सर थॉमस 1813 में दिल्ली आया और उसने अपने भाई सर चार्ल्स के मातहत काम करना शुरू किया। 1835 में वो दिल्ली का रेजिंडेट बन गया। 1853 के मध्य में सर थॉमस को शक हुआ कि उसे ज़हर दिया जा रहा है। वह आमतौर पर बीमार नहीं पड़ता था। वह अपने नियम के मुताबिक जिंदगी गुज़ारता था, कम खाता था और कम बाहर जाता या रात को देर से घर आता था। इन आदतों की वजह से वह अपने को सेहतमंद रखता था। लेकिन एकदम से बरसात के मौसम के शुरू में उसकी तबीयत बहुत ख़राब होने लगी। और फिर उसे बार-बार उल्टी होने लगी । और कई हफ्ते तक वह खाना हज़्म नहीं कर पाया। उसकी बेटी एमिली उसकी इतनी जल्दी गिरती हुई हालत देखकर दंग रह गई। उससे मिलने के फौरन बाद उसने लिखा: “वह बहुत दुबले और बीमार लग रहे हैं। उनका रंग सफेद पड़ गया है और हर वक्त उनका दिल मिचलाता था और उनको बहुत तकलीफदेह पतली के होती है। उनके चेहरे पर जो चेचक के निशान थे, जो पहले बहुत हल्के दिखाई देते थे अब ज़्यादा उभर आए हैं। यह स्पष्ट था कि वह बहुत बीमार लग रहे थे लेकिन उनको कहीं दर्द की शिकायत न थीं।””

पिछले दिसंबर उनका पूरा ख़ानदान दिल्ली में मैटकाफ हाउस के आतिशदानों में भड़कती आग के सामने क्रिसमस मनाने जमा हुआ था। थियो वहां मौजूद था और उम्मीद के खिलाफ उसकी बीवी शार्लट भी आई थी जिसने अपने पति के देहली में तबादले के बाद भी शिमला में ही रहना पसंद किया था । इस दौरे पर मैटकाफ हाउस में ही उसके अपने पहले बच्चे का गर्भ हुआ । जॉर्जीना भी वहां मौजूद थी जिसकी भूख हड़ताल का उसे फायदा हुआ था

और उसके पिता ने उसे एडवर्ड कैंपबैल से खतो-किताबत करने की इजाजत दे दी थी। कुछ ही समय बाद जॉर्जीना ने सर एडवर्ड के शादी के प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया और उसके पिता ने भी इसे स्वीकृति दे दी जिसकी वजह से उसको और पूरे खानदान को खुशी और इत्मीनान हो गया था। जीजी की बड़ी बहन एमिली भी वहां अपने पति एडवर्ड और नवजात शिशु ऐनी के साथ कांगड़ा से आई हुई थी। एडवर्ड को हाल ही में बहुत अच्छी नौकरी मिली थी, वह उस ख़ूबसूरत पहाड़ी इलाके का कमिश्नर हो गया था। एमिली उस बारे में लिखती है:

हमारा सफर सिर्फ एक महीने की छुट्टी के लिहाज़ से बहुत लंबा था। लेकिन मेरे पिता की ख्वाहिश थी कि हम ज़रूर आएं। हम सबने आपस में बहुत अच्छा वक्त गुज़ारा और साथ मिलकर क्रिसमस मनाई। प्यारे पिता अपने नाती-पोतों को देखकर बहुत खुश थे और बड़े फख से कहते रहे कि मोटी (ऐनी) दुनिया की सबसे खूबसूरत बच्ची है, और वह थी भी बहुत प्यारी। घर में और भी कुछ मेहमान ठहरे हुए थे और हम सबका ग्रुप काफी बड़ा और खुशी से भरपूर था। डैडी भी बेहद खुश और अच्छे मूड में थे कि उनके इतने बच्चे उनके पास हैं। मौसम भी बेहद खुशगवार था। और हम रोज़ घुड़सवारी करते, ड्राइव पर जाते, पिकनिक मनाते और बाहर खाना खाने जाते। लेकिन अफसोस ! यह आखरी क्रिसमस थी…”

इस जश्न के मौके पर सर थॉमस ने एमिली को और उसके पति के उस ख़ुफ़िया समझौते की तफ्सील बताई जो उसने मिर्ज़ा फखरु से किया था:

