किलोखड़ी का किला का विस्तृत इतिहास
इसे बलबन के पोते सुलतान कैकबाद ने किलोखड़ी गांव में 1286 ई. में बनवाया था। बलबन के अहद में जो मिनहाजुसिराज हुआ है, उसने अपनी तसनीफ तबकते नासरी में इस स्थान का जिक्र किया है। उसमें लिखा है कि जब नासिरुद्दीन ने चंगेज खां के सफीर हलाकू खां का स्वागत किया तो सब्ज महल से किलोखड़ी के शाही महल तक फौज ही फौज खड़ी थी।
कैकबाद ने इस शहर के महल को बहुत बढ़ा दिया। उसने यमुना किनारे एक बहुत सुंदर बाग लगाया। वह अपने उमरा और मुसाहिबों को लेकर वहां जाकर रहने लगा। जब उमरा और मुसाहिबों ने देखा कि बादशाह वहां रहने लगा है तो उन्होंने भी वहां अपनी रिहायश के लिए इमारतें बनवा लीं। इस प्रकार यह स्थान बहुत मशहूर हो गया।
अलाउद्दीन इमारतें बनवाने का बड़ा शौकीन था। उसके यहाँ सत्तर हजार शागिर्द पेशा थे, जिनमें सात हजार मेमार, बेलदार और गुलकार थे, जो आए दिन तामीरी काम किया करते थे। वह पहला मुसलमान बादशाह था, जिसने पुरानी दिल्ली अर्थात रायपिथौरा के स्थान को छोड़कर एक नया शहर ‘सीरी’ बसाया, जिसका नाम नई दिल्ली पड़ा और उसमें कसे हजार सुतून (एक हजार खंभों का महल) की बेनजीर इमारत बनवाई। कुव्वतुल इस्लाम मस्जिद को और बढ़ाया और अलाई दरवाजे के नाम से एक निहायत आलीशान दरवाजा बनवाया। उस समय के वहशियाना कामों की बाबत अमीर खुसरो ने लिखा है यहां यह कायदा है कि जब कोई नई इमारत बनती है तो उस पर इंसान का खून छिड़का जाता है। बादशाह ने एक ऐसी मीनार बनवानी शुरू की थी, जो कुतुब मीनार से भी बड़ी हो, लेकिन जिंदगी ने वफा न की और वह अधूरी रह गई।’ यह अधवनी या टूटी हुई लाट कहलाती है। उसने सीरी में एक मस्जिद भी बनवाई थी, जो पूरी न हो सकी। हौज अलाई भी इसी ने बनवाया।