कश्मीरी गेट स्थित महाराणा प्रताप अंतरराज्यीय बस अड्डा, जहां क्या सुबह-क्या शाम। बसों की लंबी लाइन, तेज हार्न, लोगों की भीड़ दिखती है। ऐसा लगता है मानों पूरी दिल्ली यहीं उमड़ पड़ी है। लेकिन यहां से चंद कदम की दूरी पर मजनूं का टीला स्थित तिब्बती मार्केट मानों एक अलग ही दुनिया का एहसास कराती है। जहां संकरी गलियों से छनकर आती ठंडी हवाएं सुकून देती है। कदम-कदम पर तिब्बती लोक, कला संस्कृति की झलक मिलती है। हां, अब कोई मजनूं तो यहां नहीं रहता लेकिन कहा आज भी इसे मजनूं का टीला स्थित तिब्बत मार्केट ही है। तिब्बती कला संस्कृति का परिचायक बन चुके इस मार्केट को मिनी तिब्बत कहकर भी बुलाते हैं।

कहानी बस्ती बसने की

मजनूं का टीला नाम के पीछे बड़ी दिलचस्प कहानी है। इतिहासकारों की मानों तो यहां यमुना किनारे टीले पर एक शख्स रहता था जो लोगों को नदी पार कराता था। इरानी सूफी संगीत के गुनी इस शख्स को अब्दुल्ला कहकर बुलाते थे। जिसका निक नेम मजनूं था। ऐसा कहा जाता है कि मजनूं 20 जुलाई 1505 मजनूं गुरू नानक जी से मिला था। मजनूं की भक्ति का ही परिणाम था कि गुरू नानक जी यहां पूरे जुलाई महीने रहे। बाद के समय में सिख मिलिटरी लीडर बघेल सिंह ने यहां मजनूं का टीला गुरूद्वारा बनवाया। मजनूं का टीला में तीन मुख्य आवासीय कालोनियां है। अरुणा नगर, न्यू अरुणा नगर और पुराना चंद्रवाल गांव। अरुणा नगर में ही रिफ्यूजी कैंप है, जिसे आजादी के बाद बसाया गया था। लगभग 400 घरों तथा 4000 की आबादी वाली इस बस्ती में सर्वत्र तिब्बती संस्कृति तथा लोकाचार के दर्शन होते हैं। छोटी छोटी तंग व संकीर्ण गलियों वाली इस बस्ती में अपनी विशिष्ट वेशभूषा में तिब्बती लोगों तथा तिब्बती शैली में बने उनके घरों को देखकर ऐसा महसूस होता है कि जैसे हम तिब्बत के ही किसी छोटे से नगर में हैं। तिब्बती रिफ्यूजी कैम्प के प्रधान सवांग दोरजी कहते हैं कि सन 1959 में चीन द्वारा तिब्बत पर कब्जा कर लेने के बाद से हजारों तिब्बतियों ने भारत में शरण ली थी। जिनमें से कुछ धर्मशाला, देहरादून, शिमला, डलहौजी, कुल्लू, मनाली आदि में बस गये तो कुछ ने दिल्ली का रूख किया। दिल्ली में हम लोग 1959 से ही हैं। राजधानी में हमारा सर्वप्रथम आश्रय बुद्ध विहार में था। उसके बाद केला गोदाम में हुआ तथा अब मजनूं का टीला, जहां पर हम 1965 से हैं।

छंग से लेकर परिधान तक

तिब्बती मार्केट में छंग तथा जींस, जूते, स्वेटर, शाल तथा कई अन्य सामान मिलता है। ‘छंग’ जौ द्वारा निर्मित एक बीयर जैसा पेय होता है, जिसमें एल्कोहल नहीं होता। यहां का मार्केट मॉनेस्ट्री के नाम से विख्यात है। विदेशी जींस, जैकेट, जूते, स्वेटर आदि के लिये मशहूर यह मार्केट प्रतिदिन हजारों ग्राहकों को अपनी ओर आकर्षित करता है। तिब्बत मार्केट एसोसिएशन के अध्यक्ष की मानें तो हम शरणार्थी जरूर हैं पर भिखारी नहीं। इसी वजह से प्रत्येक तिब्बती किसी न किसी व्यवसाय से जुड़ा है। इस मार्केट में आज 70 से ज्यादा पंजीकृत दुकानें हैं। हमारी वस्तुओं की विशिष्टता व उचित मूल्यों के कारण तो हम इतने ग्राहकों को आकर्षित करने में सफल होते हैं। कैम्प प्रधान सवांग के अनुसार ‘ऐसा नहीं है कि हम विदेशी सामान ही बेचते हैं। होजरी का तमाम सामान हम लुधियाना से यहां लाकर बेचते हैं। यहां गलियों से गुजरते हुए सुखद अनुभव होता है। हॉकर तिब्बती गाना गाते हुए सामान बेचते हैं।

लाजवाब जायका

मार्केट में खरीदारी के बाद यदि आप तिब्बती खाना न खाए तो शापिंग अधूरी लगती है। यहां कई ऐसे रेस्टोरेंट है जो बेहतरीन जायके के ठौर है। टीडी ऐसा ही रेस्टोरेंट है। यहां एक साथ 40 लोगों के बैठने की सुविधा है। यहां परंपरागत बुद्धिस्ट तरीके से ही बैठाया जाता है। जगह जगह लाफिंग बुद्धा की मूर्तियां रखी है। मेन्यू चाइनीज और तिब्बती जायके से युक्त है। मोमोज, नूडल्स और ठुकपा लाजवाब है। तिब्बती जायके के मेन्यू में आपको ग्यूमा(फ्राइड मोमोज), शभेली(फ्राइड मोमोज), थेंटूक(सूप के साथ नूडल्स) मिलेगा। जिसका स्वाद लाजवाब है। इसी तरह मोमोज के लिए वोंगडन हाउस का रूख किया जा सकता है। यह यहां के पुराने रेस्टोरेंट में से एक है। यहां से यमुना का खूबसूरत दृश्य दिखता है जो ग्राहकों को बार बार आने के लिए प्रेरित करता है। जबकि यहां का कॉफी हाउस तो काफी प्रसिद्धद्ध है। दीवारों पर पीला पेंट एवं बेसमेंट का शांत माहौल आकर्षित करता है। कॉफी का स्वाद तो दिल को छू जाता है। इसके अलावा भी लिटिल तिब्बत, डोलमा रेस्टोरेंट समेत कई ऐसे ठिकाने हैं जहां खाना खाया जा सकता है।

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