“जिन अफसरों के ज़रिए यह सब बातचीत हो रही थी वह थे विदेश सचिव सर हेनरी एलियट, लेफ्टिनेंट गवर्नर थॉमासन साहब और दिल्ली के रेज़िडेंट मेरे पिता सर थॉमस। यह बात डेढ़ साल से ज्यादा से चल रही थी और आखिरकार अब जाकर वलीअहद इन शर्तों पर राजी हुए जो हमने रखी थीं। अभी तक हालात मेरे पिता की उम्मीद से बेहतर मालूम होते थे क्योंकि उनको मालूम था कि किले में कुछ लोगों की ज़बर्दस्त साज़िश थी और हर तरह की कोशिश की जा रही थी कि वलीअहद इस समझौते को कुबूल न करें। उन साजिशी लोगों की सरदार मलिका थीं। जब उनको मालूम हुआ कि वलीअहद ने इस समझौते को कुबूल कर लिया है तो उनके गुस्से की इंतहा न रही और उन्होंने इंतकाम लेने की ठान ली। मेरे पिता खूब जानते थे कि वह अपनी ख्वाहिश पूरी होने के लिए कोई रुकावट बर्दाश्त नहीं करेंगी और उनको यह भी मालूम था कि उनके बदले की आग कभी ठंडी नहीं होगी। इसलिए उन्होंने हमसे कहा, ‘इस ड्रामे का पहला दृश्य तो खेला जा चुका है, अब क्या होगा ?

इसलिए सर थॉमस खूब जानते थे कि उनकी सेहत के इतने गिरने की वजह क्या है। हालांकि उनके पास कोई सुबूत न था। और उनको यह सुनकर कोई ख़ास ताज्जुब नहीं हुआ कि सर हेनरी एलियट और जॉन थॉमासन की बीमारी के भी यही लक्षण हैं। अपनी बीमारी के बावजूद उनका पूरा इरादा था कि वह अक्टूबर में जीजी से किया हुआ वादा पूरा करेंगे और उसकी शादी में शरीक होने शिमला जाएंगे, ताकि वहां वह थियो के होने वाले बच्चे को भी देख सकें जो भविष्य में उनके खानदान का ख़िताब जारी रखेगा। उनकी एक ही शर्त थी क्योंकि उनकी बीवी की दस साल पहले 26 सितंबर को शिमला में मृत्यु हुई थी, इसलिए वह वहां उनकी बरसी की तारीख से पहले नहीं जाना चाहते थे।

सारा खानदान सर थियोफिलस मैटकॉफ यानी थियो और शार्लट के गिरजा के पास वाले घर में अगस्त में जमा होना शुरू हो गया। जीजी वहां गर्मियों के शुरू में आ गई थी ताकि अपनी भाभी का बच्चा होने से पहले मदद कर सके और एमिली भी 31 अगस्त को कांगड़ा से आ पहुंची। एक हफ्ते के बाद वक्त से कुछ हफ्ते पहले और थियो के दिल्ली से आने से पहले ही शार्लट के एक छोटा सा प्यारा लड़का पैदा हो गया। एमिली ने लिखा “मां और बच्चा दोनों तंदुरुस्त थे और लगता था सब ठीक है।”

“शार्लट आराम करती रही और आठवें दिन थियो भी आ गया। उसको देखकर उसको ताज्जुब हुआ लेकिन दोनों बहुत खुश थे और अपने बच्चे को देखकर खिल उठे। नौवें दिन वह बाहर आकर सोफे पर लेट गई और मैं एक घंटे के लिए बाहर सैर करने चली गई। जब मैं वापस आई तो पता चला कि उसको बड़े ज़ोर से कपकपी चढ़ी थी। वह बीमार नहीं लग रही थी लेकिन उस शाम से ही वह अपने माहौल से बेखबर होती गई। बच्चे में भी उसकी दिलचस्पी कम हो गई और वह ज्यादातर वक्त सोने लगी। खाना खाते वक्त भी वह पूरी तरह जागी नहीं होती थी।

“डॉक्टरों को भी रोज़ बरोज़ ज़्यादा चिंता होने लगी। और खासकर जब उसको एक बात की रट लग गई, ‘आज क्या तारीख है, तुम्हारी मां की 26 सितंबर को मृत्यु हुई थी ना?’ बस एक यही ख्याल उसके दिमाग में बस गया था। डॉक्टरों के मशवरे के मुताबिक हम उसको यकीन दिलाते रहते कि वह तारीख गुज़र चुकी है लेकिन उस पर कुछ असर न होता। ‘वहन तुम्हारी मां की मृत्यु उस दिन हुई थी और में भी 26 को ही मरूंगी।”

22 सितंबर तक वह इतनी बीमार हो गई थी कि उसको पवित्र जल भी पिला दिया गया। थियो का बुरा हाल था। अगले दिन वह बेहोशी के आलम में पड़ी रही, बिल्कुल बेसुध ‘और बेखबर, और बिस्तर में करवट भी न ली। आखिरकार डॉक्टरों ने थियो से कहा कि उससे पूछें कि क्या उसकी कोई ख़ास ख़्वाहिश है या वह अपने बच्चे के बारे में कुछ कहना चाहती है। उसने यह सुनकर सिर्फ अपना सर हिला दिया। थियो का ख़्याल हुआ कि शायद वह समझ न पाई हो कि वह क्या कह रहा है। उसने फिर पूछा, ‘डार्लिंग तुम जानती हो कि मैं कौन हूं?’ उसने एक बहुत प्यारी मुस्कुराहट से उसकी तरफ देखा और कहा, ‘हां, मैं जानती हूं तुम एक छोटे बच्चे के पापा हो।’ बेचारा थियो! यह सुनकर बिल्कुल ही बिखर गया और उसको गम से दीवानगी के आलम में बाहर ले जाना पड़ा।

