सुन्दर केयूर तथा हारसे सुशोभित हैं और श्रीकृष्णके श्रेष्ठ अंशस्वरूप वे योगिनीचक्रमें विचरण करनेवाले हैं, सांसारिक भय समाप्त करनेवाले हैं, दुःख तथा दरिद्रताका नाश करनेवाले हैं; मैं वक्रतुण्डावतार धारण करनेवाले श्रीगणेशजीकी वन्दना करता हूँ ॥ १ ॥
(2)
अखिलमलविनाशं पाणिना हस्तपाशं
कनकगिरिनिकाशं सूर्यकोटिप्रकाशम् ।
भज भवगिरिनाशं मालतीतीरवासं
गणपतिमभिवन्दे मानसे राजहंसम् ॥ 2 ॥
अपने हाथकी वरदमुद्राके द्वारा प्राणियोंके समग्र दोषोंको दूर करनेवाले, हाथमें पाश धारण करनेवाले, सुमेरुपर्वतके समान कान्तिवाले, करोड़ों सूर्योक समान प्रकाशवाले, संसाररूपी पर्वतका नाश करनेवाले, मालतीनदीके तटपर निवास करनेवाले गणेशको भजिये। [योगियोंके मनरूपी] मानसरोवरमें राजहंसके समान विचरण करनेवाले [उन्हीं भजनीय] श्रीगणपतिजीकी मैं वन्दना करता हूँ ॥ 2॥
(3)
विविधमणिमयूखैः शोभमानं विदुरैः
कनकरचितचित्रं कण्ठदेशे विचित्रम् ।
दधति विमलहारं सर्वदा यत्नसारं
गणपतिमभिवन्दे वक्रतुण्डावतारम् ॥ 3॥
जो वैदूर्यादि विविध मणियोंकी किरणोंसे सुशोभित हैं, सुवर्णजटित चित्रमय विचित्र धवलहारको कण्ठदेशमें जो सर्वदा धारण करते हैं, जो सभी सत्प्रयत्नोंके सारस्वरूप हैं, उन वक्रतुण्डका अवतार धारण करनेवाले श्रीगणपतिजीकी मैं वन्दना करता हूँ ॥ 3॥
(4)
दुरितगजममन्दं वारणीं चैव वेदं
विदितमखिलनादं नृत्यमानन्दकन्दम् ।
दधति शशिसुवक्त्रं चाङ्कुशं यो विशेषं
गणपतिमभिवन्दै सर्वदानन्दकन्दम् ॥ 4 ॥
प्राणियोंको दुःख देनेवाले पापरूपी प्रचण्ड हाथीको रोकनेमें समर्थ, ज्ञानमूर्ति, समस्त नादसमूहका ज्ञान रखनेवाले, सदा नृत्य करनेवाले सबको आनन्द प्रदान करनेवाले, हाथमें अंकुश जारण करनेवाले, चन्द्रमाके समान सुन्दर मुखवाले, सदैव आनन्दरूपवाले उपर्युक्त विशेषणोंसे विशिष्ट गणपतिजीकी मैं वन्दना करता हूँ ॥ 4 ॥
(5)
त्रिनयनयुतभाले शोभमाने विशाले
मुकुटमणिसुढाले मौक्तिकानां च जाले।
धवलकुसुममाले यस्य शीर्णः सताले
गणपतिमभिवन्दे सर्वदा चक्रपाणिम् ॥5 ॥
सुन्दर तथा विशाल तीन नेत्रोंसे युक्त भालवाले, मुकुटपर बहुमूल्य मणि धारण करनेवाले, मुक्ताओंसे सुशोभित हार धारण करनेवाले, मस्तक एवं भालपर शुभ्र फूलोंकी माला धारण करनेवाले, कानोंको सदा डुलानेवाले, हाथमें चंक्र धारण करनेवाले गणपतिजीकी मैं सदा वन्दना करता हूँ ॥ 5॥
(6)
वपुषि महति रूपं पीठमादौ सुदीपं
तदुपरि रसकोणं यस्य चोर्ध्वं त्रिकोणम् ।
गजमितदलपद्म संस्थितं चारुछद्यं
गणपतिमभिवन्दे कल्पवृक्षस्य वृन्दे ॥ 6 ॥
श्रीगणपति-यन्त्रके मध्यमें त्रिकोणाकार जो दीपक है, उसके मध्यमें गणेशजीकी पीठ है, उसके ऊपर छः कोण बने हुए हैं जिसका ऊर्ध्व भाग त्रिकोण है; इस यन्त्रमें पद्मके आठ दल हैं। इस कल्पवृक्षके वनमें अव्यक्तरूपसे सुशोभित रहनेवाले गणपतिजीकी मैं वन्दना करता हूँ ॥ 6 ॥
(7)
वरदविशदशस्तं दक्षिणं यस्य हस्तं
सदयमभयदं तं चिन्तये चित्तसंस्थम् ।
शबलकुटिलशुण्डं चैकतुण्डं द्वितुण्डं
गणपतिमभिवन्दे सर्वदा वक्रतुण्डम् ॥ 7॥
निरन्तर वरदान देनेके निमित्त जिनका विशाल हाथ सदा दक्षिण दिशामें रहता है, जो दयावान् हैं, अभय देनेवाले हैं तथा प्राणिमात्रके हृदयमें विराजमान रहते हैं, उन गणिपतिजीका मैं चिन्तन रता हूँ। जिनकी सूँड़ चित्र-विचित्र तथा टेढ़ी-मेढ़ी है, जो एकमुखवाले तथा दो मुखवाले हैं, उन वक्रतुण्ड गणपतिजीकी मैं सदा वन्दना करता हूँ ॥7॥
(8)
कल्पद्रुमाधः स्थितकामधेनुं
चिन्तामणिं दक्षिणपाणिशुण्डम् ।
बिभ्राणमत्यद्भुतचित्तरूपं
यः पूजयेत्तस्य समस्तसिद्धिः ॥ 8॥
दक्षिण हाथकी ओर सूँड़वाले, कल्पवृक्षके नीचे स्थित कामधेनु- स्वरूप, चिन्तामणिके समान फल देनेवाले और अद्भुत सुन्दररूप धारण करनेवाले गणेशजीकी जो पूजा करता है, उसके मनोरथोंकी पूर्ण सिद्धि हो जाती है! ॥8॥
(9)
व्यासाष्टकमिदं पुण्यं गणेशस्तवनं नृणाम् ।
पठतां दुःखनाशाय विद्यां सश्रियमश्नुते ॥ ९ ॥
॥ इति श्रीपद्मपुराणे उत्तरखण्डे व्यासरचितं श्रीगणेशाष्टकं सम्पूर्णम् ॥
वेदव्यासजीके इस गणेशाष्टक स्तवनका पाठ करनेसे मनुष्योंको पुण्य प्राप्त होता है, इसका पाठ करनेवालेका दुःख समाप्त हो जाता है और उसे लक्ष्मीसहित विद्याकी प्राप्ति हो जाती है॥9॥ ॥
इस प्रकार श्रीपद्मपुराणके उत्तरखण्डमें व्यासरचित श्रीगणेशाष्टक सम्पूर्ण हुआ ॥