चलिए,आज आपको कहानी सुनाते हैं। कहानी, पुरानी दिल्ली की संकरी गलियों की। इन गलियों में पनपे प्यार, मोहब्बत, भाई-चारे की। कहानी, पीर बाबा की। कहानी, रजिया सुल्तान की। मुगलों के शान की, पुरानी दिल्ली के अरमान की। कहानी उस शख्स की जो मीठा बोल लोगों को टोपी पहना देता था। कहानी, जो चेहरे पर हंसी लाती है। कुछ कहानियां गुदगुदागती है, कुछ पुराने दिनों की याद ताजा कर देती हैं तो कुछ ऐसी भी हैं जिन्हें सुनकर आंख नम हो जाती है। ये कहानियां यहीं पुरानी दिल्ली की संकरी गलियों में पनपी और पली-बढ़ी। गुजरते वक्त के साथ विकास की दौड़ में लोग तो बहुत आगे बढ़ गए लेकिन ये कहानियां आज भी घर के उस कोने में, जामा मस्जिद के चबूतरे पर ही खड़ी है जहां कभी बैठ दादी, नानी-तांगे वाला कहानियां सुनाता था। ये कहानियां जो पुरानी दिल्ली के महत्वपूर्ण स्थानों, गलियों की कहानी सुनाती है। इन गलियों की खासियत बताती है। इनमें रहने वाले जिन्हें रोज सुनकर ही सोते थे। तो आइए सबरंग के इस अंक में कुछ प्रचलित कहानियों से आपको रूबरू कराते हैं।

विरासत-ए-पुरानी दिल्ली

पुरानी दिल्ली में किस्से कहानियों का दौर कब से शुरू हुआ यह तो बताना मुश्किल है। लेकिन तांगे वालों का एक दौर था जब वो किस्सा सुनाते थे। इन्हें किस्सा गो कहते थे। दरअसल ये शुरू हुआ सवारियों को आकर्षित करने के क्रम में। ये तांगे वाले बड़े ही नाटकीय अंदाज में सवारियों को बुलाते थे। सवारियां जब तक पूरी हों तब तक ये जामा मस्जिद के चबूतरे पर बैठकर उनका मनोरंजन करते थे। सवारियों को कहानी सुनाते थे। जब सवारी पर्याप्त हो जाती थी तो ये तांगा लेकर गंतव्य के लिए रवाना होते थे। इस दौरान रास्ते में भी कहानियां सुनाते थे। पुराने दिनों में ये तांगे लाल किले से महरौली और लाल किले से तुर्कमान गेट तक चलते थे। इन तांगे वालों के अलावा नाना वाले भी बैठकर कहानियां सुनाते थे। ये कहानियां तुर्कमान गेट, लाहौरी गेट, अजमेरी गेट, मोरी गेट समेत अन्य गेटों के लिए भी कहानियां थी। मोहल्लों की भी अपनी कहानियां थी। मसलन, मोहल्ला गदौड़िया। जो शेख फारुखी का मोहल्ला था। वहीं पर थे तुर्कमान गेट शाह मियां बानी, इनके नाम पर ही तुर्कमान गेट दरवाजा है।

कहानी बुलबुली खाना गलियों की

इसे बुलबुल-ए-खाना की गली कहकर बुलाया जाता है। पुरानी दिल्ली में किस्सागोई को जीवंत किए टैलेंट ग्रुप के निर्देशक इरशाद आलम कहते हैं कि यह गली कई कहानियों का घर है। कहा जाता है कि यहां तीन बुलबुल रहा करती थीं। आज यहां बुलबुल तो नहीं दिखती लेकिन हां लोग पक्षियों के दीवाने हैं। छतों पर आपको कबूतरों का झुंड दिखाई देगा। यहीं पर दिल्ली की पहली महिला शासक रजिया सुल्ताना की भी मजार है।

