श्री सतगुरु राम सिंह जी ने शुरू किया कूका आंदोलन

दी यंगिस्तान, नई दिल्ली।    

श्री सतगुरु राम सिंह जी का जन्म सन् 1826 में लुधियाना जिले के भैनी गांव में जस्सा सिंह और सेधा कौर के घर हुआ था। बड़ा होने के बाद वह सिख सेना में भर्ती हो गए। अपनी रेजीमेंट में सेवाकाल के दौरान वह हजरो के सिख संत, भाई बालक सिंह और उनके नामधारी या कूका आंदोलन से प्रभावित हुए। शीघ्र ही वह भाई बालक सिंह के शिष्य बन गए और उन्होंने स्वयं को इस मिशन के लिए समर्पित कर दिया।

सन् 1845 के अंग्रेज-सिख युद्ध में बाबा राम सिंह जी मुड़की में अंग्रेजों के विरुद्ध लड़े। उन्होंने शीघ्र ही नौकरी छोड़ दी और अपने गांव भैनी लौट आए, जो नामधारी आस्था का एक महत्वपूर्ण केन्द्र बन गया। सन् 1862 में बाबा बालक सिंह की मृत्यु के बाद सारी जिम्मेदारी बाबा राम सिंह जी पर आ गई जिनके बढ़ते प्रभाव से मध्य और पूर्वी पंजाब में कूका आंदोलन के विस्तार में मदद मिली। इस आंदोलन में एक पवित्र और सरल जीवन के लिए धार्मिक मान्यताओं का गुणगान किया गया। इस धर्म के अनुयायी उच्च कर्णभेदी आवाज में गुरबानी के गायन की अद्वितीय शैली के कारण ‘कूका’ कहलाए।

बाबा राम सिंह जी के जीवन का उद्देश्य जाति संबंधित सारे भेदभावों को समाप्त करना था। उन्होंने विधवाओं के पुनर्विवाह का भी समर्थन किया, लोगों को मद्यपान और नशीली दवाओं के सेवन से परहेज करने के लिए प्रेरित किया तथा अपने शिष्यों को निर्मल एवं सत्यवादी बनने के लिए प्रोत्साहित किया। उन्होंने गोमाता की पूजा करने, विवाह की रस्म को सादगीपूर्ण ढंग से निवाहने तथा भ्रूण हत्या को रोकने पर जोर दिया। कुका सम्प्रदाय के बीच सर्वोच्च राष्ट्रीय भावना और धार्मिक उत्साह का प्रसार हुआ और बाबा राम सिंह जी इस सुसंगठित व्यवस्था के केन्द्र बिन्दु बन गए। देश में राष्ट्रीय चेतना के विकास की दिशा में कुका आंदोलन ने एक महत्वपूर्ण स्थान हासिल किया।

बाबा राम सिंह जी ने अंग्रेजी शासन को कभी स्वीकार नहीं किया। उन्होंने अपनी आंखों से देखा कि अंग्रेज किस प्रकार विभाजन के बीज बो रहे थे, खालसा सम्प्रदाय के बीच किस प्रकार देशद्रोह को बढ़ावा दे रहे थे। उन्होंने अपने समुदाय की आंतरिक कमजोरी तथा विदेशी शासकों के बाहरी खतरे को भी देखा। उनके अनुयायियों को सरकारी सेवा में जाने, न्यायालयों में जाने तथा अंग्रेजी भाषा सीखने से मना कर दिया गया था। इस प्रकार इस आन्दोलन को अत्यधिक राजनीतिक पूर्वाग्रह का सामना करना पड़ा। इस आंदोलन की मुख्य प्रेरणा विदेशी शासन के विरोध से प्राप्त हुई थी और विदेशी शासन की याद दिलाने वाली किसी भी चीज से परहेज किया जाता था। अंग्रेजी शिक्षा, मिल निर्मित वस्त्र और अन्य आयातित वस्तुओं का बहिष्कार किया जाता था।

कूका आंदोलन पर कड़ी नजर रखी जा रही थी और विभिन्न जिलों से खुफिया अधिकारियों द्वारा इसके उद्देश्यों और गतिविधियों के बारे में चौंका देने वाली रिपोर्ट भेजी गईं। यह अफवाह फैलायी गई कि अंग्रेजों से लड़ने के लिए बाबा राम सिंह जी एक सेना तैयार कर रहे हैं। भैनी और हजरो पर लगातार नजर रखी जाती थी और पंजाब सरकार के आदेश से बाबा राम सिंह जी को उनके गांव में ही नजरबंद कर दिया गया। पूरे पंजाब में कूका आंदोलन की गतिविधियां रोक दी गई।

