दिल्ली के रेजिडेंट सर थॉमस मैटकॉफ के लिए जो रोज़ाना दरबार की डायरी तैयार की जाती थी उसमें दर्ज है कि आखरी रात को मायूस और परेशान सर थियोफिल्स मैटकॉफ यानी थियो ने हकीम अहसनुल्लाह खान को बुलवा भेजा। ये बहादुर शाह जफर के निजी डॉक्टर थे ताकि वह उस मर्ज़ की पहचान करें जिससे सर थामस की हालत खराब हो रही थी। हकीम साहब मैटकाफ हाउस आए लेकिन उनके आने पर सिविल सर्जन ने कहा कि इनको बुलाने की ज़रूरत नहीं है इसलिए वह बग़ैर देखे ही वापस चले गए। इस तकलीफदेह हालत पर गौर कीजिये।

सर थॉमस की जान जाने का पूरा ख़तरा था। थियो अपने बाप को बचाने के लिए कुछ भी करने को तैयार था, और डॉक्टर रॉस उस आदमी को उनको देखने की इजाजत नहीं देना चाहते थे, जिस पर उसे शक था कि वह सर थॉमस की मौत की साजिश में शामिल है।

साल के आखिर तक सर हेनरी एलियट और मिस्टर थॉमासन की भी मौत हो गई। सर थॉमसन की तरह उनके बारे में भी कोई ठोस सुबूत न थे कि उनको जहर दिया गया था। सिवाय उनकी इसी तरह की हालत के हकीम अहसनुल्लाह खान ने सालों बाद हैरियट टाइटलर के सामने बहुत फख से कहा जब उनसे पूछा गया कि क्या वह किसी को बगैर किसी तैयारी के जहर दे सकते हैं तो उन्होंने कहा, “हां मुझे यह बता दें कि आप कब किसकी मौत चाहते हैं, एक साल में, छह महीने ने, एक महीने में या एक दिन में, वह मर जाएगा, और आपका डॉक्टर कभी उसकी मौत की वजह न मालूम न कर पाएगा।” यह सच है या नहीं पता नहीं, लेकिन कंपनी के लोगों में मैटकाफ को जहर दिए जाने और जीनत महल के इसमें शामिल होने की अफवाह फैल गई और वह इस पर यकीन करने लगे। इस वजह से अफसरों में मुगल खानदान की तरफ से बदगुमानी और भी बढ़ गई।

अपनी मृत्यु से पहले सर थॉमस ने भविष्यवाणी की थी कि बहादुर शाह जफर के बडे बेटे मिर्जा फखरू भी उनके बाद ज़्यादा दिन तक जिंदा नहीं रह सकेंगे। बहरहाल, ताज्जुब की बात थी कि फिर भी वह ढाई साल तक जिंदा रहे और फिर भरी जवानी में 10 जुलाई 1856 को उनकी मृत्यु हो गई और वह भी ज़हर से नहीं बल्कि कॉलरा से।

अगर जफर के दरबार में किसी को भी उम्मीद थी कि नया रेज़िडेंट मुग़लों के बारे में सर थॉमस की नीति को बदल देगा तो उसको जल्द ही मायूसी का सामना करना पड़ा।

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