गली टोपी वाली

यहां पर एक टोपी बाज रहते थे। इनका नाम ही टोपीबाज पड़ गया था। अरे..आप पहनने वाली टोपी समझ रहे हैं क्या। नहीं-नहीं जनाब ये टोपी पहनने वाले नहीं, बल्कि दूसरे को पहनाने वाले थे। ये जनाब टोपी वाले, डकोतों के साथ रहते थे। ये वहीं डकोत थे जो तुर्कमान गेट स्थित गली डकोतान में रहते थे। ये डकोत शनि मांगते थे। इन डकोत के साथ एक बैल भी रहती थी, जिसके चार सींग थे। सिर पर दो सींग के अलावा दो पीछे की तरफ भी सींग थी। ये टोपी वाले जब निकलते थे तो बैल साथ लेकर चलते थे। चिल्लाते हुए गुजरते थे कि–जिनको हो गंभीर बीमारी। जिस बच्चे के हाथ में है परेशानी। मैं दूर करुंगा बीमारी, आओ लेकर जाओ यह सामान। वो सामान को कोहिनूर कहकर बेच देते थे। जबकि यह सिर्फ पत्थर होता था।

गली गुदड़ीयान

पुरानी दिल्ली में गली गुदड़ीयान है। इसे गधे वालों का मोहल्ला भी कहते हैं। यहां बहुत ही दिलचस्प कहानी प्रचलित है। यहां एक डाकू रहता था। जिसका नाम पहाड़ी भोजला था। इसी पहाड़ी पर जामा मस्जिद बनी है। जामा मस्जिद सबसे उंची चोटी पर बसा है। कहते हैं यदि पूरा दिल्ली शहर डूब जाए तब भी जामा मस्जिद की एक सीढ़ी तक पानी पहुंचेगा। यह किस्सा चबूतरे पर गधे वाले सुनाते थे। इसी में एक नाना वाले भी रहते थे। इन नाना वाले के किस्से मशहूर थे, जिसे सुनने के लिए लोग दूर दूर से आते थे। नाना बताते थे कि पहहाड़ी भोजला का एक और भाई थी पहाड़ी धीरज। भोजला सोना लूटता था दूसरा चांदनी लूटता था। कहते हैं एक बार तुर्कमान गेट से होते हुए बारात जा रही थी। रास्ते में मोहल्ला कब्रिस्तान है। यहां दादा पीर रहते थे। भोजला ने बारात लूटने की योजना बनाई। कहते हैं, बारातियों को पता नहीं कहां से भनक लग गई। वो डर, सहम गए और तत्काल कब्रिस्तान में दादा पीर के पास पहुंचे। उनके सामने एक कटोरा रखा था। उन्होंने अपनी सारी व्यथा उन्हें कह सुनाई। कहा कि दादा पीर-दादा पीर जान बचाइए। और फिर क्या था कि पूरी बारात छोटी हो गई और उस कटोरे में समा गई। ऐसा कहा जाता है कि आज भी जुमे रात उस कटोरे से बारात की आवाजें आती है। इस कटोरे को सिर्फ उर्स के दिन निकाला जाता है। अब इसी से जुड़ा एक और किस्सा है रजिया सुल्तान का। कहानी, दरअसल यह है कि आखिर रजिया सुल्ताना की कब्र दादा पीर के पास क्यों है। अब आप जरा सोचिए, महरौली कहां और रजिया की कब्र कहां। जनाब, अब यहां किस्से के अंदर किस्सा शुरू हो रहा है। चूंकि दादा पीर एक सूफी संत थे। उन्होंने बारात छोटी कर दी, पहाड़ी भोजला और धीरज उनके मुरीद हो गए। उन्होंने एक बात कही थी, कि शाह बियाबानी में जो कब्रिस्तान है एक समय बाद उसमें आबादी होगी। यह आज चरितार्थ हो रहा है। रजिया सुल्तान यहां एक मस्जिद में नमाज पढ़ने आती थी, जिसका नाम है कला मस्जिद। यह मस्जिद, जामा मस्जिद से 700 साल पुरानी कही जाती है। तो इस तरह यहां आते-आते वो उनकी मुरीद हो गई। अपने आखिरी समय में वो यहीं दादा पीर के साथ रही।

