मुंशी फोया भी बड़े मशहूर पतंगबाज थे। एक ही वक़्त में पांच-पांच पतंगें अपनी पांचों उंगलियों में उनकी अलग-अलग डोर बांधकर उड़ाते थे। अक्सर अंटी किए फिरते रहते थे। दिल्ली में आदम कद की पतंगें भी उड़ाई गई, मगर थोड़े दिन बाद इन पतंगों की जगह चंग उड़ाए गए। चंग की लंबाई-चौड़ाई यकसा होती थी और उसको दूर आसमान में उड़ा कर सुध कर दिया जाता था। वे गुड्डियों में पाजेब की सी छोटी-छोटी घंटियां भी बांध देते थे जो हवा के झोंकों से बजती रहती। उनके बारे में यह भी मशहूर था कि पतंग के टुड्डे में एक छोटी-सी सूई आर-पार कर देते थे और झुकाई देने पर उनकी यह सूई विरोधी की पतंग को फाड़कर रख देती थी। मगर यह बात नियम विरुद्ध थी। फिर भी मुंशी फोया बड़ी होशियारी से किसी-किसी प्रतियोगिता में ऐसा कर जाते थे।

लाल किले की पतंगबाजी

जिस जगह पर किले वालों की पतंगबाजी होती थी उसे सलीमगढ़ कहते थे। उसका दूसरा नाम नूरगढ़ था। यह लाल किले के उत्तर में बाएं कोने पर स्थित था। जहां तीसरे पहर का वक़्त हुआ, क़िले वाले अपने सामान के साथ रवाना होने शुरू हो गए। बादशाह तख़्त-ए-रवां पर आते। एक तरफ बादशाही पतंगबाज़ मिर्जा यावर बहुत की अगुवाई में इकट्ठे हो जाते और दूसरी तरफ मुईनुल-मुल्क नजाकत खां शाही नाजिर और उनके साथी होते थे। शहजादा मिर्ज़ा यावर बख़्त जो पतंगबाजी के बड़े माहिर थे, बादशाह से भी पेंच लड़ाते थे।

शहरवालों की पतंगबाजी घटा मस्जिद के बाहर जमना के किनारे रेत के मैदान पर होती थी। जुमे की नमाज के बाद पतंगबाजों की एक बड़ी भीड़ लग जाती। शब-ए-बारात, ईद और बकरीद के मौकों पर तो खास तैयारियों की जाती। मेले लग जाते और जगह-जगह तंबू और शामियाने खड़े कर दिए जाते। हिन्दू भी इन मेलों में शरीक होते थे और पतंग उड़ाते थे। वसंत पंचमी, जन्माष्टमी और मकर संक्रांति के अवसरों पर भी जबरदस्त पतंगबाजी होती थी और मुसलमान भी शामिल होते थे। जिस शाम को सारा आकाश तरह-तरह की गुड्डियों और पतंगों से भर जाता तो मुसलमान भी समझ जाते कि आज जन्माष्टमी का त्योहार है। त्योहारों पर लोग पतंगों को इतना उड़ा देते थे कि आसमान से चिपकी लगती। दिल्ली के पतंगबाजों को इतनी महारत हासिल थी कि जरा पतंग चकराई तो खिंचाई करके तुरंत सुध कर लेते।

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