कूका लोगों ने, जो गाय को बहुत पूज्य मानते थे, अमृतसर के पवित्र शहर में गोमांस की दुकानें खोले जाने पर अत्यधिक नाराजगी व्यक्त की। 14 जून, 1870 की रात्रि को कूका लोगों के एक उग्र समूह ने चार कसाइयों को मार डाला। ऐसी ही घटना लुधियाना जिले के रायकोट में भी हुई। अमृतसर और लुधियाना की घटनाओं के लिए 8 कूका लोगों को फांसी दी गई थी और अन्य को लंबी सजा सुनाई गई थी।

सरकार ने राम सिंह जो पर अपने गांव जाने पर लगाये गए प्रतिबंध संबंधी आदेश को पुनः लागू किया तथा धार्मिक उत्सवों पर कुकाओं के इक‌ट्ठा होने पर भी पाबंदी लगा दी थी परन्तु कुकाओं का गुस्सा भड़क चुका था और जनवरी 1872 के माघी उत्सव में वे सैकड़ों की संख्या में भैनी में इकट्ठा हुए। जिन व्यक्तियों को फांसी दी गई थी उनकी बहादुरी का भाषणों में गुणगान किया गया।

राम सिंह जी को अपने अनुयायियों को शांतिपूर्वक अपने-अपने घर जाने हेतु मनाने में कुछ परेशानी हुई थी। तथापि, एक समूह ने अपने गुरु के सुझाव को अनदेखा किया और मालेरकोटला-एक मुस्लिम राज्य जहां गोवध की अनुमति थी, पर हमला करने का निर्णय लिया। मालेरकोटला के रास्ते में लुधियाना के डिप्टी कमिश्नर श्री एल. कोवान ने 68 कूकाओं को गिरफ्तार किया और किसी भी तरह की सरकारी औपचारिकता निभाये बगैर 66 कैदियों को तोप के मुंह से बांधकर उड़ा दिया।

मालेरकोटला की घटना के बाद समस्त कूका आंदोलन को गैर-कानूनी घोषित कर दिया गया और भैनी में एक पुलिस पोस्ट स्थापित कर दी गयी। इस आंदोलन के मुख्यालय पर भी कब्जा कर लिया गया और बाबा राम सिंह जी सहित सभी मुख्य नेताओं को हिरासत में ले लिया गया। बाबा राम सिंह जी को पहले इलाहाबाद भेजा गया और बाद में बर्मा भेजा गया जहां सन् 1885 तक मृत्युपर्यन्त वह सरकार के कैदी के रूप में रहे।

बाबा राम सिंह जी 13 वर्ष की लम्बी अवधि तक कैद में रहे। ईश्वर के प्रति उनका अटूट विश्वास और उनके अनुयायियों की उन पर अगाध श्रद्धा ने उन्हें इस एकांतवास में सहारा दिया। बाबा राम सिंह जी द्वारा लिखे गए अनेक पत्र संभाल कर रखे गए हैं। ये पत्र बाबा राम सिंह जी के अटूट विश्वास, अपनी बात कहने के उनके साहस और अपने अनुयायियों के प्रति उनके प्रेम को स्पष्ट रूप से दशति हैं। बाबा राम सिंह जी का 29 नवम्बर, 1885 को रंगून, बर्मा (अब म्यांमार) में निर्वासित जीवन व्यतीत करने के दौरान, निधन हो गया।

अपने गौरवपूर्ण जीवनकाल में भी सतगुरु राम सिंह जी ने देश की स्वतंत्रता हेतु और समाज की कुरीतियों के विरोध में लोगों को एकजुट किया। उन्होंने लोगों में धार्मिक जागरूकता पैदा की जिससे उनमें आत्म सम्मान और देश के लिए बलिदान देने की भावना जागृत हुई। असहयोग और स्वदेशी आंदोलन का राजनीतिक हथियार के रूप में उपयोग करने वाले वह पहले व्यक्ति थे। राम सिंह जी द्वारा 1860 के दशक में प्रचारित आदर्शों को महात्मा गांधी द्वारा 60 वर्षों बाद पुनः अपनाया गया। इस अल्प अवधि में लाखों लोग उनके अनुयायी बने और परिणामस्वरूप अपनी दासता और गुलामी के प्रति जागरूक हुए। यद्यपि अंग्रेज सरकार ने कूका आंदोलन को समाप्त करने का प्रयास किया परन्तु वे भी सत्गुरु बाबा राम सिंह जी द्वारा जलाई गई स्वतंत्रता की मशाल को नहीं बुझा सके।

[ श्री बलविंदर सिंह द्वारा निर्मित सतगुरु राम सिंह जी के चित्र का अनावरण 22 दिसम्बर, 2008 को भारत के माननीय प्रधानमंत्री, डा. मनमोहन सिंह द्वारा किया जाएगा। यह चित्र कूका शहीद स्मारक न्यास, पंजाब द्वारा भेंट किया गया है।]

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