बताशे वाली गली

हाल ही में दिवाली मनाई गई थी। दिवाली में बताशे तो आपने भी खाए होंगे। लेकिन आपको यह जानकार हैरानी होगी कि पुरानी दिल्ली में तो बकायदा एक गली ही थी बताशे वाली। जहां हर घर में बताशे बनते थे। यहां बताशे एवं देशी खांड़ मिलते थे। इसलिए इसे बताशे वाली गली ही कहकर पुकारा जाने लगा।

कुंए वाली गली

पुरानी दिल्ली की यह गली कभी एक दो नहीं सैकड़ों परिवारों की प्यास बुझाती थी। दरअसल, यहां एक कुआं होता था। जिससे आसपास के इलाकों के लोग पानी भरकर पीते थे। लेकिन विकास की दौड़ में कुएं गायब हो गए, उनकी जगह दो वाटर पंप लगा दिए गए और उन्हीं से पानी की आपूर्ति होती है।

मीर मदारी गली

दिल्ली के चौक चौराहों पर कभी आपने मदारी का खेल तो देखा ही होगा। बंदर कैसे मदारी के इशारों पर उछलकूद करता है और लोग तालियां बजाकर स्वागत करते हैं। लेकिन पुरानी दिल्ली में तो बकायदा मदारी वाली गली ही थी। जिसमें मदारी रहते थे। कहा जाता है कि ये मदारी बंदर पालते थे एवं उन्हें खेल सिखाते थे। उसके बाद सुबह ये बंदर के साथ विभिन्न इलाकों में निकल जाते थे। मदारी का खेल दिखाते एवं बदले में लोगों से पैसा या अनाज मिलता।

अखाड़े वाली गली

पुरानी दिल्ली में यूं तो कई अखाड़े आज भी मौजूद है लेकिन अखाड़े वाली गली का इतिहास अनोखा है। दरअसल, इस गली में कई अखाड़े थे। कहा जाता है कि अखाड़े में महिलाओं का प्रवेश वर्जित था। बदलते दौर में इन अखाड़ों का अस्तित्व खत्म होता जा रहा है। खुद अखाड़े वाली गली में स्थित अखाड़े की जगह जिम ने ले ली।

गली तानरस खां

पुरानी दिल्ली की यह गली अपने अंदर दिल्ली के संगीत घराने का इतिहास समेटे हुए है। दिल्ली घराना सारंगी वादकों या गायकों का घराना है। सितार पर वह गाने का अनुसरण करते हैं। इस घराने के प्रवर्तक तानरस खां माने जाते हैं। तानरस खां ने इस घराने को स्थापित किया। बाद में तानरस खां के पुत्र उमराव खां ने चलाया। इस घराने की विशेषताएं हैं-ख्यालों की कलापूर्ण बंदिशें, तानों का निराला ढंग और द्रुतलय में बोल तानों का प्रयोग। दिल्ली घराने की शैली को बाज या चांटी बाज और दो-अंगुली भी कहा जाता है। इस घर में पेशकार, कायदा और रेला का अधिकता है। इसकी अधिकांश रचनाएं चतुरस जाति में हैं। आज भी चांदनी महल इलाके में एक महल मौजूद है। अंतिम मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर ने यह महल तानरस खां को दान दिया था। आज भी दिल्ली घराना संगीत सेवा में तल्लीन है और गली तानरस खां के बहाने इतिहास जिंदा है।

