बहादुर शाह जफर की महफिल शाम को सजती थी। यह महफिल कई तरह की हो सकती थी: तानरस खां की गजलें, सारंगी नवाजों की मौसीकी, दरबारी दास्तानगो की दास्तानगोई या किले की रक्कासाओं का नाच। सबसे ज़्यादा मशहूर जफर के अंधे सितारनवाज हिम्मत खां थे।

सर सैयद अहमद खां का कहना था कि ध्रुपद में कोई उनकी बराबरी नहीं कर सकता था। “अगर तानसेन जिंदा होता, तो वो बड़ी विनम्रता के साथ उनके शागिर्द बन जाते… हर जगह के शासक और अमीर उन्हें अपनी सेवा में लेना चाहते थे और उन्हें ढेर सारी दौलत के प्रस्ताव देते, लेकिन वह दिल्ली से हिलने को तैयार नहीं हुए। इसकी कारण था वह सुकून जो कलाकारों के लिए महत्वपूर्ण है।

कोई भी गवैया जो शाहजहानाबाद आता और संगीत की कला में महारत का दावा करता, वह उनकी एक तान सुनकर ही अपना सुर-ताल भूल जाता और उनके पैरों की खाक को अपनी आंखों की सजावट मान लेता… इस बाकमाल और असाधारण योग्यता के मौसीकार के राग अंदरूनी गम और रूहानी दर्द की रोशनी से भरे होते थे।

कभी-कभी जफर को तन्हाई की ख्वाहिश होती, तो वह अकेले बैठकर शतरंज खेलते और नए चांद के निकलने का इंतज़ार करते, और कभी खाने के बाद खामोश बैठकर चांदनी का लुत्फ उठाते। अगर जफर कभी जल्द सोने चले जाते, यानी आधी रात के बाद, तो गाने वाले उनकी ख़्वाबगाह में बुलाए जाते, जहां वह पर्दे के पीछे से गाना सुनाते और मालिश करने वाले उनके हाथ-पैर दबाते और बाहर बू सीना के पहरेदार तैनात होते। 1852 में तानरस खां की बदनामी के बाद ज़फ़र की पसंदीदा गाने वाली एक खानम नाम की गवैया थी।” कभी-कभी यह औरतें पर्दे के पीछे से ख्वाबगाह के अंदर पहुंच जाती थीं।

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