उसके बाद उसको दौरे पड़ने लगे जो कई घंटों तक चले। उसके चाहने वालों के लिए यह हालत देखना बहुत तकलीफदेह था। आखिरकार जब वह शांत हो गई तो मेरी तरफ मुड़ी और कहा, ‘ऐनी, तुम नहीं सुन सकतीं?’ ‘तुम क्या सुन रही हो, डियर,’ मैंने कहा। ‘फ़रिश्तों के गीत और वीणा । मैं उन्हें खूब अच्छी तरह सुन सकती हूं, डार्लिंग।’ और फिर थोड़ी देर बाद आधी रात को वह मेरी तरफ मुड़ी और पूछा, ‘ऐनी 26 सितंबर कब है?” डॉक्टर के हुक्म के मुताबिक, मैंने फिर उसको यकीन दिलाने की कोशिश की कि वह तारीख़ गुज़र चुकी है क्योंकि यह ख़्याल उसके दिमाग में इतना जमा हुआ था कि उसको मारे डाल रहा था। लेकिन हालांकि वह दुनिया से बिल्कुल बेखबर थी मगर इस बात पर उसका दिमाग अड़ा हुआ था। आधी रात के बाद फिर से दौरे पड़ने शुरू हो गए।

और सुबह जैसे ही सूरज निकलना शुरू हुआ और उसकी रोशनी शार्लट के बिस्तर पर पड़ी वह एकदम उठकर पलंग पर बैठ गई और उसके गले से एक बेहद सुरीला राग निकलने लगा। विना शब्दों के, लेकिन बिल्कुल दिव्य और रूहानी । उसका चेहरा ख़ुशी से इतना जगमगा रहा था कि हम सिर्फ खामोशी और ताज्जुब से उसको देखते रह गए। वह कई दिनों से बिस्तर से उठी भी नहीं थी लेकिन एकदम इसमें इतनी अलौकिक ताकत आ गई कि वह उठ खड़ी हुई। थियो उसको सहारा देने के लिए आगे बढ़ा लेकिन उसने उसकी तरफ कोई ध्यान नहीं दिया और जब उसका गाना ख़त्म हो गया तो वह बिस्तर पर गिर पड़ी और फिर वह कभी नहीं हिली। वह सितंबर 26 को तीन बजे शाम को ख़त्म हो गई। और अठाईस सितंबर 1853 को उसे मेरी मां की कृब्र के पास शिमला के पुराने कब्रिस्तान में दफन कर दिया गया। उसको खोकर थियो की जिंदगी बर्बाद हो गई।

यह ख़बर सर थॉमस को वहां मिली जहां वह कालका में पहाड़ों की सरहद पर कैंप में अपनी बीवी की बरसी के गुज़र जाने का इंतज़ार कर रहा था।

वह खुद बहुत बीमार था। बहुत कमज़ोर और दुबला और सिवाय बहुत पतले शोरबे के और कुछ हज़्म नहीं कर पा रहा था। जब उसके खानदान के लोगों ने उसे इस हाल में देखा तो उन्होंने फैसला किया कि जीजी और कैंपबैल की चर्च में होने वाली शानदार शादी के बजाय सिर्फ थियो के घर में एक छोटी सी शादी की रस्म करेंगे।

एक हफ्ते के बाद जब दूल्हा-दुल्हन शिमला के ऊपर की पहाड़ियों में हनीमून मनाने रवाना हो गए तो कमज़ोर हड्डियों का ढांचा सर थॉमस भी अपने दुखी बेटे के साथ दिल्ली रवाना हो गया। उसका सफर बहुत आहिस्ता-आहिस्ता तय हो रहा था क्योंकि सर थॉमस मौत के बिल्कुल करीब था। एमिली का कहना है:

“उनके कहीं भी दर्द न था। सिर्फ वह बार-बार उल्टी करने और लगातार मतली की कैफियत से कमज़ोर होकर कमज़ोरी से गिरे जा रहे थे। मैं भी उनके पीछे जहां तक संभव था तेज़ी से रवाना हुई लेकिन अंबाला पहुंचकर सूचना मिली कि मेरे प्यारे पिता की 3 नवंबर को मैटकाफ हाउस में सुकून से मृत्यु हो गई। जो ज़हर उनको दिया गया था वह जड़ी-बूटियों से निकला था और इस तरह तैयार किया जाता था कि उसका कोई निशान भी नहीं रहता था लेकिन वह आहिस्ता-आहिस्ता अपना असर करता रहता था। यह खुफिया नुस्खा सिर्फ देसी हकीमों को ही मालूम था।”

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