दरीबा कलां

बंटी बबली फिल्म के एक गाने कजरारे में अमिताभ बच्चन ने इस गली का नाम लिया है। दरीबा कलां की शान में आज भी कसीदे पढ़े जाते हैं। मुगल बादशाह शाहजहां ने जब दिल्ली को देश की राजधानी बनाया तो उन्होंने चांदनी चौक का निर्माण भी किया था। बाजार को शाही बाजार माना जाता था जिसमें बादशाह, उसके परिवार और राजशाही से जुड़े लोग खरीदारी के लिए आते थे। उसी दौरान महलों की बेगमों और रईसों की महिलाओं के लिए भी एक बाजार बनाया गया, जिसमें गहनों आदि की दुकानें खोली गई। इसी बाजार को दरीबा कलां के नाम से जाना जाता है। इस बाजार में उस दौरान देश के बड़े सुनारों के अलावा अन्य देशों के जौहरी भी जेवरात बेचने के लिए आते थे। बेगमों को अगर उनके जेवरातों का डिजाइन पसंद नहीं आता था तो उनसे मनपसंद डिजाइन की जानकारी लले ली जाती थी और अगली बार उनकी पसंद का जेवर उन्हें सौंप दिया जाता था। नादिरशाह ने अपने वक्त में इस बाजार को बुरी तरह से लूटा था। दरीबां फारसी शब्द है जिसका अर्थ होता है बड़ा। आज भी इस बाजार में मीरीमल सुल्तान सिंह जैन, धन्नूमल जगाधर मल, भगवान दास खन्ना, श्रीराम हरि राम जैसे पुराने जौहरियों की पीढ़ी कारोबार कर रही है।

इमली वाली गली

कहते हैं पुरानी दिल्ली में पहले एक पहाड़ होता था जिसे भोजला पहाड़ी कहकर बुलाते थे। इस पहाड़ के उपर एक इमली का बड़ा सा पेड़ था। अब ना तो पहाड़ी है ना ही इमली का पेड़। लेकिन गली आज भी पहाड़ी इमली के नाम से ही जानी जाती है। यही नहीं यहां आज भी घरों के सामने जामुन, शहतूत, नीम आदि के पेड़ दिखते हैं। हालांकि आबादी बढ़ने के साथ-साथ घरों का आकार छोटा होता चला गया। जबकि पहले पहाड़ी के ढलाव पर कैलीग्राफर मीर पंजाकश की ही एकमात्र हवेली थी। ना केवल भारत बल्कि दुनिया के कोने कोने से लोग मीर के पास कैलीग्राफी सीखने आते थे। बाद में इस हवेली में प्राइमरी स्कूल खुल गया। मीर के बारे में एक किस्सा और भी प्रचलित है कि ये शारीरिक रूप से बहुत स्वस्थ्य थे। पंजा लड़ाने में इनसे कोई जीत नहीं पाता था। इनसे पंजा लड़ाने के लिए लोग दूर दूर से आते थे।

मशालची गली

गली के नाम से तो जाहिर होता है जैसे ये मसाले बेचने वालों के नाम पर रखी गई है। लेकिन दरअसल ये मुगल शाही दरबार में काम करने वालों की गली है। ये मशालची राजशाही सेना का हिस्सा होते थे और सबसे आगे चलते थे। ये सेना को प्रकाश दिखा रास्ता दिखाते थे। यही नहीं शादी समारोह में ये लाइट लेकर टुकड़ी का प्रतिनिधित्व भी करते थे।

मूर्घन गली

यह गली मूर्गो की लड़ाई के लिए काफी प्रसिद्ध थी। दरअसल इस गली में मुर्गो को लड़वाया जाता था। जो उन दिनों मनोरंजन का बहुत ही लोकप्रिय साधन था। आज भी जामा मस्जिद के पूर्वी गेट पर रविवार के दिन मुर्गो की लड़ाई कराते लोग कभी कभार दिख जाते हैं। यह गली भी बजरंग बली के नाम से बहुत प्रसिद्ध है।

सदर सदूर गली

मुगल काल में यह नवाब मिर्जा लाला जारबेग की हवेली थी। 1857 की क्रांति के बाद ब्रितानिया हुकूमत ने इस हवेली को एक मजिस्ट्रेट को बेच दिया। जिन्होंने बाद में इसे अपना नाम दिया एवं फिर गली भी सदर के नाम से मशहूर हो गई।

सक्के वाली गली

सक्के वाली गली में कई कहानियां प्रचलित है। जिसमें एक कहानी यह है कि इस गली का नाम उन लोगों के नाम पर पड़ा जो कुंए से पानी निकालते थे। ये उसे बकरी के चमड़े से बने मशक में भरते थे एवं फिर गलियों में सड़कों पर छिड़कते थे। आज भी पुरानी दिल्ली में इन्हें देखा जा सकता है। हालांकि संख्या में ये अब विरले हो चुके हैं।

गली गुलियां

पुरानी दिल्ली की गली गुलियां। जहां से गुजरते हुए ठंडी हवा के झोंके एक सुखद अहसास दिलाते हैं। जितनी ठंडक का अहसास यहां से गुजरते हुए होता है उतना ही इसका इतिहास सुनकर भी। दरअसल, यहां ऐसी कई कहानियां प्रचलित है कि इस गली का नाम गुलाब की वाटिका पर पड़ा। इतिहासकार कहते हैं कि यहां एक गुलाब का बगीचा था। गुलाब को गुल भी कहकर बुलाया जाता है। इस बगीचे की खुशबू से आते जाते लोग सम्मोहित से हो जाते थे। लिहाजा, यह गली ही गली गुलियां के नाम से प्रसिद्ध हो गई।

गली कबाबियान

दोनों तरफ दुकानों की लंबी फेहरिस्त, कहीं वाहन तो कहीं कपड़े की दुकानों के बीच गली में एक दूसरे से बचते बचाते गुजरते लोग। कहीं से खाने की खुशबू आती हैं तो कहीं साइकिल, रिक्शा चालकों के घंटी बजाने की आवाज। लेकिन यह गली आज भी देशी विदेशी पर्यटकों की पसंद है। गली कबाबियान, जहां स्वाद के शौकीन करीम रेस्टोरेंट का मुगलई जायका चखने खींचे चले आते हैं। गली में कई कहानियां प्रचलित है। स्थानीय निवासी जमाल अहमद कहते हैं कि करीमुद्दीन ने इसी गली में दुकान खोली थी जो आगे चलकर करीम के नाम से प्रसिद्ध हुई। मसलन, मुगल खाने के शौकीन थे। उनका विशेष रसोइया ही उनके लिए खाना पकाता था। ब्रितानिया हुकूमत के उदय एवं मुगल शासन के अंत के बाद रसोइया(जो अब करीम होटल चलाते हैं) दरबार छोड़ नौकरी की तलाश में इधर उधर भटकने लगा। सन 1911 में दिल्ली दरबार लगा था। इसी समय हाजी करीमुद्दीन ने छोटी दुकान खोली। उस समय देश विदेश से पर्यटक दिल्ली आए हुए थे। जामा मस्जिद के पास स्थित यह दुकान चल निकली। पहले पहले मेन्यू में आलू गोश्त और दाल और रोटी थे। सन 1913 में वर्तमान गली कबाबियान में उन्होंने करीम होटल खोला। आज यह दिल्ली का विश्व प्रसिद्ध होटल है जहां प्रतिदिन लोग मुगलई जायका चखने आते हैं।

नई सड़क की संकरी गली

चांदनी चौक रोड को चावड़ी बाजार से जोड़ने वाली यह सड़क कई मायनों में ऐतिहासिक है। इस सड़क पर होलसेल किताबों का बाजार है। जहां किताबों का मेला लगता है। लिहाजा, हर समय युवाओं की भीड़ दिखती है। इसी रोड पर एक संकरी गली ऐसी भी है जो लोगों का ध्यान खींचती है। क्यों कि, गली में एक बार में सिर्फ एक ही शख्स गुजर सकता है। प्रवीण कहते हैं कि यह चांदनी चौक की अपेक्षाकृत नई सड़क है। जिसे 1857 के बाद अंग्रेजों ने बनाया था।

बंदूक वाली गली

कूचा पंडित में बंदकू वाली गली का नाम क्यों पड़ा यह बहुत कुछ स्पष्ट नहीं है। कुछ लोग इसे 1857 की क्रांति से जोड़कर देखते हैं। कुछ लोगों का कहना है कि यहां पहले ऐसे लोग रहते थे जिनके यहां बंदूके थी। इस कारण भी इसका नाम बंदूक वाली गली पड़ गया। इतिहासकार आरवी स्मिथ कहते हैं कि इन नामों के पीछे सिद्धांत नहीं सिर्फ कयास लगाए जाते हैं।

कल्लू खसाब गली

पुरानी दिल्ली में एक गली ऐसी भी है, जिसका नाम एक बदमाश के नाम पर रखा गया है। स्थानीय निवासी जमाल अहमद कहते हैं कि ऐसा कहा जाता है कि कल्लू नाम का एक बदमाश था। जिसके भय से लोग यहां भयाक्रांत थे। इस वजह से इस गली का नाम ही कल्लू गली पड़ गया।

घोड़े वाली गली

करोलबाग के गोशाला रोड पर स्थित है घोड़े वाली गली। यहां घोड़ों को पाला जाता है वो भी 100 साल से। स्थानीय निवासियों की मानें तो कई परिवारों का तो यह सौ साल से भी पुराना काम है। हालांकि ऐसे परिवारों की संख्या यहां पर अब काफी कम बची है। यहां तकरीबन 35 घोड़े-घोड़ियां हैं। इतनी संख्या में ही करोलबाग के सत नगर में भी घोड़े हैं। यहां गली से गुजरते हुए आप आसानी से देख सकते हैं कि यहां किस कदर लोग जुनून के साथ घोड़े पालते हैं। बृहस्पतिवार को यहां से बड़ी संख्या में घोड़े आईटीओ स्थित गुलाब वाटिका के पास मजार तक जाती है। जहां इन घोड़ों को सड़क पर दौड़ाया जाता है। एक तरह से इसे दौड़ का ट्रायल कहा जा सकता है। यहां दौड़ में शामिल हुए घोड़ों पर लोग बोली लगाते हैं एवं फिर दिल्ली के किसी अन्य दूसरे इलाके में इनकी रेस होती है।

ईश्वरी प्रसाद गली

उत्तरी जिले के बाड़ा हिंदू राव इलाके में ईश्वरी प्रसाद गली बहुत प्रसिद्ध है। गली में बड़ी संख्या में हिंदू-मुस्लिम परिवार रहते हैं। स्थानीय निवासी गुफरान कहते हैं कि ईश्वरी प्रसाद एक समाज सेवक थे। ऐसा कहा जाता है कि ये दिल के बड़े सच्चे एवं मानवता के उपासक थे। जो भी उनके दर पर जाता था वो खाली नहीं लौटता था। हिंदु-मुस्लिम एकता को प्रगाढ़ करने में उन्होंने जी जान लगा दिया था। यही वजह है कि गली आज भी उनके नाम से ही जानी जाती है।

ठेले वाली गली

सब्जी मंडी इलाके में स्थित यह गली कभी बाहरी मजदूरों से अटी पड़ी थी। ये मजदूर यहीं ठेले बनाते एवं रहते थे। लेकिन विगत सालों से ठेले वाली गली की शान में नूर निहारी ने चार चांद लगा दिया है। इसी गली में नूर निहारी रेस्टोरेंट है। जहां आज भी लोग फर्श पर बैठकर खाना खाते हैं। प्रथम मंजिल पर आपको बड़ी संख्या में हिंदू- मुस्लिम बैठकर निहारी का स्वाद चखते दिखाई देते हैं। गुफरान कहते हैं कि यह गली आज भाईचारे की मिसाल बन चुकी है।

गली मौलाना शाह करामतुल्ला

बाड़ा हिंदू राव इलाके में ही स्थित यह गली सूफी संत करामतुल्ला के नाम पर है। गली में इनका नाम लोग श्रद्धा से लेते हैं। कहा जाता है कि इन्होंने मानवता का प्रचार प्रसार किया। साथ ही पढ़ने के लिए भी लोगों को प्रेरित करते थे। इसके लिए इन्होंने लाइब्रेरी भी बनवाई थी। आज इसी गली से ईद मिलाद उल नबी का जुलूस निकलता है। यहीं पर इस जुलूस की तैयारी भी होती है। यहीं पर दिल्ली का मुख्य आफिस भी बनाया गया है।

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